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Saturday, July 30, 2022

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का हिंदू मन


आज उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की जयंती है। 1880 में आज के ही दिन प्रेमचंद का जन्म हुआ था। आज एक बार फिर मार्क्सवादी लेखक और मार्क्सवाद में आस्था रखनेवाले प्रेमचंद को कम्युनिस्ट और प्रगतिशील और जाने किन विशेषणों से विभूषित करेंगे। इस तरह की प्रवृति बहुत लंबे समय से हिंदी साहित्य में चल रही है। प्रेमचंद के लेखन का मूल्यांकन करते समय मार्क्सवादी आलोचकों ने समग्रता में उनके कृतित्व को ध्यान में नहीं रखा। प्रेमचंद की उन कृतियों को या उन कार्यों को जानबूझकर ओझल कर दिया गया जिससे उनकी एक अलग ही छवि बनती है। प्रेमचंद को जबरन मार्क्सवादी बताने का ये खेल हिंदी साहित्य में लंबे समय तक चलता रहा। स्कूल और कालेज की पुस्तकों में प्रेमचंद की रचनाओं की व्याख्या इस तरह से की जाती रही कि उनकी आस्था मार्क्सवाद में थी और उनकी रचनाओं में ये प्रतिबंबित होती थी। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में मार्क्सवादियों का बोलबाला रहा है जिसकी वजह से छात्रों के मानस पर प्रेमचंद की मार्क्सवादी लेखक की छवि अंकित करवाने में उनको अधिक परेशानी नहीं हुई।  जिस भी लेखक ने प्रेमचंद की रचनाओं को समग्रता में सामने लाने का प्रयत्न किया उनको हाशिए पर रखने का उपक्रम मार्क्सवादियों ने चलाया, खासतौर पर विश्वविद्यालयों में। परिणाम ये हुआ कि लंबे कालखंड तक प्रेमचंद की रचनाओं का मूल्यांकन एकतरफा होता रहा। छात्र भी प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व के एक ही रूप से परिचित होते रहे। ये सिर्फ प्रेमचंद के साथ ही नहीं किया गया बल्कि हिंदी के तमाम लेखकों के साथ ऐसा किया गया। निराला के उन लेखों को साहित्य जगत में सामने ही नहीं आने दिया गया जो उन्होंने कल्याण पत्रिका में लिखे थे। निराला ने कल्याण पत्रिका के अलग अलग अंकों में कई लेख लिखे थे लेकिन उसपर हिंदी में चर्चा नहीं हुई। 

प्रेमचंद की रचनाओं में हिंदू संस्कृति को लेकर कितना कुछ लिखा गया है या उनकी कहानियों में हिंदू संस्कृति किस तरह से मुखर हुई है इसपर प्रेमचंद साहित्य के विद्वान कमलकिशोर गोयनका ने काफी लिखा है। गोयनका को विचारधारा विशेष के विरुद्ध जाकर लिखने की कीमत भी चुकानी पड़ी। अपमान झेलना पड़ा।  साहित्यिक मंच पर सरेआम धमकियां दी गईं। लेकिन कहते हैं न कि सत्य को बहुत दिनों तक रोका नहीं जा सकता है। अब प्रेमचंद के अनेक रूप उपस्थित हो रहे हैं। पिछले दिनों विश्वविद्यालय प्रकाशन, काशी ने प्रेमचंद के संपादन में 1933 में प्रकाशित हंस पत्रिका के काशी अंक का पुनर्प्रकाशन किया। अक्तूबर-नवंबर 1933 में प्रकाशित पत्रिका के इस अंक के लेखों को देखकर संपादक प्रेमचंद की रुचि का पता चलता है। प्रेमचंद के संपादन में निकली इस पत्रिका में एक लेख प्रकाशित है, काशी: हिंदू संस्कृति का केंद्र। इसमें लेखक ने लिखा है- ‘मध्य युग में देश पर बाहरवालों के कितने ही हमले हुए। उत्तर भारत का कोई भी प्रसिद्ध नगर उनके विनाशकारी प्रभाव से नहीं बचा। काशी पर भी सुल्तान नियाल्तगीन, कुतबुद्दीन इबुक के, तथा मुगल-काल में भी कितने ही हमले हुए, परंतु काशी की महिमा का मुख्य आधार व्यापारिक अथवा राजनीतिक महत्ता कभी नहीं रहा, उसका अटूट संबंध तो धर्म और संस्कृति से था। यदि कोई विजयी शासक नगर में लूटपाट मचा देता, मंदिर या मूर्तियों को विध्वंस्त करवा देता, अथवा लोगों का दमन करने लगता तो यह अवश्य था कि काशी कुछ दिनों के लिए श्रीविहीन हो जाती परंतु उसपर कोई वास्तविक प्रभाव न पड़ता था। हर साल फिर ग्रहण पड़ते, अमावस्या और एकादशी आतीं और उनके साथ ही साथ आता- स्त्री-पुरुषों का विशाल जनसमूह जो काशी की गलियों, घाटों और मंदिरों में समा जाता। फिर सदा की भांति प्रात: और संध्या आरती, काशी नगरी में घंटे और शंख के गंभीर निनाद के साथ भक्तों की कंठ ध्वनि मिलकर फिर वही अपूर्व समां बांध देती, मानो कुछ हुआ ही न हो।‘  इस उद्धरण से कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। पहला ये कि बाहर से कई हमले काशी पर हुए, मुगलों ने भी किए। मंदिर और मूर्तियां नियमित अंतराल पर तोड़ गए, लेकिन हिंदू संस्कृति में वो ताकत है कि वो इन हमलों को न केवल झेल गई बल्कि वापस उठ खड़ी हुई। प्रेमचंद अपने संपादन में इस तरह के लेख प्रकाशित करके उस वक्त अपना सोच देश के सामने रख रहे थे। 

हंस पत्रिका के इसी अंक में प्रेमचंद ने  काशी विश्वनाथ मंदिर पर भी एक लेख प्रकाशित किया। इस लेख का एक महत्वपूर्ण अंश देखा जाना चाहिए, ‘काशी के श्रीविश्वनाथ मंदिर में स्वयंजात ज्योति:स्वरूप लिंग हैं, इनके ही दर्शन और अर्चन से भक्त लोग अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ मोक्ष जैसा अलभ्य प्राप्त करने काशी आते हैं। स्वर्गीय महारानी अहित्याबाई ने पंच मंडप-संयुक्त एक विशाल मंदिर बनवा दिया। 51 फीट ऊंचा यह वर्तमान मंदिर कीमती लाल पत्थरों से बना है। इसके बाद ही सन् 1839 ई. में सिख जाति के मुकुटमणि पंजाब केशरी स्वर्गीय महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के ऊपरी हिस्से को स्वर्ण मंडित करके उसकी सौगुनी शोभा बढ़ा दी।‘  इस लेख की ही कुछ और पंक्तियां, मुसलमान शासकों ने प्राचीन मंदिर को तोड़ा था, उन्हीं ने वर्तमान मंदिर के सिंहद्वार के सामने एक नौबतखाना बनवा दिया, जहां अबतक नौबत बजती है, जिसके ऊपर से विजातीय लोग दर्शन किया करते हैं। केवल दर्शन ही नहीं अंग्रेज लोग पूजोपहार और दक्षिणा भी दे जाते हैं। सम्राट पंचम जार्ज से लेकर प्रत्येक वायसराय विश्वनाथ-दर्शन कर चुके हैं। अभी हाल ही में जब लार्ड इरविन आए थे तब श्रद्धा के साथ चांदी के पूजा-पात्र उपहारस्वरूप भेंट कर गए थे। इस तरह विश्वनाथ इस समय समस्त जातियों द्वारा सम्मानित और पूजित होकर काशी में सुख से विराज रहे हैं।‘ 

