एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। इसकी वेबसाइट पर प्रकाशित परिचय में बताया गया है कि वर्ष 1997 में संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से इसकी स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का सम्यक विकास करना, हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास करना। हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने के लिए प्रयत्न करना, अंतराष्ट्रीय शोध और विमर्श केंद्र के रूप में विवविद्यालय का विकास करना। संसद के पारित अधिनियम के आलोक में कांग्रेस समर्थक अधिकारी अशोक वाजपेयी को विश्वविद्यालय का पहला कुलपति बनाया गया। वो लगभग चार वर्षों तक विश्वविद्यालय को दिल्ली से ही चलाते रहे। कभी कभार वर्धा चले जाते थे। उनके कार्यकाल में कुछ विवाद भी हुए। उनके बाद कई कुलपति नियुक्त हुए लेकिन विश्वविद्यालय अपने उद्देश्यों की तरफ बहुत धीरे-धीरे बढ़ पाया। वर्धा इस स्थित यह विश्वविद्यालय कभी छोटे तो कभी बड़े विवाद में घिरा रहा। तभी नियुक्तियों को लेकर तो कभी निर्माण को लेकर। पिछले वर्ष 14 अगस्त को अप्रिय परिस्थितियों में कुलपति रजनीश कुमार शुक्ल ने कुलपति के पद से इस्तीफा दे दिया। रजनीश शुक्ल का कार्यकाल भी विवादित रहा। जब उन्होंने पद छोड़ा तो विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर एल कारूण्यकरा को कुलपति का प्रभार दिया। करीब दो महीने तक रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत नहीं हुआ और प्रोफेसर कारूण्यकरा विश्वविद्यालय चलाते रहे। शिक्षा मंत्रालय ने जब रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत किया तो साथ ही नागपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट (आईआईएम) के निदेशक को विश्वविद्यालय के कुलपति का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया। इसके बाद प्रोफेसर कारूण्यकरा अदालत चले गए जहां मामला अभी लंबित है। अतिरिक्त प्रभार के रूप में नागपुर आईआईएम के निदेशक विश्वविद्लाय चला रहे हैं। इस बीच नए कुलपति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय ने विज्ञापन दे दिया। प्रक्रिया चल रही है।
इस क्रोनोलाजी को बताने का उद्देश्य ये है कि किस तरह से महात्मा गांधी और हिंदी के नाम पर बना ये केंद्रीय विश्वविद्लाय निरंतर विवादों में रहा। इन विवादों का असर विश्वविद्यालय के कामकाज पर पड़ रहा है। स्थायी कुलपति के इस्तीफे के छह महीने की अवधि बीत जाने के बाद भी कुलपति की नियुक्ति नहीं होने के कारण विश्वविद्यालय के सामने जो बड़े उद्देश्य थे उन पर ब्रेक लग गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा के भारतीयकरण के लक्ष्य को पाना चाह रहे हैं। इसके लिए वो खुद बहुत सक्रिय रहे हैं, अब भी हैं। भारतीय भाषा भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्राथमिकता में है। भारतीय भाषा को रोजगार से जोड़ने के लिए भी बड़े स्तर पर कार्य हो रहे हैं। पाठ्यक्रम से लेकर पाठ्य सामग्री तक तैयार करने के लिए पिछले दो वर्षों से हर स्तर पर श्रम हो रहा है । लेकिन जब हिंदी के इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसी लचर हो तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य को समग्रता में पाने में कठिनाई हो सकती है। इस समय जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, के माध्यम से हिंदी को शक्ति देने का उपक्रम जोर शोर से चलाया जाना चाहिए था तब विश्वविद्यालय केस मुकदमों में उलझा हुआ है। जिनके पास विश्वविद्यालय का अतिरिक्त प्रभार है वो अतिरिक्त दायित्व की तरह ही निर्वाह भी कर रहे हैं। विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने अभी हाल ही में कुलपति को एक पत्र लिखने की बात कही है जिसमें वो ये मांग करेंगे कि प्रशासन विश्वविद्यालय की स्थिति पर एक श्वेत पत्र जारी करे। शिक्षकों को संबोधित उसी पत्र में शिक्षक संघ ने आरोप लगाया है कि विश्वविद्यालय में नियम कानून को दरकिनार कर निर्णय लिए जा रहे हैं। कर्माचरियों और शिक्षकों को परेशान किया जा रहा है आदि आदि। ये आरोप हैं और इनकी जांच होगी तभी सचाई का पता चल पाएगा।
