कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह का मंच सजा था। मंच पर बंगाल की मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अलावा सुपरस्टार अमिताभ बच्चन, शाह रुख खान, अभिनेत्री रानी मुखर्जी, निर्देशक महेश भट्ट, पूर्व क्रिकेटर सौरभ गांगुली समेत अन्य फिल्मी सितारे बैठे थे। भव्य आयोजन था। इन दिनों शाह रुख खान अपनी फिल्म पठान को लेकर चर्चा में हैं। उनकी फिल्म के एक गाने बेशरम रंग में नायिका दीपिका पादुकोण के वस्त्र के रंग पर विवाद है। ट्विटर पर बायकाट पठान हैशटैग बेहद प्रचलित होकर कई घंटों तक ट्रेंड हो चुका है। भारतीय फिल्मों के संवाद और फिल्मांकन को लेकर इस वर्ष विवाद उठते रहे हैं। सबको उम्मीद थी कि शाह रुख खान अपनी फिल्म पठान पर उठे विवाद पर अवश्य बोलेंगे। वो बोले भी। उन्होंने इंटरनेट मीडिया की नकारात्मकता को रेखांकित किया। अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि कोई कुछ भी कर ले लेकिन आप और हम सब जिंदा हैं। शाह रुख से इस तरह की बात की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन जब बच्चन साहब मंच पर आए तो उन्होंने सेंसरशिप, मानवाधिकार, काल्पनिक कट्टर राष्ट्रवाद, मोरल पुलिसिंग आदि पर बात करके सबको चौंका दिया।
अमिताभ बच्चन के बोलने के पहले उनकी पत्नी और समाजवादी पार्टी से राज्यसभा की सदस्य जया बच्चन ने बेहद संक्षिप्त वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि उनको पता है कि बच्चन साहब पिछले तीन साल से जिन बातों पर मंथन कर रहे हैं या जो बातें सोच रहे हैं उसको आज सबके सामने रखनेवाले हैं। इतना कहने के बाद जया बच्चन ने ममता बनर्जी की ओर देखकर कहा कि वो हमेशा उनके साथ हैं। ये बताने के पीछे उद्देश्य सिर्फ इतना है कि अमिताभ बच्चन ने बहुत सोच समझकर अपनी बातें कोलकाता इंटरनेश्नल फिल्म फेस्टिवल के मंच से कही। बच्चन साहब को कई बार सुनने का अवसर मिला है। लेकिन जिस तरह से कोलकाता में वो लिखित भाषण पढ़ रहे थे वो उनके पूर्व की भाषण शैली से अलग था। ऐसा लग रहा था कि उनका भाषण श्रमपूर्वक तैयार किया गया था, जिसमें शब्दों के चयन को लेकर सावधानी बरती गई थी। उन्होंने अंग्रेजों के जमाने के सेंसरशिप पर बात की। स्वाधीनता पूर्व किस तरह से भारतीय फिल्मकारों को प्रताड़ित किया जाता था, विस्तार से उसकी क्रोनोलाजी बताई। सेंसरशिप पर क्रोनोलाजी बताते हुए वो भारत की स्वाधीनता तक पहुंचे। बताया कि 1952 में सिनेमेटोग्राफी एक्ट बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने जो कहा उसपर विचार करना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि आज भी नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। ये कहने के क्रम में उन्होंने कहा कि मंच पर बैठे महानुभाव उनकी बात से सहमत होंगे। इसके बाद बच्चन साहब फिल्मों के कंटेंट पर चले गए और उसकी विविधता का कालखंड गिना दिया। कंटेंट की विविधता की बात करते हुए काल्पनिक कट्टर राष्ट्रवाद और मोरल पुलिसिंग पर जा पहुंचे।
बच्चन साहब को आज देश में नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़े होते हुए दिख रहे हैं। लेकिन जब वो स्वाधीनता के बाद के परिदृष्य पर पहुंचे तो उससके बाद वो फिल्मों के विषयों पर चले गए। स्वाधीन देश में फिल्मकारों पर लगाई जानेवाली पाबंदियों पर बोलने से बचकर निकल गए। भारत में जब फिल्मों के सेंसरशिप पर बात होगी और जब उसकी क्रोनोलाजी बताई जाएगी तो क्या इमरजेंसी के दौर में हुई ज्यादतियों पर बात नहीं होगी? क्या जब नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात होगी तो इमरजेंसी के दौर में हुई घटनाओं से बचकर निकला जा सकता है? बच्चन साहब ने देश की आजादी के पहले के दौर की फिल्म भक्त विदुर पर अंग्रेजों की पाबंदी पर विस्तार से बताया कि कैसे और किन दृष्यों की वजह से उस फिल्म को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। बच्चन