उपरोक्त दोनों उद्धरणों में एक बात जो समान है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने काशी में मंदिर और मूर्तियां तोड़ीं। इस पत्रिका के कई अन्य लेखों में भी मंदिरों के तोड़े जाने का प्रसंग आया है। एक और लेख है काशी का इतिहास उसमें भी लेखक ने विस्तार से काशी पर हुए अनके हमलों का उल्लेख किया है। इसमें इस बात का जिक्र भी है कि शाहजहां ने भी काशी में मंदिर तुड़वाए थे। धर्मांध औरंजगजेब ने यहां के मंदिर तुड़वाने की आज्ञा प्रचलित की जिनके चिन्ह स्वरूप ज्ञानवापी और बेनीमाधन की मस्जिदें अभी तक मौजूद हैं। औरंगजेब ने तो काशी का नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रखा था पर वो प्रचलित नहीं हो पाया। लेकिन मुगलकाल में काशी की जो टकसाल थी वहां के कुछ सिक्कों और कागजों में ये नाम मिलता है। मंदिरों और मूर्तियों को तोड़े जाने के अलावा प्रेमचंद के संपादन में निकले इस अंक से एक और ध्वनि निकलती है वो है हिंदू धर्म और संस्कृति की । 

इस अंक से प्रेमचंद की हिंदू धर्म और संस्कृति में आस्था का पता चलता है। बार बार मंदिरों के तोड़े जाने का उल्लेख इस बात की ओर संकेत करता है कि संपादक इससे आहत था।  उसको अपनी पत्रिका के माध्यम से आमजन तक पहुंचाना भी चाहता था क्योंकि अगर इन लेखों में प्रयुक्त वक्तव्यों, उद्धरणों और घटनाओं के आवरण को हटाकर भीतर छिपी मूल भावनाओं को देखें आपको प्रेमचंद का हिंदू मन दिखाई देगा। वो हिंदू मन जो अपने मंदिरों के तोड़े जाने से आहत है, वो हिंदू मन जो अपनी संस्कृति पर हुए हमलों से दुखी है, वो हिंदू मन जो सनातन संस्कृति की शक्ति को जानता है, वो हिंदू मन जो अपनी परंपरा से विद्रोह का खोखला नारा नहीं लगता बल्कि अपनी परंपरा को अपनी लेखनी से समृद्ध करता है। जो मार्क्सवादी लेखक विचारधारा की शिलाखंड पर बैठकर प्रेमचंद के साम्यवादी होने का शोर मचाते हैं उनको प्रेमचंद के संपादन में प्रकाशित पत्रिकाओं के अंक देखने चाहिए। 


Saturday, July 23, 2022

रचनात्मकता से समृद्ध होंगी भाषाएं


दो दिन पहले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई। फीचर फिल्मों और लोकप्रिय सितारों को पुरस्कार मिले। उनकी खूब चर्चा हुई लेकिन कुछ फिल्मों का उल्लेख नहीं हो पाया। ये उन भाषाओं में बनी फिल्में हैं जो हमारे देश के अलग अलग हिस्सों में बोली जाती हैं। कई बार छोटे भूभाग पर बोली जानेवाली भाषा में बेहतरीन फिल्म देखने को मिल जाती हैं कई बार ऐसा होता कि भौगोलिक रूप से बड़े क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा में अच्छी फिल्में बनती हैं। दो दिन पहले घोषित राष्ट्रीय पुरस्कार में बेस्ट नान फीचर फिल्म के लिए डांगी भाषा की फिल्म टेस्टीमनी आफ एना चुनी गई। इस भाषा के बारे में कम ही जानकारी है। गुजरात का एक जिला है डांग जो महाराष्ट्र की सीमा से लगता है। उस जिले में आदिवासी आबादी है और वहां डांगी बोली जाती है। इस छोटे से आदिवासी बहुल जिले में बोली जानेवाली भाषा में बनी नान फीचर फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार में स्वर्ण कमल प्रदान किया जाएगा। इसी तरह 2020 के लिए ही बेस्ट शार्ट फिल्म कर्बी भाषा में बनी एक फिल्म को दिए जाने की घोषणा की गई है। हरियाणवी में दादा लख्मी पर बनी फिल्म , दिमासा में अमी बरुआ की फिल्म और टुलू में संतोष माडा की फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया जाएगा। इसके अलावा राजस्थानी की एक फिल्म को भी सम्मानित करने की घोषणा की गई है।

उपरोक्त सभी भाषाओं पर विचार करें तो इनमें से कोई भी भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है। राजस्थानी को छोड़कर सभी भाषाएं अपेक्षाकृत छोटे भूभाग की भाषा है लेकिन इन भाषाओं में लगातार फिल्में बन रही हैं। लगातार इस वजह से कि पिछले तीन वर्षों के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की सूची देखने पर इस तरह की कई भाषाओं की फिल्में दिखती हैं जिनको स्वर्ण कमल या रजत कमल से सम्मानित किया गया है। 2017 में तो निर्देशक की पहली सर्वोत्तम फिल्म का अवार्ड लक्षद्वीप में बोली जानेवाली भाषा जेसरी में बनी फिल्म सिंजर को दिया गया था। इस फिल्म का चयन करनेवाली जूरी के अध्यक्ष मशहूर फिल्मकार शेखर कपूर थे। करीब 115 मिनट की ये फिल्म लक्षद्वीप में रहनेवाले एक मछुआरे पर वैश्विक आतंकवाद के प्रभाव की कहानी है। फिल्म में ये दिखाया गया है कि जब उसकी बहन और मंगेतर को आईएसआईएस के आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाया जाता है तो पता चलता है कि उनके साथ बलात्कार हुआ है। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब पता चलता है कि युवतियां गर्भवती हैं। जब उनसे संवाद होता है तो ये बात सामने आती हैं कि वो अपना गर्भ गिराने को तैयार नहीं हैं। इस पूरी कहानी और नायक के मन के द्वंद्व को निर्देशक पैंपली ने बेहतरीन तरीके से दर्शकों के सामने रखा है। फिल्म के साथ साथ निर्देशक को भी सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष लद्दाखी और टुलू भाषा में बनी फिल्मों को भी पुरस्कृत किया गया था। अगले वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में भी राजस्थानी, गारो, सेरदुकपेन जैसी भाषाओं में बनी फिल्मों को सम्मानित किया गया। अगले वर्ष यानि 2019 में पर्यावरण पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मोनपा में बनी फिल्म को दिया गया। इसके साथ ही खासी, मीशिंग, पानिया, टुलू और छत्तीसगढ़ी में बनी फिल्मों को भी पुरस्कार मिले।