इन दिनों एक बेहद दिलचस्प बात इस विश्वविद्लय से जुड़ी है वो ये कि इसके रोजमर्रा के निर्णय व्हाट्सएप पर हो रहे हैं। चाहे वो शिक्षकों के अवकाश की स्वीकृति का मामला हो, चाहे किसी के जीपीएस खाते से पैसे निकालने की अनुमति का संदर्भ हो या किसी शिक्षक को किसी कार्यक्रम आदि में भाग लेने की अनुमति का मामला हो। अधिकतर मामलों में कुलपति का अप्रूवल व्हाट्सएप पर हो रहा है। इस प्रवृत्ति के कारण विश्वविद्यालय में ये चर्चा होने लगी है कि महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब व्हाट्सएप युनिवर्सिटी बन गया है। अभी तक विमर्श या चर्चा के दौरान जब काल्पनिक बातों को तथ्य बनाकर पेश किया जाता था तो कहा जाता था कि व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान मत दो। व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का प्रयोग हल्के फुल्के अंदाज में होता था उसको अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से जुड़े कुछ लोग अपनी युनिवर्सिटी का मजाक बनाने के लिए प्रयोग करने लगे हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अकादमिक परिषद और कार्य परिषद की लंबे समय से बैठक नहीं होने के कारण बड़े निर्णय नहीं लिए जा रहे हें। व्हाट्सएप पर जितने निर्णय हो सकते हैं वो हो रहे हैं। व्हाट्सएप के स्क्रीन शाट के प्रिंट लेकर फाइलों में लगा दिए जाते हैं।
महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक स्वप्न था। एस ऐसा स्वप्न जिसको 1975 में नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान देखा गया था। उस सम्मेलन के दौरान प्रस्ताव पारित किया गया था कि वर्धा में हिंदी के एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो। 1993 में मारीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान एक अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी। तब ये भी कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भी एक ऐसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। महात्मा गांधी के हिंदी प्रेम को भी इस विश्वविद्लय की स्थापना की आवश्यकता से जोड़ा गया था। तब जाकर 1997 में संसद ने ऐसे विश्वविद्यालय की स्थपना को स्वीकृति दी थी। आज इस विश्वविद्लाय के दो मान्यता प्राप्त केंद्र कोलकाता और प्रयागराज में चल रहे हैं। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में भी एक केंद्र कार्यरत है जिसको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता मिलना शेष है। गुवाहाटी में चौथा केंद्र खोलने की कवायद हो रही थी। कोलकाता का केंद्र काफी समय से किराए के मकान में चल रहा है। वहां बहुत कम जगह है। आरोप है कि अगर विश्वविद्यालय प्रशासन किसी को प्रताड़ित या दंडित करना चाहता है तो उसका तबादला कोलकाता केंद्र में कर दिया जाता है। प्रयागराज में विश्वविद्यालय का अपना परिसर है लेकिन वो भी आधारभूत सुविधाओं की बाट जोह रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इस केंद्र में जितने कर्मचारी या अध्यापक हैं उस अनुपात में विद्यार्थी रहे हैं या नहीं। अमरावती जिले के केंद्र को जब मान्यता ही प्राप्त नहीं है तो उसकी चर्चा व्यर्थ है। हिंदी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो इसको एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित किया जाए जो हिंदी पठन पाठन के लिए एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित हो सके। विश्व के अन्य देशों के विश्वविद्लायों में हिंदी शिक्षण के समन्वयक के रूप में काम कर सके। वहां के लिए पाठ्यक्रम तैयार कर सके, शिक्षक तैयार कर सके। इस विश्वविद्यालय को उच्च शिक्षा के एक ऐसे वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा जहां विश्व की अन्य भाषाओं में चल रही गतिविधियों पर विमर्श हो सके, शोध हो सके। अगर ऐसा हो पाता है तो प्रधानमंत्री के विकसित भारत के सोच को भी शक्ति मिल सकती है। अन्यथा व्हाट्सएप युनिवर्सिटी तो चलती ही रहेगी।
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