गुनीत मोंगा की डाक्यूमेंट्री द एलिफेंट व्हिसपर्रस को आस्कर पुरस्कार मिला। इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल में आल दैट ब्रीद्स को गोल्डन आई अवार्ड से सम्मानित किया गया। माना जा रहा है कि इन दो डाक्यूमेंट्री के अंतराष्ट्रीय मंच पर सम्मानित होने के बाद देश में दर्शकों का रुझान डाक्यूमेंट्री की तरफ बढ़ा है। ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म्स की लोकप्रियता के कारण भारत में बनने वाली डाक्यूमेंट्रीज को वैश्विक मंच मिला। ओटीटी पर किसी प्रकार के प्रमाणन की भी बाध्यता नहीं है। अगर कोई डाक्यूमेंट्री निर्माता उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करके सिर्फ ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शित करना चाहता है तो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पास भी नहीं जाना होता है ।इसने डाक्यूमेंट्रीज के लिए एक ऐसा मंच खोल दिया जहां वो किसी भी प्रकार की सामग्री और किसी भी प्रकार का संवाद दर्शकों के सामने पेश कर सकते हैं। इस विधा को राजनीतिक औजार के रूप में उपयोग में ला सकते हैं। कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर किसी विचारधारा विशेष को नीचा दिखा सकते हैं और किसी को उठा सकते हैं।
जब कान फिल्म फेस्टिवल में आल दैट ब्रीद्स को पुरस्कृत किया गया तो चर्चा इस बात की हुई कि वो दिल्ली के दो भाइयों मोहम्मद और नदीम की कहानी है जो घायल पक्षियों को उपचार देने का काम करता है। इस डाक्यूमेंट्री में उन दोनों भाइयों के संघर्ष को रेखांकित किया गया। ये बताया गया कि किस तरह से दो मुस्लिम भाई दिल्ली के वजीराबाद इलाके में एक बेसमेंट में घायल पक्षियों विशेषकर चीलों को उपचार देते हैं। कान फिल्म फोस्टिवल में पुरस्कृत होने के शोरगुल के बीचतब इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि ये डाक्यूमेंट्री केवल घायल पक्षियों के देखभाल तक सीमित नहीं है। इस डाक्यूमेंट्री में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन्स (एनआरसी) पर भी टिप्पणी है। संवाद में चर्चा इस बात की भी है कि उनको फारेन कंट्रीव्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) के अंतर्गत विदेश से धन लेने की अनुमति नहीं मिलती है और सरकार इसका कारण भी नहीं बताती है।जबकि ऐसा होता नहीं है। सरकार अगर किसी के आवेदन को अस्वीकार करती है तो उसका कारण अवश्य बताती है।डाक्यूमेंट्री निर्माता इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि वो दिल्ली के दंगों पर भी टिप्पणी करते चलते हैं। पृष्ठभूमि से लेके रहेंगे आजादी जैसे नारे भी लगते रहते हैं। इतना ही नहीं एक पत्रकार की आवाज भी गूंजती है जिसमें वो बताता है सीएए के पास होने पर पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को वहां प्रताड़ित होने की दशा में भारत में नागरिकता नहीं मिलेगी जबकि अन्य धर्म के लोगों को मिलेगी।इस समाचर के अंश के प्रसारित होने के बाद परिवार में इस बात पर चर्चा होती है कि अगर नाम में स्पेलिंग गलत हो जाए तो भी दिक्कत आ सकती है। एक संवाद है जिसमें घर का बेटा अपनी पत्नी से पूछता है कि रिफ्यूजी बनकर कहां जाना चाहती हो, पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान। वो जब कहती है कि क्या कहीं और नहीं जा सकते तो उत्तर मिलता है कि अगर कहीं और जाना है तो सरकार के निकालने के पहले जाना होगा। सरकार के निकालने के बाद पाकिस्तान जाने पर वहां पाकिस्तानी होने का सबूत मांगा जाएगा। इस पूरे संवाद पर विचार करना चाहिए कि इसमें घायल पक्षियों की देखभाल और उनके संघर्ष से क्या लेना देना है।