उपरोक्त सारी भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं है। कहने का अर्थ ये है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं होते हुए भी इन भाषाओं में बेहतर कार्य हो रहा है। वो अपनी जमीन से जुड़ी कहानियों और अपने समाज में फैली कुरीतियों पर अपनी कला के माध्यम से प्रहार कर रहे हैं। अच्छी बात ये है कि कला जगत इनके कार्यों को रेखांकित भी कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इन भाषाओं में अधिक से अधिक काम हो ताकि उन इलाकों में फैली कहानियों को देश के सामने लाया जा सके। अब जैसे इस वर्ष अभिनेता यशपाल शर्मा की फिल्म दादा लख्मी को सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। दादा लख्मी हरियाणवी के प्रसिद्ध कवि और कलाकार थे। उनको हरियाणा में सूर्य कवि कहा जाता है। लोक कला के क्षेत्र में दादा लख्मी की बहुत प्रतिष्ठा है। अभिनेता यशपाल शर्मा ने श्रमपूर्वक दादा लख्मी के जीवन को पर्द पर उतारा है। इसके लिए उनको इस बात की आवश्कता नहीं हुई कि हरियाणवी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा हो। किसी भी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन उस भाषा के लोगों का ये भी दायित्व होता है कि वो अपनी भाषा में बेहतर काम करें और उसको समृद्ध बनाएं।

इस देश में भाषा के नाम पर स्वाधीनता के बाद से राजनीति हो रही है। कभी राष्ट्रभाषा के नाम पर तो कभी राज्यों के बंटवारे के नाम पर तो कभी शिक्षा नीति में भाषा को मिलनेवाली प्राथमिकता के नाम पर। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आने के बाद भी भाषा को लेकर एक विभाजन करने की कोशिश की गई थी लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा का उल्लेख होने की वजह से वो विभान संभव नहीं हो पाया। कला जगत में भाषा के नाम पर राजनीति अपेक्षाकृत कम है लेकिन जो कलाकार भाषा के आधार पर कला से महत्व चाहते हैं उनको अपनी भाषा में रचनात्मक कार्य करना चाहिए। रचनात्मक कार्यों से उस भाषा के प्रति लोगों के मन में एक आकर्षण पैदा होगा और वो अधिक लोगों तक पहुंच सकेगी। अगर हम लक्षद्वीप में बोली जानेवाली भाषा जेसरी में बनी फिल्म संजर का ही उदाहरण लें तो निर्देशक ने अपनी कला के माध्यम से अपनी भाषा को वैश्विक मंच तक पहुंचाया। जिस प्रकार से उन्होंने अपनी फिल्म ने वैश्विक आतंकवाद और उसके प्रभाव का मुद्दा उठाया और उसको वैश्विक मंचों पर सराहना मिली। उसने फिल्म से साथ साथ जेसरी भाषा के बारे में जानने की उत्सकुकता भी पैदा की। इस तरह के प्रयासों से न केवल भाषा का फैलाव होता है बल्कि भाषा को मजबूती भी मिलती है।

देश के अलग अलग हिस्सों में बोली जानेवाली भाषा में फिल्में बनने का एक और लाभ है।    हमारे यहां कथावाचन की एक सुदीर्घ और लंबी परंपरा रही है। उस परंपरा को समृद्ध करने के लिए अपने देश की हर भाषा में जो कदम कदम पर कहानियां बिखरी पड़ी हैं, जो लोककथाएं सुनाई जाती हैं उनको फिल्मों के माध्यम से दुनिया के सामने लाया जा सकते है। 2017 में ही एक फिल्म पुरस्कृत हुई थी जिसका नाम है विलेज राकस्टार और इसकी निर्देशक हैं रीमा दास। असमिया में बनी इस फिल्म में एक उत्तर पूर्व के एक 10 वर्षीय बच्ची धुनू की कहानी है। वो अपना राक बैंड बनाना चाहती है। इस फिल्म में उसके सपने और संघर्ष के बीच चलती कथा है जिसमें उसकी विधवा मां है और लड़कों का एक समूह है। इसको जिस तरह से निर्देशक ने कहानी में पिरोया है वो अद्भुत है। पिछले दिनों कान में आयोजित फिल्म फेस्चिवल में भारत को दुनिया का कंटेंट हब बनाने की बात हुई थी। तमाम तरह की सहूलियतों के साथ साथ हमारे देश की सैकड़ों भाषा में फैली कहानियां भी इस योजना में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। अगर हम गंभीरता से अपनी भाषा को समृद्ध और मजबूत करना चाहते हैं तो उसमें रचनात्मक कार्य करें। दुनियाभर का उदाहरण हमारे सामने है कि कोई भी भाषा आंदोलन से न तो दीर्घजीवी हुई है और न ही समृद्ध। उसमें होनेवाले रचनात्मक कार्य ही उस भाषा को और उसको बरतनेवालों को दीर्घायु बनाते हैं।  

दक्षिण में लहराया स्वदेशी का झंडा


भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों ने एकजुट होकर भाग लिया और योगदान दिया। यह इतिहासकारों की समस्या रही कि उन्होंने स्वाधीनता का इतिहास लिखते समय स्वतंत्रता संग्राम के कई ऐसे नायकों को या तो भुला दिया या उनके महत्व का आकलन सही तरीके नहीं किया गया। दक्षिण भारत के स्वाधीनता सेनानियों की तो ब्रिटिश इतिहासकारों ने उपेक्षा ही की। सुनील खिलनानी ने अपनी पुस्तक इनकारनेशंस में इतिहासकार डेविड वाशब्रुक को उद्धृत किया है। उनके मुताबिक ‘1895 से 1916 के बीच मद्रास (अब चेन्नई) की सड़कों पर कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता शायद ही भौंका होगा। तूतीकोरन अपवाद था।‘ जब डेविड वाशब्रुक तूतीकोरन को अपवाद मान रहे थे तो उसकी वजह थे, वी ओ चिंदबरम पिल्लै। चिंदबरम पिल्लै ने न केवल ब्रिटिश कंपनियों को चुनौती दी बल्कि उन्होंने स्वदेशी के नारे को साकार भी किया। उन्होंने समंदर में ब्रिटिश कंपनियों के एकाधिकार को चुनौती दी थी। इसकी भी बेहद दिलचस्प कहानी है। चिदंबरम पिल्लै का जन्म 1872 में हुआ था। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वो वकालत करने के लिए तूतीकोरन पहुंचे थे। यहां वो शैव सभा के संपर्क में आए और उनका रुझान साहित्य और संस्कृति की ओर हुआ। शैव सभा में सक्रिय चिदंबरम पिल्लै का लेखकों से संपर्क बढ़ा और एक दिन उनके किसी साथी ने उनको बाल गंगाधर तिलक के लेख आदि पढने को दिए। चिंबरम पिल्लै पर तिलक के लेखन का जबरदस्त प्रभाव पड़ा और उनका युवा मन देश को गुलामी की बेड़ियों के आजाद करवाने के लिए तड़पने लगा। 

