भारतीय फिल्मों की सफलताओं का स्वर्णिम इतिहास रहा है। दादा साहब फाल्के ने जब पहली हिंदी फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी वो जबरदस्त सफल रही थी। कहा जाता है कि टिकटों की बिक्री की कमाई इतनी होती थी कि सिक्कों को बोरियों में भर कर रखना होता था। कुछ इसी तरह की कहानी दादा साहब फाल्के की एक और फिल्म से जुड़ी हुई है। 1917 में दादा साहब ने एक फिल्म बनाई थी जिसका नाम था लंका दहन। नाम से ही स्पष्ट है कि फिल्म रामकथा पर आधारित है। 1917 में बनी इस फिल्म को पूरे देश में दर्शकों का खूब प्यार मिला था। कहा जाता है कि ये फिल्म मद्रास (अब चेन्नई) में इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के सिक्कों को बोरियों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर ले जाया जीता था। फिल्मों को लेकर ये दीवानगी मूक फिल्मों के दौर में चल ही रही थी लेकिन उस दौर में फिल्मों को देखने के लिए घंटों पहले से सिनेमा हाल के बाहर जमा होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। 14 मार्च 1931 को जब पहली बोलती फिल्म आलम आरा बांबे (अब मुंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा हाल में रिलीज होने की खबर आम हुई तो लोग सूरज उगने के पहले अंधेरे में ही सिनेमा हाल के बाहर जमा होने लगे थे। मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक बालीवुड में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर इरानी के बिजनेस पार्टनर के हवाले से लिखा गया है कि मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर सुबह से ही इतनी भीड़ जमा हो गई कि हाल के कर्माचरियों को अंदर जाने में परेशानी हो रही थी। किसी तरह से वो अंदर जा पाए उस समय पंक्तिबद्ध होकर किसी काम को करने की अवधारणा नहीं थी इस कारण अफरातफरी मची थी। लोगों की भीड़ धीरे धीरे जब अराजक होने लगी तो सिनेमाघर के प्रबंधकों को पुलिस बुलानी पड़ी थी । तब जाकर फिल्म का प्रदर्शन हो सका था। कहा जाता है कि उस समय फिल्म के टिकट की कीमत चार आना थी जो ब्लैक में चार से पांच रुपए में बिकी थी। एक रुपए में चार आना होता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आलम आरा को लेकर कितनी दीवानगी थी।
ये दीवानगी फिल्म को लेकर तो थी ही, दीवानगी का एक कारण अपनी भाषा में नायक और नायिका को बोलते सुनने का रोमांचकारी अनुभव भी था। आलम आरा पहली बोलती फिल्म तो थी ही लेकिन इसने हिंदी फिल्मों की दिशा बदल दी। इस फिल्म में तीस गाने थे। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों को अगर देखें तो सबमें खूब गाने होते थे। फिल्मकारों को लगता था कि जितना संगीत होगा फिल्म उतनी लोकप्रिय होगी। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों में 10 से 15 गाने तो होते ही थे। फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि आलम आरा के पहले जब मूक फिल्मों का दौर था तब भारत में बनने वाली फिल्मों का ट्रीटमेंट वैसा ही होता था जैसे कि पूरी दुनिया में उस जानर की फिल्मों का होता था। जैसे ही बोलती फिल्मों का चलन आरंभ हुआ तो भारतीय फिल्में कथावाचन की अपने पारंपरिक शैली को अपनाने लगी। रंगमंच को लेकर जो अवधारणा थी वो पर्दे पर साकार होने लगी थी। इस लिहाज से देखा जाए तो आलम आरा को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि उसने भारतीय फिल्मों के पात्रों को वाणी दी। इस फिल्म ने निर्माण की शैली को भी प्रभावित किया। गानों को फिल्म का अभिन्न अंग बनाने का आरंभ यहीं से होता है। गानों की परंपरा भारतीय रंगमंच में पहले से मौजूद थी। इस तरह से अगर हम विचार करें तो आलम आरा ने हिंदी फिल्मों को भारतीय कला के करीब लाने का कार्य भी किया। 1938 में प्रकाशित इंडियन सिनेमैटोग्राफ ईयरबुक में इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया था। उसमें कहा गया था कि बोलती फिल्मों में गीत और संगीत के माध्यम से भारतीय चलचित्र जगत ने अपनी रचनात्मकता साबित की थी। जो लोग तकनीक को कला का दुश्मन मानते हैं उनको यह सोचना चाहिए कि बहुधा तकनीक रचनात्मकता को बढ़ावा देती है । आज आर्टिफिशियल इंटेलिंजेंस (एआई) को लेकर भी फिल्म जगत से जुड़े कई लोग सशंकित हैं लेकिन जिस तरह से एआई ने किसी भाषा में बनी फिल्म को अन्य भाषाओं में जब करने की सहूलियत दी है वो भी रेखांकित की जानी चाहिए।
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