नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर को साहित्य अकादमी ने अपने वार्षिक आयोजन साहित्योत्सव के कारण खूब सजाया था। शनिवार को संपन्न हुए साहित्योत्सव को विश्व का सबसे बड़ा साहित्य उत्सव बताया गया, जिसमें भारतीय और अन्य भाषाओं के 1100 से अधिक लेखकों के भाग लेने की बात कही गई। रवीन्द्र भवन परिसर में बनाए गए अलग अलग सभागारों में दिनभर विमर्श का दौर चला था। इसमें कन्नड के वरिष्ठ लेखक भैरप्पा से लेकर बिल्कु नवोदित लेखकों तक की भागीदारी रही। साहित्योत्सव के दौरान रवीन्द्र भवन परिसर में घूमते हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से लगाए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के संक्षिप्त परिचय श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पुरस्कार विजेताओं की तस्वीर के साथ पुरस्कृत कृति की तस्वीर भी लगाई गई थी। इन पुरस्कार विजेताओं की तस्वीरों को देखने के क्रम में मेरी नजर वर्ष 2023 में हिंदी के लिए सम्मानित लेखक संजीव के परिचय पर चली गई। उनकी तस्वीर के साथ सेतु प्रकाशन के प्रकाशित उनकी कृति ‘मुझे पहचानो’ का कवर भी लगाया गया था। बताया गया था कि संजीव, जिनका मूल नाम राम सजीवन प्रसाद है, हिंदी के प्रख्यात लेखक और अनुवादक हैं। आपका जन्म 6 जुलाई 1947 को बांगर कलां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी 17 कृतियां प्रकाशित हैं। ‘मुझे पहचानो’ हिंदी उपन्यास है, जो सती जैसे सामाजिक कुप्रथा के सामंती अवशेषों के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करता है। यह उपन्यास आमजन की दुनिया के पाखंड, धर्म और धन के फंदों, बिगड़ते मानवीय मूल्यों की काली परछाइयों को भी प्रदर्शित करता है और मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान का आह्वान करता है। इस परिचय में तो जो बातें लिखी गई हैं उसपर मतैक्य संभव है और नहीं भी। संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद के इस पोस्टर को देखते हुए अचानक से कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के एक कार्यक्रम की बात दिमाग में कौंधी।
विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का। संजीव ने कहा था कि राजकमल प्रकाशन समूह पहले से हमारा प्रकाशक है और मेरे कई उपन्यास पूर्व में यहां से प्रकाशित है। प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित की है। इनसे पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने राजकमल प्रकाशन को अपनी सभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अधिकृत किया है। अब इस अधिकृत करने से जो एक स्थिति बनेगी उसकी कल्पना करिए। सेतु प्रकाशन ने संजीव का उपन्यास प्रकाशित किया। वहां से प्रकाशित उपन्यास पर उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। सेतु प्रकाशन ने इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया होगा। उपन्यास प्रकाशन पर धन खर्च हुआ होगा जिसको सेतु प्रकाशन ने वहन किया। जब उस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उसको दूसरे प्रकाशन गृह को देने की घोषणा कर दी गई। सेतु प्रकाशन के अमिताभ का कहना है अभी तक संजीव ने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की है। अपने प्रकाशक से बगैर बात किए और बिना आपसी सहमति के दूसरे प्रकाशन को पुस्तक देने की घोषणा अनैतिक प्रतीत होती है। अगर राजकमल प्रकाशन समूह से उनका पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास था तो उपन्यास वहीं से प्रकाशित करवाना चाहिए था। इससे सेतु प्रकाशन के लिए ये असहज स्थिति नहीं बनती। इसी तरह से संजीव की कई पुस्तकें वाणी प्रकाशन से भी प्रकाशित हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति बनेगी कि लेखक और प्रकाशकों के मसले अदालत से हल होगें? दरअसल संजीव हिंदी के ओवररेटेड लेखक हैं। उन्होंने सूत्रधार नाम से एक उपन्यास लिखा था। उनकी विचारधारा के लेखकों ने उसको चर्चित करने का प्रयास किया लेकिन तात्कालिक चर्चा के बाद वो उपन्यासों की भीड़ में गुम हो गया। गाहे बगाहे वो विवादित बयान देते रहते हैं लेकिन उसका नोटिस भी हिंदी जगत नहीं लेता।