इस बीच अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया जिसकी देशभर में कठोर प्रतिक्रिया हुई। देशभर में अंग्रजी वस्तुओं का बहिष्कार आरंभ हुआ। युवा पिल्लै ने भी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ साथ अंग्रेजों के स्कूलों और अन्य संस्थाओं के बहिष्कार की भी अपील की। अब वो सक्रिय राजनीति में आ चुके थे। पिल्लै ने विदेशी वस्तुओं और संस्थाओं के बहिष्कार के लिए अपने इलाके के लोगों को शपथ दिलानी शुरू की। पिल्लै ने लोगों को पानी में खड़े होकर मां काली की शपथ दिलाई थी कि वो विदेशी सामान और संस्थाओं का बहिष्कार करेंगे। इसका जबरदस्त असर तूतीकोरन और आसपास के इलाके में हुआ। इस दौरान ही चिदंबरम पिल्लै ब्रिटिश पुलिस की नजरों में आ गए थे। इतने से पिल्लै का मन नहीं भरा था और वो कुछ बड़ा करके ब्रिटिश राज को चुनौती देना चाहते थे। वो जिस इलाके में रहते थे वो व्यापार का बड़ा केंद्र था। वहां के समुद्री तट पर ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के जहाजों का कब्जा था। इनके माध्यम से ब्रिटिश कंपनियां भारतीय उत्पाद एक जगह से दूसरे जगह ले जाकर बेचती और मुनाफा कमाती थी। पिल्लै के मन में ये विचार पनप रहा था कि एक देसी जहाज कंपनी होनी चाहिए ताकि यहां के व्यापारियों को लाभ मिल सके। उन्होंने 1906 के अप्रैल में एक योजना बनाई और उसपर अमल आरंभ कर दिया। दिसंबर 1906 में पिल्लै ने अपनी कंपनी स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी बनाई और इस कंपनी का एक जहाज समंदर में उतार दिया। इनकी कंपनी का रेट कम होने की वजह से इनको अधिक यात्री और कारोबारी मिलने लगे। इससे बौखलाई ब्रिटिश कंपनी ने पुलिस और प्रशासन का सहारा लिया। स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी को कानूनी अड़चनें लगाकर बाधित करने का प्रयास किया जाने लगा लेकिन चिदंबरम ने हार नहीं मानी। उन्होंने पैसे जुटाकर दो और जहाज खरीद लिए। ये दोनों जहाज पहलेवाले से बड़े थे। इन दोनों जहाजों पर पिल्लै ने हरा, पीला और लाल झंडा पेंट करवाकर बड़े बड़े अक्षरों में वंदे मातरम लिखवा दिया था। उनका ये प्रयोग बहुत सफल रहा था और लोग उनको स्वदेशी पिल्लै कहने लगे थे। 

ये सब चल ही रहा था कि पिल्लै ने एक और युवा साथी शिवम के साथ मिलकर तूतीकोरन में मिल मजदूरों का आंदोलन आरंभ कर दिया। अधिक सुविधा और वेतन की मांग करते हुए कोरल मिल में हड़ताल हो गई। ये हड़ताल इतनी सफल रही कि अंग्रेजों ने मजदूरों से समझौता करना पड़ा। इसके बाद पूरे इलाके में चिदंबरम पिल्लै की लोकप्रियता और बढ़ गई और इससे बढा उनका हौसला भी। लेकिन अंग्रेजों ने चिदंबरम को फंसाने की योजना बना ली थी और उनको देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इनकी गिरफ्तारी के विरोध में तूतीकोरन में भयंकर हिंसा और आगजनी हुई थी। अंग्रेज सरकार ने आनन-फानन में पिल्ले को डबल उम्रकैद की सजा सुनाकर जेल भेज दिया। जेल में उको आम कैदी की तरह रखा गया और हाड़तोड़ मेहनत करवाई जाती थी। चिंदबरम पिल्लै ने हाईकोर्ट में अपील की और फिर उनका केस प्रीवी काउंसिल तक गया। उनकी सजा कम हुई और चार साल के बाद उनको रिहा कर दिया गया। इन चार सालों में स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी लगभग बंद हो चुकी थी और जहाज बिक गए थे। उनका वकालत का लाइसेंस रद कर दिया गया था। बाद में गांधी से मतभेद के चलते पिल्लै ने 1920 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। फिर बैंक मैनेजर की नौकरी की। इससे ऊबकर उन्होंने वकालत का लाइसेंस वापस करने की अपील की जिसको न्यायालय ने मान लिया। वो फिर से वकालत भी करने लगे और कांग्रेस पार्टी भी ज्वाइन कर ली। धीरे धीरे वो गुमनामी में चले गए और 1936 में तूतीकोरन के कांग्रेस के कार्यलय में अंतिम सांसे लीं। स्वदेशी का झंडा बुलेंद करनेवाले इस स्वाधीनता सेनानी ने शिपिंग में जिस तरह के स्वावलंबन की राह दिखाई थी उसपर आगे चलकर भारतीय कंपनियों ने काम किया। 

