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Saturday, December 19, 2020

कृतियों से गाढ़ी होती आश्वस्ति


वर्ष दो हजार बीस बीतने को आया। चंद दिनों बाद ये वर्ष भी इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा। पर दो हजार बीस को कोरोना की वजह से सदियों तक याद किया जाता रहेगा। कोरोना के अलावा भी कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनको इतिहास याद रखेगा। अगर साहित्य सृजन की दृष्टि से देखें तो ये वर्ष बहुत उत्साहजनक नहीं रहा लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी आईं जो सालों तक याद रखी जाएंगी। तीन साल पहले मशहूर और विवादित लेखिका वेंडि डोनिगर की एक किताब आई थी, ‘द रिंग ऑफ ट्रूथ, मिथ्स ऑफ सेक्स एंड जूलरी’ । उस पुस्तक के शोघ का दायरा और पूरी दुनिया के ग्रंथों से संदर्भ लेने की मेहनत पर इस स्तंभ में टिप्पणी की गई थी। तब इस बात पर अफसोस हुआ था कि हिंदी के समकालीन लेखक इस तरह का लेखन क्यों नहीं कर रहे हैं। जबकिं हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इस तरह के लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। वेंडि डोनिगर ने उक्त किताब में इस बात पर शोध किया था कि अंगूठियों का कामेच्छा से क्या संबंध रहा है ? क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका के लिए अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण रही है और है। कभी अंगूठी प्यार का प्रतीक बन जाती है तो कभी इसका उपयोग वशीकरण यंत्र के तौर पर किए जाने की चर्चा मिलती है। कई धर्मग्रंथों और शेक्सपियर से लेकर कालिदास और तुलसीदास के साहित्य से उन्होंने अंगूठी के बारे में सामग्री इकट्ठा कर उसपर विस्तार से लिखा था। 

इसी तरह से इस वर्ष मार्च में पत्रकार क्रिस्टीना लैंब की एक पुस्तक आई थी, ‘ऑवर बॉडीज देयर बैटलफील्ड, व्हाट वॉर डज टू अ वूमन’। करीब तीस साल तक युद्ध और हिंसाग्रस्त इलाके की रिपोर्टिंग करनेवाली पत्रकार क्रिस्टीना ने अपनी इस किताब में कई देशों में सैन्य कार्रवाइयों से लेकर आतंकवादी हिंसा में औरतों पर होनेवाले जुल्मों का दिल दहलानेवाला वर्णन किया है। उन्होंने अपनी किताब में सच्ची घटनाओं और पीड़ितों से बातचीत के आधार पर ये बताया है कि युद्ध और हिंसा के दौरान या फिर आतंकवादी हमले के दौरान बलात्कार को हथियार के तौर इस्तेमाल किया जाता है। जबकि 1919 में ही दुनिया के सभी देशों ने बलात्कार को युद्ध अपराध की श्रेणी में मान लिया था। इस पुस्तक का रेंज व्यापक है और इसका कैनवस ये सोचने को मजबूर करता है कि हिंदी में इस तरह का काम क्यों नहीं हो पा रहा है। 

लेकिन पिछले साल दो ऐसी पुस्तकें आईं जिसने हिंदी में हो रहे काम के प्रति एक आश्वस्ति दी। पहला काम किया है उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे बयासी साल के लेखक महेन्द्र मिश्र ने। उन्होंने सिनेमा पर बहुत श्रमपूर्वक एक पुस्तक लिखी ‘भारतीय सिनेमा’। साढे सात सौ पन्नों की इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने विस्तार से भारतीय सिनेमा के बारे में लिखा है। उन्होंने भारतीय भाषाओं में बनने वाले सिनेमा को इसमें समेटा है। जाहिर सी बात है हिंदी फिल्मों पर ज्यादा विस्तार है लेकिन महेन्द्र मिश्र ने मणिपुरी, कर्बी, बोडो, मिजो और मोनपा भाषा कि फिल्मों के बारे में भी बताया है। इसके अलावा तमिल, तेलुगू हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर भी जानकारियां हैं। लेखक ने लिखा है पुस्तक की भूमिका में लिखा है ‘जब हम सिनेमा की बात करते हैं तो अक्सर यही समझा जाता है कि मुंबई में बनने वाली हिंदी फिल्में ही भारत का सिनेमा है। यह धारणा केवल उत्तर भारत या हिंदी भाषी प्रदेशों में रहनेवालों की नहीं है, देश की बड़ी आबादी वाले कई महानगरों के निवासी भी यही सोचते हैं। देश के अन्य भाषाओं में बननेवाली मुख्यधारा की सैकड़ों फिल्मों के बारे में, खासकर तमिल तेलुगू, मलयालम भाषा की फिल्मों के बारे में कम लोग जानते हैं।‘ महेन्द्र मिश्र ने अपनी इस पुस्तक से इस स्थापित धारणा को तोड़ने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने सभी भाषाओं की महत्वपूर्ण फिल्मों के को अपने लेखन का आधार बनाया है। हिंदी में अबतक फिल्मों पर समग्रता में बहुत काम नहीं हुआ है। तथाकथित मुख्यधारा के हिंदी साहित्यकारों ने, जो वामपंथ के प्रभाव में रहे, फिल्म अध्ययन को उतना महत्व नहीं दिया जितना मिलना चाहिए था। हिंदी के लोग अब भी नहीं भूले हैं कि जब ज्ञानपीठ पुरस्कार अर्पण समारोह में अमिताभ बच्चन को आमंत्रित किया गया था तो अशोक वाजपेयी समेत कई साहित्यकारों ने इसको मर्यादा के खिलाफ बताया था। महेन्द्र मिश्र की इस पुस्तक से एक उम्मीद जगी है कि भविष्य में भी भारतीय फिल्मों पर गंभीर काम हो सकेगा। 