इसके पहले हिंदी प्रकाशन जगत से एक और समाचार आया। स्वर्गीय निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकें एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने प्रकाशन के अधिकार राजकमल प्रकाशन को सौंप दिए। राजकमल प्रकाशन से उनकी कुछ पुस्तकें नई साज सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो गईं। निर्मल जी की पुस्तकों की यात्रा दिलचस्प है। कुछ वर्षों पहले गगन गिल और राजकमल प्रकाशन में रायल्टी को लेकर विवाद हुआ था। तब इस तरह की खबरें आई थीं कि एक वर्ष में निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकों की रायल्टी एक लाख रुपए भी नहीं होती है। उस समय हिंदी जगत में रायल्टी को लेकर खूब चर्चा हुई थी। तब निर्मल जी की सभी पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार राजकमल प्रकाशन से लेकर भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया गया था। वहां से कुछ वर्षों बाद निर्मल वर्मा की समस्त पुस्तकें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। संभव है कि एग्रीमेंट ही इस तरह का हो कि एक अंतराल के बाद पुस्तक प्रकाशन का अधिकार लेखक या उनके उत्तराधिकारी के पास वापस आ जाते हों। लेकिन जब विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार एक जगह से दूसरे जगह जाता है तब प्रश्न उठते हैं। कुछ दिनों पूर्व विनोद कुमार शुक्ल ने भी रायल्टी का मुद्दा उठाकर अपनी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार दूसरे प्रकाशन को देने की घोषणा की थी। होना ये चाहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनों को प्रकाशन एग्रीमेंट सार्वजनिक करना चाहिए ताकि भ्रम और विवाद की अप्रिय स्थिति न बने।
संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद ने जब अपनी सभी पुस्तकों के राजकमल प्रकाशन से छपने की बात की थी तब कहा था कि इससे पाठकों को सुविधा होगी और उनको सभी पुस्तकें एक जगह उपलब्ध होंगी। पाठकों को कितनी सुविधा होगी या भ्रमित होंगे ये तो समय तय करेगा लेकिन लेखकों के आर्थिक लाभ का संकेत तो मिल ही रहा है। हर किसी को अपना लाभ देखना चाहिए लेकिन उसको दूसरा रंग देना उचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे हिंदी जगत को इसपर विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति बन क्यों रही है। विचार किया जाए तो हिंदी प्रकाशन का जो स्वरूप वर्षों से बना है उसमें प्रकाशक और लेखक के बीच व्यावसायिक संबंध नहीं बन पाते हैं और वो बहुधा व्यक्तिगत होते हैं। वरिष्ठ लेखक अपनी पसंद के प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं और प्रकाशक लेखक की साहित्यिक हैसियत या अपनी श्रद्धा के अनुसार उनको अग्रिम धनराशि देते हैं जो रायल्टी में एडजस्ट होते रहती है। लेखकों को अपने पुस्तकों के प्रकाशन की इतनी जल्दी होती है कि वो चाहते हैं कि प्रकाशक उनकी पुस्तक उनकी मर्जी की तिथि के अनुसार प्रकाशित कर दे। लेखकों का एक दूसरा वर्ग है जो प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाता रहता है कि उसकी कृति किसी भी तरह से प्रकाशित हो जाए। कई प्रकाशक इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और बिना किसी एग्रीमेंट के पुस्तक का प्रकाशन कर देते हैं। जब पुस्तकों की समीक्षा आदि छपने लगती है या कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लेखक को लगता है कि प्रकाशक उनकी कृति से बहुत पैसे कमा रहा है। विवाद यहीं से उत्पन्न होने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रकाशक कुछ धन लेखक को देकर विवाद को फौरी तौर पर शांत करने का प्रयास करते हैं। हो भी जाता है लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। इस बारे में प्रकाशकों और लेखकों को एक साथ बैठकर बात करनी होगी या फिर हिंदी में अंग्रेजी की तरह लिटरेरी एजेंट हों जो लेखकों और प्रकाशकों दोनों का हित देख सकें। लेखकों और प्रकाशकों को भी दोनों के हितों का ध्यान रखना चाहिए।
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