Saturday, July 16, 2022

इंदिरा, इमरजेंसी और कंगना


कंगना रनोट बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं। कई फिल्मों में उनका उत्कृष्ट अभिनय देखने को मिला है। कमर्शियल फिल्मों में उनकी सफलता की कहानी तो सबको मालूम है। कई बार वो लीक से हटकर फिल्में करती हैं और उसमें अपने अभिनय से दर्शकों का मन मोह लेती हैं। पिछले दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही जयललिता की जिंदगी पर उनकी फिल्म थलाइवी आई थी। उस फिल्म में कंगना ने जयललिता के किरदार को पर्दे पर अपने अभिनय कौशल से जीवंत कर दिया था। तमिल और हिंदी में बनी इस फिल्म में उनके अभिनय की बेहद सराहना हुई थी। अब कंगना ने एक और बेहद चुनौतीपूर्ण विषय और पात्र का चयन किया है। अब वो आपातकाल पर फिल्म बना रही हैं। इस फिल्म में वो इंदिरा गांधी की भूमिका में होंगी। कंगना ने इस फिल्म का एक छोटा सा वीडियो इंटरनेट मीडिया पर साझा किया है। उसको देखकर लगता है कि कंगना ने इस किरदार को निभाने के लिए बहुत श्रम किया है। छोटे से वीडियो में कंगना ने इंदिरा गांधी के हाव-भाव और उनके बोलने के स्टाइल को पूरी तरह से किरदार में उतार दिया है। इस वीडियो को देखकर इस बात का अंदाज लग रहा है कि इस फिल्म में कंगना की एक और दमदार और यादगार भूमिका दर्शकों के सामने होगी। इस फिल्म को कंगना स्वयं निर्देशित भी कर रही हैं। इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का वो काला अध्याय है जिसने समाज के हर अंग को प्रभावित किया था। उस दौर की अनेक कहानियां अब भी लोगों की स्मृतियों में शेष हैं। इमरजेंसी में जितना कुछ घटा या जिस प्रकार से इंदिरा गांधी के इस निर्णय और संजय गांधी के तानाशाही रवैये ने लोगों को परेशान किया उस अनुपात में फिल्में नहीं बनीं। रचनात्मक लेखन भी न के बराबर हुआ। लेख आदि अवश्य लिखे गए, पत्रकारों और राजनेताओं की पुस्तकें आईं लेकिन बहुत कम साहित्यकारों ने इमरजेंसी को विषय बनाकर उपन्यास या कहानी लिखी। 

हिंदी फिल्मों की अगर बात करें तो एक फिल्म याद आती है वो है किस्सा कुर्सी का। अमृत नाहटा की ये फिल्म इमरजेंसी के पहले बन गई थी और सेंसर बोर्ड के पास प्रमाणन के लिए गई थी। जबतक सेंसर बोर्ड से इसको प्रमाण पत्र मिलता तबतक देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई थी।  इस फिल्म में संजय गांधी और इंदिरा गांधी के क्रियाकलापों पर कटाक्ष किया गया था। संजय गांधी की कार फैक्ट्री लगाने के मंसूबों पर व्यंग्य भी था। संजय गांधी को जब इसका पता लगा तो वो भड़क गए थे। उसके बाद तो जो हुआ वो इतिहास में दर्ज है। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि सेंसर बोर्ड में जमा किए गए फिल्म के प्रिंट को उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल के आदेश पर जब्त कर लिया गया था। संजय गांधी इससे संतुष्ट नहीं हुए। वो चाहते थे कि फिल्म के सभी प्रिंट नष्ट कर दिए जाएं। उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिए दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने बांबे (अब मुंबई) के प्रभादेवी इलाके में एक फिल्म प्रोसेसिंग लैब पर छापा मारा। छापे में फिल्म के निगेटिव समेत सभी प्रिंट जब्त कर लिए गए और उसको लेकर पुलिसवाले दिल्ली आ गए। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि पूरी सामग्री को मारुति कार फैक्ट्री के कैंपस में लाकर जला दिया गया था। इस फिल्म में मनोहर सिंह, शबाना आजमी और सुरेखा सीकरी मुख्य भूमिका में थे। बाद में वो फिल्म फिर से बनी और रिलीज हुई परंतु मूल फिल्म नष्ट कर दी गई। इस फिल्म को लेकर केस मुकदमा भी हुआ था।

ये तो इमरजेंसी के दौर की बात है लेकिन इमरजेंसी लगने के कुछ महीने पहले 1975 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था आंधी। फिल्म रिलीज हो गई। उसके बाद ये बात फैल गई कि ये फिल्म इंदिरा गांधी के जीवन पर है। फिर क्या था। इस फिल्म के निर्माताओं को घेरने की कोशिश होने लगी और आखिरकार इस फिल्म को बैन कर दिया गया। आई एस जौहर की एक फिल्म नसबंदी भी आई थी जिसमें इमरजेंसी के दौर में नसबंदी को लेकर की गई ज्यादतियों को दिखाया गया था। इस फिल्म को भी कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ा था। जबकि ये फिल्म इमरजेंसी के बाद बनी थी। 2017 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त निर्माता मधुर भंडारकर ने इंदु सरकार के नाम से फिल्म बनाई। इस फिल्म के खिलाफ पूरे देश में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन आदि किया। हैरत की बात ये कि उस वक्त सेंसर बोर्ड ने भी इस फिल्म की रिलीज की राह में रोड़े अटकाए थे। क्या ये माना जाए कि उपरोक्त फिल्मों का हश्र देखकर इमरजेंसी पर फिल्म बनाने का साहस कम फिल्म निर्माताओं ने किया या इसकी कोई और वजह रही है। दरअसल अगर हम समग्रता में देखें तो इसके अलावा भी कई वजहें नजर आती हैं। एक तो यही कि अधिकतर फिल्म निर्माता कारोबारी हैं और वो अपने व्यवसाय में किसी प्रकार का झंझट नहीं चाहते हैं। वो चाहते हैं कि फिल्म में निवेश करें और मुनाफा कमाएं। ये प्रवृत्ति फिल्मकारों को किसी प्रकार का जोखिम लेने से रोकती है। ये अनायास नहीं है कि गांधी पर इस देश में बहुत कम फिल्में बनीं। एक संपूर्ण फिल्म बनी भी स्वाधीनता के पैंतीस साल बाद। उसको भी एक विदेशी रिचर्ड एटनबरो ने बनाई। 

एक और महत्वपूर्ण बात जो इस संदर्भ में रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि हिंदी में राजनीतिक विषयों पर कहानियां कम लिखी गईं। उपन्यास और भी कम। स्वाधीनता के बाद भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर जो कल्ट फिल्म मानी जाती है वो है गरम हवा। वो इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है। विभाजन की त्रासदी पर हिंदी के लेखकों से अधिक पंजाबी के लेखकों ने लिखा क्योंकि वो भारत पाकिस्तान विभाजन से ज्यादा प्रभावित हुए थे। उसकी त्रासदी को नजदीक से देखा और महसूसा था। स्वाधीन भारत के इतिहास में कई ऐसी राजनीतिक घटनाएं हैं जिनपर बेहतरीन फिल्में बन सकती हैं। उनपर लिखा कम गया इस कारण फिल्मकारों का ध्यान भी उनपर कम गया। अगर हम स्वाधीनता के बाद के राजनीतिक घटनाक्रम पर बात करें तो भाषा को लेकर आंदोलन और प्रांतों का विभाजन। उसके बाद की हिंसा। कांग्रेस में विभाजन और इंदिरा गांधी का उदय। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी को अकल्पनीय बहुमत और पांच साल में ही जनता का मोहभंग। विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्री बनने का घटनाक्रम और संसदीय दल की बैठक के पहले की साजिशें और बैठक के दौरान का नाटकीय घटनाक्रम। कई राजनीतिक विषय हैं जिनपर फिल्में बन सकती हैं। निर्माता निर्देशक जोखिम उठाएं तो उनको सफलता भी मिल सकती है। विवेक अग्निहोत्री ने लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु और कश्मीर नरसंहार पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया। एक में उनको अपेक्षाकृत कम सफलता मिली लेकिन दूसरी फिल्म में जनता ने उनको इतना प्यार दिया जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की होगी। 

