आमतौर पर इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर साहित्य को लेकर प्रशंसात्मक पोस्ट ही अधिक देखने को मिलती है। ‘तू पंत, मैं निराला’ वाली शैली में एक दूसरे की तारीफ करते हुए लेखक मिल जाते हैं। वैचारिक टिप्पणियां बहुत ही कम देखने को मिलती है। जो भी टिप्पणियां होती हैं वो अपनी विचारधारा को पोषित करने या दूसरी विचारधारा को नीचा दिखाने के लिए की गई प्रतीत होती हैं। लेकिन पिछले दिनों फेसबुक पर एक ऐसी टिप्पणी देखने को मिली जिसने बहुत ही आधारभूत प्रश्न तो छुआ। टिप्पणी छोटी थी लेतिन उसके पीछे प्रश्न बहुत बड़ा था। उसने विचार करने पर मजबूर कर दिया। प्रकाशन जगत से जुड़े आलोक श्रीवास्तव ने एक टिप्पणी लिखी, किसी समय राष्ट्र बन रहा था इस भाषा के जरिए, अब इस भाषा में वैयक्तिक महात्वाकांक्षाएं, दुरभिसंधियां और उदासियां बची हैं। इसका साथ उन्होंने 1962 में उत्तर प्रदेश हिंदी समिति के प्रकाशनों की एक सूची डाली। उनका आश्य हिंदी भाषा से था क्योंकि उन्होंने जो सूची लगाई थी वो हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों की थी। उनकी टिप्पणी को उद्धृत करते हुए कोलकाता में रहनेवाले साहित्य और इतिहास के अध्येता प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल ने अपने विचार रखे। लिखा- स्वाधीन भारत में साठ के दशक तक भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की किताबें छपती थीं और सरकारी सहयोग भी था। स्वाधीनता आंदोलन और उसके पूर्व के नवजागरण काल में भारतीय भाषाओं में यह प्रयास मिशनरी भाव से होता रहा था। लेखकों ने त्याग और तपस्या का जीवन चुना था ताकि देश में एक नया बौद्धिक वातावरण तैयार कर सकें। उसके बाद एक नया अकादमिक बौद्धिक वर्ग उभरा जिसके लिए ज्ञान-विज्ञान की भाषा बस अंग्रेजी ही हो सकती थी। उन्होंने आगे लिखा कि इस पोस्ट को पढ़कर बस इसको याद दिलाने का मन हुआ। प्रोफेसर पटेल की इस टिप्पणी ने कई प्रश्न खड़े किए जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण अकादमिक बौद्धिक वर्ग को लेकर है। वो कौन सी स्थितियां थीं जिनमें साठ के दशक के बाद उभरे नए अकादमिक बौद्धिक वर्ग ने भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषा न मानकर अंग्रेजी को प्राथमिकता देना आरंभ किया। इसके लिए हमें साठ के दशक के उत्तरार्ध की स्थितियों के बारे में विचार करना होगा।
यह वो दौर था जब देश ती जनता का नेहरू की नीतियों से मोहभंग हो रहा था। शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद इंदिरा युग का उदय हो रहा था। भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हो चुका था। हिंदी के विरुद्ध गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में एक वातावरण बना दिया गया था। स्वाधीनता के बाद और नेहरू के शासनकाल में वामपंथियों ने अकादमिक जगत में जो बीज बोया था वो अब पेड़ बन गया था। साहित्य और मानविकी के क्षेत्र में वामपंथी अपनी जड़ें जमा चुके थे। उन्होंने माहौल बनाना आरंभ कर दिया था कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में ज्ञान विज्ञान की बातें हो ही नहीं सकती हैं। वो अपने लेख से लेकर लेक्चर तक में विदेशी विद्वानों को उद्धृत करने लगे थे। पुस्तकें विदेशी अवधारणाओं के आधार पर तैयार की जाने लगी थी। भारतीय शब्दों को विदेशी शब्दों से विस्थापित किया जाने लगा था। भारतीय भाषाओं के शब्दों के अर्थ को संकुचिच करके उसके समान अर्थ वाले शब्द अकादमिक जगत में पेश किए गए थे। देशभर के विश्वविद्यालयों में इस तरह का माहौल बनाना गया था जैसे चेखव और ब्रेख्त कालिदास से बड़े नाटककार थे। समाज विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय विद्वानों की मान्यताओं पर विदेशी विद्वानों को महत्वपूर्ण बताया जाने लगा था। भारत की मेधा और बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाने लगा था। पूरी दुनिया को शून्य की अवधारणा से परिचित करानेवाले देश को बताया जाना लगा कि गणित और विज्ञान के लिए विदेशी फार्मूले अधिक उपयुक्त हैं। विदेशी फार्मूले को समझने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। मैकाले ने जो स्वप्न देखा था और जिसके आधार पर उसने भारत में शिक्षा पद्धति आरंभ करवाई थी, स्वाधीनता के बाद उसको रोकने का गंभीर प्रयास नहीं हुआ। हिंदी में लिखी पुस्तकें ओझल की जाने लगीं। हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी की पुस्तकों को प्राथमिकता मिलने से गैर साहित्यिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित करनेवाले प्रकाशक कम होते चले गए।
