राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान की राहुल गांधी ने आलोचना की। आलोचकों ने संघ को घेरने के लिए इय बयान के चुनिंदा अंश को आधार बनाया। सबसे पहले हम देखते हैं कि मोहन भागवत ने कहा क्या था। उन्होंने कहा कि, ‘प्रतिष्ठा द्वादशी, पौष शुक्ल द्वादशी का नया नामकरण हुआ। पहले हम कहते थे बैकुंठ एकादशी, बैकुंठ द्वादशी अब उसे प्रतिष्ठा द्वादशी कहना क्योंकि अनेक शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा उसी दिन हो गई। स्वतंत्रता थी, प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। भारत स्वतंत्र हुआ 15 अगस्त को राजनीतिक स्वतंत्रता आपको मिल गई। हमारा भाग्य निर्धारण करना हमारे हाथ में है। हमने एक संविधान भी बनाया एक विशिष्ट दृष्टि जो भारत के अपने स्व से निकलती है, उसमें से वह संविधान दिग्दर्शित हुआ, लेकिन उसके जो भाव है, उसके अनुसार चला नहीं और इसलिए हो गए सब स्वप्न साकार कैसे मान लें, टल गया सर से व्यथा का भार कैसे मान लें”। ऐसी परीस्थिति समाज की, क्योंकि जो आवश्यक स्वतंत्रता में स्व का अधिष्ठान होता है, वह लिखित रूप में संविधान से पाया है, लेकिन हमने अपने मन को उसकी पक्की नींव पर आरूढ़ नहीं किया है। हमारा स्व क्या है? राम कृष्ण शिव, यह क्या केवल देवी देवता हैं, या केवल विशिष्ट उनकी पूजा करने वालों के हैं? ऐसा नहीं है। राम उत्तर से दक्षिण भारत को जोड़ते हैं।‘ अपने वक्तव्य में वो आगे भी काफई कुछ कहते हैं ।
राहुल गांधी ने शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा को असली आजादी बताकर संघ पर हमला किया। उन्होंने कहा कि आरएसएस के प्रमुख ने कहा कि भारत ने 1947 में स्वतंत्रता हासिल नहीं की, उन्होंने कहा कि भारत को सच्ची स्वतंत्रता तब मिली जब राममंदिर का निर्माण हुआ। वो इससे भी आगे चले गए और कहा कि भागवत का ये बयान देशद्रोह है और अगर वो दूसरे देश में होते तो उनको गिरफ्तार किया जा सकता था। आगे और भी बहुत कुछ बोले जिसमें सभी संस्थाओं पर संघ के कब्जे की बात से लेकर ये तक कह गए कि हमलोग बीजेपी, आरएसएस और भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। पहली बात तो ये कि संघ प्रमुख ने कहा ही नहीं कि देश को असली आजादी राम मंदिर बनने के बाद मिली। उन्होंने कहा कि हमारी स्वतंत्रता उस दिन प्रतिष्ठित हुई। 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिली लेकिन जिस स्व तंत्र की बात हो रही है क्या वो 1947 में मिल गई थी। इस संबंध में प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी की पुस्तक पालिटिक्स इन इंडिया को देखना चाहिए। इसमें वो एक अध्याय का आरंभ ही इस बात से करते हैं कि स्वतंत्रता हासिल करने के बाद, बदलाव और पुनर्निर्माण की घोषणा होती है, लेकिन भारत में जो राजनीतिक परंपरा चली आ रही थी उसमें कोई गहन बदलाव नहीं आया। हिंदू परंपरा, पश्चिमी राजनीतिक विचार और पुनर्निमाणात्मक राष्ट्रवाद ने राष्ट्र के पुनर्निमाण का एक रास्ता तय किया। इसी क्रम में रजनी कोठारी आगे लिखते हैं कि 1947 के बाद जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी तो एक ऐसा अभिजात वर्ग उभरा जो भारत छोड़कर जा रहे अंग्रेज अभिजात वर्ग के विचार और अनुभवों का पोषक था। वो तो यहां तक कह जाते हैं कि इस अभिजात्य विचार ने व्यक्तिगत और सांस्थानिक विचार को प्रभावित किया। कहने का तात्पर्य ये है कि स्वतंत्रता के बाद कोठरी जिस अंग्रेजी अभिजात्य विचार की बात करते थे वो खत्म नहो हो सका। स्व स्थापित नहीं हो सका।
इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि भारतीय परंपरा और भारतीय विचार को पूर्ण रूप से नहीं अपनाया जा सका। वो जिन संस्थाओं की बात कर रहे हैं उसमें भी अंग्रेजों के अभिजात्य विचार का प्रभाव बना रहा। शिक्षा से लेकर सांस्कृतिक प्रतिष्ठान तक उससे प्रभावित रहे। इस तरह के विचार कोठारी के अलावा कई अन्य राजनीति विज्ञानी मानते और कहते रहे हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि वो सभी लोग देशद्रोही और संविधान विरोधी थे। वासुदेव शरण अग्रवाल से लेकर कुबेरनाथ राय तक जिस सांस्कृतिक परंपरा की व्याख्या करते रहे हैं, वो 1947 के बाद के वर्षों में स्थापित हो पाई। जिस स्व की बात हमारे मनीषी करते थे क्या वो हस्तगत हो पाया। इसपर विचार की आवश्यकता है। संघ प्रमुख ने संविधान में स्व की दृष्टि और भाव की बात की जिसको राहुल गांधी संविधान का अपमान बता रहे हैं।
राहुल गांधी इन दिनों संविधान की बहुत बात करते हैं। संविधान को लेकर एक दिलचस्प प्रसंग। तय हुआ कि संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान पर हस्ताक्षर करेंगे। राहुल गांधी की दादी के पिता जवाहरलाल नेहरू भी संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने सबसे पहले दस्तखत कर दिया। अब संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद के सामने संकट कि वो कहां हस्ताक्षर करें। उन्होंने नेहरू जी के दस्तखत के ऊपर हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अपने हस्ताक्षर किए। जिसको देखकर ही लगता है कि जगह बनाकर किसी तरह अध्यक्ष ने अपने हस्ताक्षर किए। जब देश में पहला आमचुनाव होने जा रहा था तो उसके परिणाम के पहले ही नेहरू जी ने संविधान में पहला संशोधन करवा दिया। होना ये चाहिए था कि जन प्रतिनिधि निर्वाचित होते और नई संसद का गठन होता उसके बाद संविधान में संशोधन होता। पर नेहरू जी ने मनमानि की। सिर्फ नेहरू जी ने ही क्यों उनके बाद उनकी पुत्री ने तो संविधान का मजाक ही बना दिया। देश में इमरजेंसी लगाई। बाद में इंदिरा जी के पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए संसद के द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश की। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भी ऐसी ही एक कोशिश हुई। केबल और टेलीविजन एक्ट में संशोधन करके न्यूज चैनलों पर काबू करने का असफल प्रयास हुआ था।
इन सबसे अलग हटकर भी अगर देखा जाए तो संविधान में या जिन संस्थाओं में भारतीय धर्म प्रतीकों की बात हमारे संविधान निर्माताओं ने अंगीकार किया था क्या हमारा देश अबतक उस दिशा में चल पाया है। रजनी कोठारी भी ये मानते हैं कि राज्य को स्वतंत्रता की स्थितियां पैदा करनी चाहिए उसमें बाधा नहीं खड़ी करनी चाहिए। 1947 के बाद अगर देखा जाए तो कांग्रेस के शासनकाल में कई बार स्वतंत्रता की स्थितियों में बाधा उत्पन्न की गईं। जिसका विस्तार से जिक्र ऊपर किया जा चुका है। राहुल गांधी अंग्रेजी में बोलते हैं। उनको ये समझना होगा कि भाषा केवल शब्दों का समूह भर नहीं है उससे प्रभाव पैदा होता है, निर्मिति होती है। शब्दों का अपना संस्कार होता है इस कारण से सार्वजनिक जीवन में रहनेवालों को शब्दों के संस्कार और उसकी परंपरा से परिचित होना आवश्यक है। अन्यथा उनके वक्तव्य हास्यास्पद हो जाते हैं। देशद्रोही ऐसा ही एक शब्द है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम संविधान निर्माताओं के सोच या भाव को राष्ट्र-जीवन में उतार सके हैं। क्या स्व की अवधारणा तक पहरुंचने में हमें सफलता प्राप्त हुई है।
1 comment:
उधार की सोच अपनी समझ को नासमझ बना देती है.
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