अब कंगना रनोट इमरजेंसी पर फिल्म बना रही हैं तो ये उम्मीद की जानी चाहिए कि जो बाधाएं उनके पूर्ववर्ती फिल्मकारों के सामने आई थीं वो उसका सामना कंगना को नहीं करना पड़ेगा। इमरजेंसी के दौरान धरपकड़, पाबंदियां और जुल्म तो हैं ही उस दौर में संजय गांधी और उनकी महिला मित्रों की भी कई कहानियां इधर उधर पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई हैं। अगर कंगना की टीम ने उन कहानियों को फिल्म की कहानी में ठीक से पिरो दिया तो फिर फिल्म की सफलता में कोई संदेह नहीं रहेगा। संभव है कि इस सफलता से और भी फिल्मकार राजनीतिक फिल्म बनाने के लिए प्रेरित हों।  


Saturday, July 9, 2022

ओटीटी प्लेटफार्म्स की चुनौतियां


कोरोना काल में जब लाकडाउन की वजह से सिनेमा हाल बंद हुए और लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे थे, ऐसे में ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म्स काफी लोकप्रिय हुए थे। घर बैठे उनके सामने मनोरंजन का एक ऐसा विकल्प था जहां देश विदेश की असंख्य सामग्री उपलब्ध थी। सिर्फ महानगरों में ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी इन ओटीटी प्लेटफार्म को डाउनलोड करके लोगों ने मनोरंजन के इस नए विकल्प को अपनाया था। कोरोना की पहली और दूसरी लहर के दौरान इन प्लेटफार्म्स पर बड़े सितारों की फिल्में भी रिलीज हुईंन थीं। उस समय दुनिया में ये आकलन किया गया था कि भारत ओटीटी प्लेटफार्म्स का या वीडियो आन डिमांड स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म्स का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ बाजार है। अनुमान ये भी लगाया गया था कि इस वर्ष के अंत तक देश में स्मार्ट फोन या इंटरनेट की सुविधा वाले मोबाइल फोन के उपभोक्ताओं की संख्या 80 करोड़ पहुंच जाएगी। इस संख्या को ध्यान में रखते हुए ओटीटी प्लेटफार्म्स ने भारतीय बाजार को लेकर अपनी रणनीति बनाई और यहां निवेश किया। वैश्विक स्तर पर भी कोरोना के दौर में इस माध्यम को दर्शकों ने अपनाया था। आपदा में मिले इस अवसर की वजह से इन प्लेटफार्म्स को चलानेवाली कंपनियों को दो साल में काफी मुनाफा हुआ। कोरोना का भय कम होने की वजह से अब इन कंपनियों के सामने अपनी उस सफलता को बनाए रखने की चुनौती है। चुनौती तो ग्राहकों की संख्या को बरकरार रखने की भी है। 

कनाडा की मार्केटिंग विशेषज्ञ रेबेका आल्टर ने अपने एक लेख में लोकप्रिय ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स की वैश्विक चुनौतियों के बारे में लिखा है। रेबेका के मुताबिक इस वर्ष की पहली तिमाही में नेटफ्लिक्स ने दो लाख ग्राहक खो दिए और विशेषज्ञों का अनुमान है कि दूसरी तिमाही में करीब बीस लाख ग्राहक इस प्लेटफार्म को छोड़ सकते हैं। रेबेका इसके लिए यूक्रेन युद्ध की वजह से रूस में अपनी सेवाएं बंद करने के नेटफ्लिक्स के फैसले को तो जिम्मेदार मानती ही है, साथ ही ग्राहक शुल्क में बढ़ोतरी को भी एक कारण माना है। वैश्विक बाजार की बात छोड़ भी दें तो अपने देश में भी नेटफ्लिक्स की सेवाएं अन्य सभी ओटीटी प्लेटफार्म्स से महंगी हैं। नेटफ्लिक्स मोबाइल पर देखने की सुविधा देने के एवज में प्रतिमाह 149 रु लेता है जो कि एक वर्ष का 1788 रु बनता है। अन्य लोकप्रिय ओटीटी प्लेटफार्म वार्षिक शुल्क के तौर पर हजार रुपए तक लेती हैं। अमेजन प्राइम, डिजनी हाटस्टार और सोनी लिव आदि का वार्षिक शुल्क एक हजार रु से कम ही है। लेकिन इन सभी प्लेटफार्म के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने ग्राहकों को जोड़े रखने की। कोरोना महामारी के दौरान जितने ग्राहक जुड़े थे उनको बनाए रखना इनके लिए बेहद कठिन होता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में 2020 के अप्रैल से लेकर जुलाई तक विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्म्स से करीब तीन करोड़ नए ग्राहक जुड़े थे। जो अब लगातार कम होते जा रहे हैं। इन प्लेटफार्म्स को नजदीक से जाननेवाले और इनकी गतिविधियों पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि कोरोना काल में जितने ग्राहक इन प्लेटफार्म्स से जुड़े थे उनमें से करीब आधे ग्राहकों ने सब्सक्रिप्शन का नवीनीकरण नहीं करवाया। वैश्विक स्तर पर भी लगभग यही स्थिति है। सबसे बड़ा कारण कोरोना का भय खत्म होने लगा है और सिनेमा हाल खुल गए हैं। 

ओटीटी प्लेटफार्म्स से दर्शक क्यों जुड़े रहें, अगर इसका उत्तर ढूंढे तो सबसे पहले तो इन प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध मनोरंजन सामग्री की गुणवत्ता की बात होगी। दूसरी वजह इनको देखने का शुल्क। इसके अलावा हमारे देश में इन प्लेटफार्म्स को विवादों के कारण भी काफी फायदा मिला था। ओटीटी प्लेटफार्म पर उपलब्ध कंटेंट को लेकर जब विवाद होता है और उसकी चर्चा होती है तो इन प्लेटफार्म्स को नए ग्राहक मिलते हैं। लोग उस सामग्री को देखना चाहते हैं। ग्राहकों की यही चाहत उनसे इन प्लेटफार्म्स को डाउनलोड करवाती है। अब अगर इन प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध मनोरंजन सामग्री का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि वहां बहुत अधिक दुहराव होने लगा है। पहले कुछ सामग्री चौंकाती थी और दर्शकों को अपने साथ रोकती थी। अब लगातार एक ही तरह की सामग्री उपलब्ध होने लगी तो दर्शकों के लिए वो सामान्य बात हो गई। नेटफ्लकिस पर पहले ‘लस्ट स्टोरीज’ और ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी सीरीज आई जिसमें नग्नता और भयंकर हिंसा थी। इन प्लेटफार्म्स पर किसी प्रकार की प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है इस वजह वो सेंसर बोर्ड की कैंची से मुक्त होकर खुले आम नग्नता और यौनिकता परोस रहे थे। हिंसा के नाम पर शरीर के अंगों को इस तरह से काटकर दिखा रहे थे कि कुछ दर्शकों को झटका लगता था। भाषा के स्तर भी सारी मर्यादा तोड़कर भरपूर गाली गलौच भरे संवाद भी दर्शकों को चौंका रहे थे। इन सबसे होनेवाली चर्चा से ग्राहक बढ़ रहे थे। धीरे धीर इनकी नवीनता खत्म हो गई।  