याद पड़ता है जबलपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग के आचार्य और अध्यक्ष रहे डा राजबली पांडेय ने एक पुस्तक लिखी थी, भारतीय नीति का विकास। ये पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से साठ के दशक के मध्य में प्रकाशित हुई थी। इसमें डा राजबलि पांडेय ने नीतिशास्त्र पर विस्तार से अपनी बात रखी थी। इस पुस्तक की भूमिका में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के उस समय के निदेशक भुवनेश्वरनाथ मिश्र माधव ने लिखा है कि नीतिशास्त्र हिताहित का विवेचन करनेवाला शास्त्र है। इसका अध्ययन करने के मनुष्य को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्य-असत्य, उचित अनुचित, शुभ-अशुभ आदि का ज्ञान होता है और वह जीवन यात्रा में उपयुक्त मार्ग पर अग्रसर होने में समर्थ होता है। नीति के अभाव में मानव का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक है। अब नीति की ऐसी व्याख्या या परिभाषा पश्चिम के विद्वानों के यहां नहीं मिलती। वो तो पालिसी की बात करते हैं और हमारे यहां के विद्वान नीति को पालिसी समझने की भूल कर बैठते हैं। सिर्फ नीतिशास्त्र ही नहीं बल्कि इतिहास, विज्ञान, गणित, दर्शन, पदार्थ शास्त्र, योग दर्शन, राजनीति शास्त्र, पश्चिम की विचारधाराओं और विदेश नीति पर हिंदी में मौलिक पुस्तकें लिखी गईं थी और प्रकाशित भी हुई थीं। चाहे वो राज्य सरकारों की अकादमियों से प्रकाशित हों या काशी नागरी प्रचारिणी सभा से या अन्य संस्थाओं से। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य में आलोचक के रूप में समादृत हैं लेकिन उन्होंने भारतीय वस्त्रों से लेकर राजनीति और अन्य विषयों पर विपुल लेखन किया है, अधिकतर हिंदी में। अगर प्राचीन हस्तलिखित पोथियों के विवरण पर नजर डालेंगे तो वहां भी हिंदी में विविध विषयों पर लिखी गई पुस्तकों के बारे में जानकारी मिलेगी। उस विवरण में दर्शन, विज्ञान और धर्म पर लिखी पोथियों की लंबी सूची दिखाई देती है।
आज जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के प्राथमिक चरण में है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निरंतर भारतीय भाषाओं में शिक्षा को लेकर आग्रही बने हुए हैं तो अब एक महती जिम्मेदारी आती है संस्थाओं पर। इन संस्थानों का दायित्व बनता है कि वो प्राचीन काल में हिंदी में विभिन्न विषयों पर लिखी गई मौलिक पुस्तकों को खोजें और उसको अद्यतन करवाकर फिर से प्रकाशित करें। आज शिक्षा के क्षेत्र में धन की कमी नहीं है, प्रचुर मात्रा में संसाध्न उपलब्ध करवाए जा रहे हैं, आवश्यकता है मजबूत इच्छाशक्ति की। अगर इस भ्रम को तोड़ना है कि ज्ञान विज्ञान की भाषा हिंदी नहीं हो सकती है तो पहले इस भाषा में ज्ञान विज्ञान की लिखी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन करना होगा। प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल भी कहते हैं कि उस स्वदेशी परंपरा का नवोन्मेष हो, इन किताबों का पढ़ने पढ़ाने का एक आंदोलन हो। और कुछ हो न हो करमजले यह कहना बंद करेंगे कि इन भाषाओं में भान विज्ञान की चर्चा कैसे करें। पढ़ने पढ़ानेवाले नवबौद्धिकों ने ही अंग्रेजी के प्रभुत्व को बढ़ाने में अपनी स्वार्थपरता, काहिली और लोलुपता से मदद की है। ये विस्मृत कर चुके हैं कि हिंदी, मराठी या बांग्ला में विपुव मात्रा में ज्ञान विज्ञान पर पुस्तकें लिखनेवाले लोग थे। अंत में एक बात और कह देना आवश्यक है कि इस कार्य में सरकारी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को पहल करनी होगी। साहित्य, कला, इतिहास और समाज शास्त्र से जुड़ी अधिकतर सरकारी संस्थाएं इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बन गई हैं। सेमिनार और गोष्ठियां करवा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि ये संस्थाएं हिंदी में मौलिक लिखवाने का प्रयास करें। ऐसा करनेवाले लेखकों को बेहतर मानदेय दें। अगर ये संभव हो पाता है तो हिंदी का गौरव पुनस्थापित हो सकेगा।