इसी तरह से उत्तर प्रदेश के ही रामपुर के राजकीय महिला महाविद्यालय में कार्यरत डॉ अलिफ नाजिम ने एक बेहद महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने उर्दू के महान शायर मुंशी दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबादी की कविताओं को एक जगह जमा करके उनके समग्र का संपादन किया। कई बार इस बात को लेकर भ्रम हो जाता है कि सुरूर जहानाबादी बिहार के कवि थे और इनका जन्म बिहार के जहानाबाद में हुआ था। लेकिन सचाई तो ये है कि सुरूर जहानाबादी का बिहार के जहानाबाद से कोई लेना देना नहीं है। अलिफ नाजिम साहब लिखते हैं कि ‘जो जहानाबाद दुर्गा सहाय सुरूर के उपनाम का हिस्सा बनकर साहित्य की दुनिया में अमर हो गया है उसका संबंध बिहार से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश से है।‘ ये पीलीभीत जिले का एक कस्बा है। अपनी जिंदगी के शुरुआती दिन जहानाबाद में बिताने के बाद रोजगार की तलाश में दुर्गा सहाय मेरठ आ गए और यहां विद्या प्रकाशन में सहायक संपादक की नौकरी कर ली। अलिफ नाजिम के मुताबिक दुर्गा सहाय ने यहीं अपने नाम के साथ सुरूर लगाना शुरू किया। सुरूर को सैंतीस साल की उम्र मिली। इतनी छोटी उम्र में उनकी पत्नी और बेटे का निधन हो गया। पत्नी की मृत्यु के सदमे से उबरे तो ‘दुनिया की उजड़ी गुई दुल्हन’ जैसी कविता लिखकर अपनी चुप्पी तोड़ी। बेटे की मौत पर ‘दिले-बेकरार सोजा’ जैसी रचना लिखी जिसको पढ़कर किसी का भी ह्रदय द्रवित हो सकता है। इतनी छोटी उम्र में ही सुरूर को बेहद प्रसिद्धि मिली थी। अल्लामा इकबाल से सुरूर के संबंध बहुत अच्छे थे और इकबाल उनकी बहुत इज्जत करते थे। इकबाल ने एक दौर में अपने आप को शायरी से अलग कर लिया था। तब सुरूर ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था, ‘फिजा-ए-बरशगाल और प्रोफेसर इकबाल’। ये कविता 1906 में लाहौर से प्रकाशित होनेवाले अखबार ‘मखजन’ में प्रकाशित हुई। इसको पढ़कर इकबाल ने तुरंत एक नई कविता लिखकर संपादक को भेज दी। संपादक को लिखे अपने पत्र में इकबाल ने लिखा कि ‘सुरूर मेरी खामोशी तोड़ना चाहते हैं, वो कहीं खफा न हो जाएं इसलिए ये गजल भेज रहा हूं।‘ इससे सुरूर की महत्ता समझी जा सकती है। आज भी देश के जिन भी विश्वविद्यालयों में उर्दू पढ़ाई जाती है लगभग सभी में सुरूर की कविताएं पढ़ाई जाती हैं। अलिफ नाजिम ने देशभर के अलग अलग पुस्तकालायों से खोजकर सुरूर की कविताओं को समग्र में संग्रहीत कर बड़ा काम किया है। 

एक बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि ‘भारतीय सिनेमा’ और ‘सुरूर जहानाबादी समग्र’ दोनों का प्रकाशन दिल्ली से नहीं हुआ, दोनों के लेखक दिल्ली में नहीं रहते। एक का प्रकाशन प्रयागराज से हुआ है तो दूसरे का प्रकाशन बठिंडा, पंजाब से हुआ है। ये सिर्फ इस वजह से कह रहा हूं कि दिल्ली में हो रहे लेखन को ज्यादा महत्व न देकर हमें अपने देश के अलग अलग हिस्सों के विद्वानों के कामों को रेखांकित करना चाहिए। इससे हिंदी के बारे में बन रही गलत राय का भी निषेध हो सकेगा।   


1 comment:

शिवम कुमार पाण्डेय said...

सटीक एवं सार्थक लेख..!