इसके अलावा भारतीय संस्कृति को लेकर विवादास्पद टिप्पणियां या दृश्य दिखाने पर भी जमकर विवाद हुए। लैला जैसी सीरीज भी आई जिसने हिंदू मानस को झकझोरा था। नेटफ्लिक्स पर ही एक सीरीज आई थी ‘द सूटेबल बाय’। इसमें मंदिर प्रांगण में चुंबन दृश्य पर जमकर बवाल हुआ था। केस मुकदमे भी हुए। प्लटफैर्म को अपेक्षित प्रचार मिला और परिणामस्वरूप उसके ग्राहक भी बढ़े। इसी तरह से अगर देखें तो सभी ओटीटी प्लेटफार्म ने अलग अलग तरीके से दर्शकों की जेब से पैसे निकलवाने का उपक्रम किया। जो ओटीटी प्लेटफार्म मुफ्त में कंटेंट दिखा रहा था उसने वेब सीरीज के बीच में विज्ञापन दिखाना आरंभ कर दिया। इतनी बार विज्ञापन आता है कि दर्शक परेशान हो जाते हैं। तभी स्क्रीन पर एक फ्लैश आता है कि अगर आप बगैर विज्ञापन या बिना अवरोध के वेब सीरीज देखना चाहते हैं तो अमुक राशि देकर वार्षिक ग्राहक बनें। इसके अलावा कई प्लेटफार्म्स ने तय ग्राहक शुल्क पर एक ही डिवाइस पर देखने की सुविधा दी। मोबाइल की अलग दर और मोबाइल और टीवी पर देखने के लिए अलग दर। इन सब झंझटों से भी ग्राहक इनसे दूर हुए। एक और बात जिसको रेखांकित करना आवश्यक है वो ये कि इन प्लेटफार्म्स ने हिंदी फिल्मों के बड़े सितारों को भारी भरकम रकम देकर उके साथ कंटेंट के लिए समझौता किया। सामग्री अर्जित करने के लिए निवेश किया गया लेकिन उसको अपेक्षित दर्शक नहीं मिले। डिजनी हाटस्टार पर अजय देवगन की एक वेब सीरीज आई जिसका नाम था रुद्रा, द एज आप डार्कनेस। अजय देवगन की वजह से प्लेटफार्म ने इसपर भारी भरकम रकम खर्च की लेकिन ये सीरीज अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर सकी। जानकारों का मानना है कि इससे भारी नुकसान हुआ। इसी तरह कुछ फिल्में भी खरीदी गईं जिनको सफलता नहीं मिली। 

इन ओटीटी प्लेटफार्म्स के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वो है लगातार कटेंट में इस तरह का बदलाव जिससे दर्शकों को अपनी ओर खींचने और फिर उनको रोके रखने में सफलता मिल सके। विवाद की गुंजाइश अब लगभग खत्म सी हो गई है क्योंकि सभी निर्माता अब इसकी परिणति से बचना चाहते हैं। वो सतर्क होकर सीरीज बनाने लगे हैं। तीसरे अगर भारतीय बाजार में उनको बने रहना है और लंबे समय तक मुनाफे का कारोबार करना है तो ये आवश्यक है कि वो अपने शुल्क निर्धारण पर काम करें। भारत में इंटरनेट की लोकप्रियता की एक वजह उसका सस्ता होना भी है। अगर ये सस्ते पैकेज पर अपना कंटेंट उपलब्ध करवाने के बारे में सोच सकते हैं तो इनकी ग्राहक संख्या बढ़ सकती है। कस्बों और गांवों तक पहुंचना है तो उनको अपना ग्राहक शुल्क कम रखना ही होगा। आधार बढ़ाकर भी मुनाफा बढ़ाया जा सकता है।  


Saturday, July 2, 2022

लड़खड़ाती हिंदी आलोचना


समकालीन हिंदी साहित्य में होनेवाले विमर्शों में अधिकतर लेखक आलोचना को लेकर उदासीन दिखाई पड़ते हैं। कुछ युवा और कई अधेड़ होते लेखक तो आलोचना के अंत की घोषणा करते नजर आते हैं। फेसबुकजीवी लेखक तो आलोचना की आवश्यकता को ही नकार रहे हैं। उनके मुताबिक साहित्य को न तो आलोचक की आवश्यकता है और न ही आलोचना की। हिंदी आलोचना पर कई तरह के आरोप लगते हैं। कुछ कहते हैं कि आलोचना रचना केंद्रित नहीं रही और वो लेखक केंद्रित हो गई है। आलोचकों के अलग अलग खेमे हैं और वो अपने खेमे के लेखकों की औसत रचनाओं को भी कालजयी साबित करने में जुटे रहते हैं। इसकी वजह से आलोचना की साख छीजती है। इसमें दो राय नहीं कि आलोचक की व्यक्तिगत रुचि और संबंधों के निर्वाह की वजह से आलोचना विधा को नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। इस वक्त जो आलोचक सक्रिय हैं उनकी तैयारी भी उतनी नहीं है कि वो किसी रचना को व्याख्यायित करके पाठकों के सामने उसके अर्थ खोल सकें। आलोचना पर लगनेवाले तमाम आरोप सही हो सकते हैं लेकिन जो लोग आलोचना की आवश्यकता पर प्रश्न उठाते हैं उनको समझना चाहिए कि आलोचना के बिना रचना और रचनाकार की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं हो सकती है। 