इसी तरह से इस संवाद के पहले नेपथ्य ये किसी का भाषण प्रसारित होता है। कहा जा रहा होता है कि एक बात का हमेशा ध्यान रखिए कि ये लड़ाई शांति और अहिंसा की है। ये लड़ाई विचार और विचारहीनता की है।..हमें इस देश के संविधान को बचाना है। इसी तरह से एक अन्य जगह कहा जाता है कि बहुमत का अर्थ क्या है? देश की चालीस प्रतिशत जनता। बहुमत हमेशा सही नहीं सोचती है या बहुमत का निर्णय सदैव सही नहीं होता है। फिर दिल्ली के दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान की आवाजें और एक मीनारनुमा इमारत पर झंडा फहराने के लिए चढ़ता एक व्यक्ति। दंगों की चपेट में आए इलाकों की तस्वीरें। नेपथ्य से आवाज, दंगे कोई नई बात नहीं है। हम छत पर खेला करते थे और पता चलता था कि नीचे दंगा हो रहा है। पर इस बार अलग है। इस बार सिर्फ नफरत नहीं है चारों तरफ घिन फैली हुई है। इस तरह के संवादों से निर्माता निर्देशक की मंशा स्पष्ट हो जाती है।
इसी तरह की एक और डाक्यूमेंट्री सीरीज आई है, डासिंग आन द ग्रेव। ये डाक्यूमेंट्री 1991 में बेंगलुरू में हुए चर्चित रिचमंड रोड केस पर आधारित है। इसमें एक हिंदू स्वामी श्रद्धानंद और एक मुस्लिम महिला की प्रेम कहानी और उसके बाद मर्डर मिस्ट्री है। शाकिरा खलीली मैसूर के दीवान की बेटी थी जो अपने पहले पति को छोड़कर स्वामी से शादी कर लेती है। उस समय ये प्रम विवाह काफी चर्चित हुआ था क्योंकि तब महा चार बच्चों की मां थी। 1991 में अचानक शाकीरा गायब हो जाती है। पहले पति से उसकी बेटी अपनी मां की तलाश में जुटती है। तीन साल बाद पता चलता है कि शाकिरा के पति स्वामी श्रद्धानंद ने ही उसको मारकर अपने घर के आंगन में दफना दिया था। इस डाक्यूमेंट्री में सबकुछ है। विवाहित महिला का प्रेम है, हिंदू संत हैं, अकूत संपत्ति है, ड्रग है, मर्डर है और फिर स्वामी को अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा है। इस डाक्यूमेंट्री को बनाया है पैट्रिक ग्राहम ने। अब जरा पैट्रिक ग्राहम के बारे में जान लेते हैं। इसके पहले पैट्रिक घोउल वेब सीरीज लिख और निर्देशित कर चुके हैं। इस सीरीज में भयानक हिंसा थी। इसके अलावा पैट्रिक वेब सीरीज लैला की टीम के साथ भी जुड़े रहे हैं। इस डाक्यूमेंट्री के संवाद में भी और दृष्यों में भी आपको स्पष्ट रूप से एक एजेंडा दिखाई देगा। हिंदू धर्म के खिलाफ एजेंडा। एक संवाद है जिसमें कहा गया कि मुझे लगता था कि वो ऐसे इंसान हैं जिसे दिव्य शक्ति प्राप्त है। वह भगवान का दूत लगता था। संवादों के अलावा अगर दृष्यों की बात करें तो जब स्वामी श्रद्धानंद की शादी शाकीरा खलीली की शादी हिंदी रीति रिवाज से होती है तो उसको बहुत विस्तार से दिखाया जाता है। हाथों में बंधे कलावा तक पर फोकस किया गया है। दृश्यों और संवादों से एक अलग तरह का माहौल बनाने का प्रयास किया गया है। पहले वेब सीरीज में इस तरह के संवाद आदि होते थे लेकिन जब उसको लेकर शोरगुल मचा तो अब वेब सीरीज में कम डाक्यूमेंट्रीज में अधिक होने लगा।
इस तरह की डाक्यूमेंट्रीज में प्रत्यक्ष रूप से विषय कुछ और होता है लेकिन उसके अंदर परोक्ष रूप से कुछ और कहा जा रहा होता है। यह बेहद खतरनाक है क्योंकि मनोरंजन और कलात्मकता को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग में लाया जाता है। इसमें जिस तरह से राजनीतिक टिप्पणियां की जाती हैं वो दर्शकों के अवचेतन मन में धंसी रह जाती है जो लंबे समय तक अपना असर दिखाती रहती है। चीलों को बचाने के नाम पर संविधान को बचाने की बात हो, सीएए और एनआरसी के खिलाफ भ्रामक बातें हों या अपराध कथा में हिंदू धर्म प्रतीकों का उपयोग इस तरह के किया जाए जिसका अर्थ कुछ और निकले। ऐसे में नीति निर्धारकों को इसके व्यापक असर के बारे में सोचना चाहिए।। विचार तो इस बात पर भी करना चाहिए कि क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री के लिए कोई व्यावहारिक और प्रभावी नियमन हो। लंबे समय से इसको लेकर बातें हो रही हैं। स्व नियमन जैसी व्यवस्था है भी लेकिन ये प्रभावी नहीं है।