साहब ने वी शांताराम की फिल्म स्वराज्य पर लगी पाबंदी के कारणों को गिनाया। ये भी बताया कि किस तरह से दबाव डालकर इस फिल्म का नाम बदलकर उदय काल करवाया गया था। इसके बाद वो आज के नागरिक स्वतंत्रता के प्रश्नों की बात करने लगे। क्या पिछले तीन साल से इन विषयों पर मंथन करनेवाले अमिताभ बच्चन को फिल्म आंधी और उसके निर्माताओं के साथ जो हुआ उसकी याद नहीं आई। किस तरह से फिल्म आंधी की रील को मुंबई के स्टूडियो से उठाकर नष्ट करवा दिया गया था। किस तरह से इमरजेंसी के दौरान देवानंद को धमकाया गया था, किशोर कुमार के गानों के आकाशवाणी पर बजाए जाने पर प्रतिबंध लगाया गया था। नेहरू के खिलाफ लिखने पर किस तरह से मजरूह सुल्तानपुरी को प्रताड़ित किया गया था।
अगर हम नागरिक स्वतंत्रता की बात करें तो स्वाधीनता के बाद क्या पहली बार अब नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है? क्या पहली बार मानवाधिकार की हनन हो रहा है। अमिताभ बच्चन जिस बंगाल की जमीन पर खड़े होकर मानवाधिकार और नागरिकता स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह की बात कर रहे थे उसी जमीन पर 1967 से लेकर 1972 तक क्या हुआ था। इसकी याद उनको नहीं आई। अमिताभ बच्चन तो 1912 तक चले गए थे लेकिन उनको 1970 की याद नहीं आई जब बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा था। उस वक्त कांग्रेस की सरकार ने औपनिवेशिक काल के बंगाल सप्रेशन आफ टेररिस्ट आउटरेजस एक्ट 1932 को लागू कर दिया था। तब नागरिक स्वतंत्रता का हनन हुआ था। ऐसे कई उदाहरण हैं जो अमिताभ बच्चन को याद नहीं आए। बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद किस तरह की घटनाएं हुईं वो पूरी दुनिया को पता हैं। क्या उसमें किसी प्रकार का मानवाधिकार हनन हुआ था। अमिताभ बच्चन को शायद पता हो।
अमिताभ 1984 में लोकसभा के लिए कांग्रेस के टिकट पर चुने गए थे। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी थी। तब से अबतक वो विवादित मुद्दों से बचते रहे थे। उनकी पत्नी जया बच्चन गाहे-बगाहे राजनीतिक बयान देकर विवादों में घिरती रही हैं लेकिन अमिताभ इससे अलग रहते हैं। अमिताभ बच्चन के राजनीति से दूर रहने की वजह से एक प्रतिष्ठा रही है। जब उनको दादा साहब फाल्के अवार्ड देने कि घोषणा की गई थी तो वो पुरस्कार ग्रहण के लिए विज्ञान भवन के समारोह में नहीं आए थे। उनके लिए सरकार ने अलग से राष्ट्रपति भवन में पुरस्कार अर्पण समारोह आयोजित किया था। तब भी किसी ने समानता के सिद्धांत का प्रश्न नहीं उठाया था। इस तरह के न जाने कितने प्रश्न हैं जो अमिताभ बच्चन की वरिष्ठता को ध्यान में रखकर कभी नहीं उठे। जया बच्चन का फिल्म समारोह के मंच से ममता बनर्जी को उनके साथ रहने का आश्वसान देना और उसके बाद अमिताभ बच्चन का सधे हुए अंदाज में परोक्ष रूप से राजनीतिक भाषण देना क्या संकेत करता है। अमिताभ बच्चन ने जिस दिन ये बोला उसके एक या दो दिन पहले केरल के फिल्मकार अदूर गोपालकृष्णन ने भी सुपर सेंसरशिप का मुद्दा उठाया था। उन्होंने भी कहा था कि सरकारी सेंसर के बाद इंटरनेट मीडिया का अदृष्य इकोसिस्टम फिल्मों को सेंसर करता है। ऐसा करनेवाले लोग असामाजिक हैं। क्या अदूर और अमिताभ बच्चन के बयानों में लगभग समानता एक संयोग है या फिर प्रयोग है। ये तो आनेवाले दिनों में ही स्ष्ट हो पाएगा। लेकिन इतना तय है कि अमिताभ बच्चन जैसे श्रेष्ठ और वरिष्ठ कलाकार को किसी भी कलामंच से इस तरह की बातें करने के पहले काफी सोच विचार करना चाहिए। उनके कहे गए शब्दों के क्या मायने निकाले जाएंगे और उसका असर कितना गहरा होगा। राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर उसको कैसे विश्लेषित किया जाएगा, आदि। प्रतीत होता है कि अमिताभ बच्चन ने अपने वक्तव्य के शब्दों के बारे में गंभीरता से मंथन नहीं किया।
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