स्वाधीनता के बाद से देखें तो हिंदी साहित्य की अलग अलग विधा में अलग अलग तरह की प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं। उदाहरण के लिए कहानी में नई कहानी, अकहानी, आंचलिक कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि का दौर दिखाई देता है। कविता में भी नई कविता,अकविता, प्रयोगवादी कविता, प्रगतिवादी कविता की चर्चा होती है। कविता और कहानी की इन प्रवृत्तियों को स्थापित करने में आलोचकों की बड़ी भूमिका रही है। समकालीन हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में कोई विशेष प्रवृति नजर नहीं आती है, क्यों? क्योंकि समकालीन दौर के आलोचक इस विधा को गतिशील बनाए रखने में चूक गए। आलोचना के कई दशक पुराने औजारों के आधार पर ही रचना को परखने की ऐतिहासिक भूल हुई। हिंदी आलोचना पर तमाम तरह के आरोप लगते हैं, लेकिन आलोचना की दयनीय स्थिति क्यों हुई इसके पीछे के कारणों को जानने की गंभीर कोशिश नहीं होती। ये कोशिश इसलिए नहीं होती है कि अगर इन कारणों तक पहुंचेगें तो हिंदी आलोचना के पुराने गढ़ और मठ ध्वस्त होने लगेंगे। पाश्चात्य आलोचना के सिद्धांतों की नकल करते हुए पूर्व में जो विद्वतापूर्ण व्याख्याएं की गईं है वो सारी मान्यताएं संदेह के घेरे में आ जाएंगी। संस्कृत काव्यशास्त्र में रचना को समझने की जो प्रविधि है वो बेहद वैज्ञानिक है। इसमें जिस शब्द शक्ति की बात है वो पाश्चात्य आलोचना में कहां दिखाई देती है। हमारे देश का रस सिद्धांत या ध्वनि सिद्धांत कितनी बारीकी से कविता को विन्यस्त करता है इसकी कल्पना भी आई ए रिचर्ड्स को नहीं थी। जिस विदेशी लेखक को रस सिद्धांत या धव्नि सिद्धांत के बारे में जानकारी नहीं थी उससे सीखकर भारतीय आलोचक हिंदी कविता की व्याख्या कर रहे थे। ठीक से याद नहीं आ रहा है लेकिन कहीं पढ़ा था कि संस्कृत के अलंकारशास्त्र और उपमा के बारे में पश्चिमी आलोचकों की अज्ञानता उनको हास्यास्पद बना देती है। 

पश्चिम के आलोचकों के अलावा हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी सिद्धातों के आधार पर रचना की आलोचना की गई। इस विचारधारा के लेखकों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों की जड़ता को अपनी ताकत बनाने की कोशिश की। परिणाम ये हुआ कि मार्क्सवादी आलोचना जड़ होती चली गई और उनका विकास अवरुद्ध होता गया। रामचंद्र शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने रचना से मुठभेड़ करते हुए आलोचना के अपने प्रतिमान बनाए। कुछ हद तक नामवर सिंह ने भी। नामवर के बाद जो भी ख्यात आलोचक हुए वो रचना से टकराने में हिचकते नजर आते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में वो रचना को लेकर समाज की ओर जाते तो हैं लेकिन समग्रता से मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। इसका एक और दुपरिणाम ये हुआ कि रचना को खोलने के जो औजार रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा के यहां दिखाई देते हैं वो बाद के आलोचकों के यहां नहीं दिखते हैं। इन औजारों की अनुपस्थिति के कारण हिंदी आलोचना की धार कुंद होती चली गई और इस विधा में एक वैचारिक सन्नाटा पसरता चला गया। अशोक वाजपेयी कभी कभार आलोचना में तलवारबाजी करते हैं लेकिन वो भी इस विधा को गतिशील नहीं बना पाते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं जिसको वो पार नहीं कर पाते हैं। बाद के आलोचकों ने भी रचना के पाठ में समय के साथ हो रहे बदलाव को पकड़ने की कोशिश नहीं की और वो आलोचना के नए प्रतिमान गढ नहीं पाए।  

पिछले दिनों सुधीश पचौरी की एक पुस्तक आई है ‘नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्तकियां’। इस पुस्तक में सुधीश पचौरी ने आलोचना के नए प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है। उन्होंने रचना से टकराने और फिर उसके आधार पर उसको व्याख्यित करने का आग्रह किया है। सुधीश पचौरी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि रचना सिर्फ रचना नहीं होती वह एक जटिल और पेचीदा नेटवर्क का हिस्सा होती है। इसको वो अलग तरीके से सामने रखते हैं। इस संदर्भ में वो जायसी की पद्मावत और तुलसीदास के रामचरित मानस का उदाहरण देकर नया प्रतिमान गढ़ने का प्रयास करते हैं। वो बताते हैं कि रामचंद्र शुक्ल ने करीब नब्बे वर्ष पहले जायसी के पद्मावत की भूमिका लिखी थी और उसे प्रेमगाथाओं की काव्य परंपरा में ऊंचा स्थान दिया था। इसमें उन्होंने लौकिक प्रेम की अलौकिकता के बारे में बताया था। शुक्ल जी का ये पाठ ही पद्मावत का अंतिम पाठ बन गया। उनकी स्थापना है कि जैसे ही संजय लीला भंसाली ने 2017 में फिल्म पद्मावत बनानी आरंभ की तो इसका नया पाठ सामने आने लगा। जैसे जैसे फिल्म को लेकर विवाद बढ़ा तो पद्मावत के तीन पाठ सामने आए। सुधीश पचौरी मानते हैं कि पद्मावत का पहला पाठ फिल्मी पाठ था जिसे निर्माता निर्देशक बना रहा था जो दो सौ करोड़ रुपए की आर्थिकी से जुड़ा था। दूसरा पाठ कर्णी सेना का क्षत्रियवादी (जातिवादी) पाठ था जिसमें इस्लाम विरोधी पाठ भी सक्रिय था। तीसरा पाठ राजनीतिक रहा जिसको संसद की बहसों और चुनाव के दौरान देखा गया। उनके मुताबिक इसके बाद पद्मावत का अकादमिक पाठ भी बदला। इसी तरह से जब तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की थी तो उस समय का उसका पाठ अलग था और अब बिल्कुल अलग है। अब उसको पावर टेक्सट कहा जा सकता है। 

अपनी इस पुस्तक में सुधीश पचौरी ने हिंदी आलोचना की सीमाओं पर ठीक से विचार किया है। वो मानते हैं कि आरंभ में हिंदी आलोचना खुद को संस्कृत से जोड़कर देखती थी। धीरे-धीरे वो इससे दूर होती चली गई। बाद में अंग्रेजी साहित्य शास्त्र ने उसकी जगह ले ली। वो बेहद तल्ख अंदाज में कहते हैं कि संस्कृत का काव्यशास्त्र जो हिंदी को उत्तराधिकार में मिला था उसकी कुंजियां बना ली गईं लेकिन उसमें गहरे नहीं उतरा गया। इसलिए उसका नया संस्कार नहीं हो सका। सुधीश पचौरी ने अपनी इस पुस्तक में भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से रस, छंद, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने ध्वनि सिद्धांत के पुनर्पाठ की बात भी की है और इसकी पश्चिम के सिद्धांत और सिद्धांतकारों की स्थापनाओं से तुलना करके इसकी श्रेष्ठता साबित की है। हिंदी आलोचना को अगर कठघरे में खड़ा करना है तो इस तरह से करना होगा जैसे सुधीश पचौरी ने किया है। अगर हमें हिंदी आलोचना की दुर्दशा की बात करनी है तो उसकी भूल गलतियों को लेकर गंभीरता से विमर्श करना होगा।न इसका महत्वपूर्ण लाभ ये होगा कि जो ऐतिहासिक भूलें हुई हैं उसका परिमार्जन हो सकेगा।