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Saturday, January 25, 2025

धर्म ध्वजा के वैश्विक वाहक राजनेता


अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में कई बातें अलक्षित रह गईं। शपथ ग्रहण के पहले एक्जूक्यिटिव आर्डर्स की इतनी चर्चा हो गई कि कुछ बातें नेपथ्य में चली गईं। दूसरा कारण ये रहा कि हमारे देश में खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने वर्षों से उन मुद्दों को चर्चा के लायक नहीं समझे जाने का जन मानस बनाने का काम किया। ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह को देखें तो पता चलता है कि वहां धर्म का कितना उपयोग था। दुनिया का सबसे विकसित और आधुनिक राष्ट्र अमेरिका में धर्म की कितनी महत्ता है। ट्रंप को शपथ दिलवाने के पहले ईश्वर की प्रार्थना की गई। ट्रंप ने शपथ के दौरान दो बाइबल का उपयोग किया और कहा कि ईश्वर मेरी मदद करें (सो हेल्प मी गाड)। शपथ ग्रहण के ओपनिंग इनवोकेशन के लिए न्यूयार्क के आर्क बिशप और प्रमुख कैथोलिक नेता टिमोथी डोलन ने बुक आफ विजडम से प्रार्थना की। बाइबिल और ईसा में आस्था रखने वाले ईवैनजैलिकल लीडर फ्रैंकलिन ग्राहम ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। इतना ही नहीं समारोह में बैनेडिक्शन (आशीर्वाद) के लिए भी तीन प्रमुख धर्मगुरु वहां उपस्थित थे। न्यूयार्क के रब्बी अरि बमन ने अपनी प्रार्थना में राष्ट्रीय एकता और अखंडता की बात की। डेट्रोएट के 180 चर्चों के वरिष्ठ पेस्टर लारेंजो सीवैल और ब्रुकलिन के कैथोलिक पुजारी भी वहां थे। सीवैले ने तो ट्रंप के कैंपेन के दौरान कैथोलिक मतदाताओं को उनकी प्राथमिकताओं के बारे में बताया भी था। 

ये बताना आवश्यक है कि मिशिगन के कर्बला इस्लामिक एडुकेशन सेंटर से जुड़े इमाम हुसैन अल-हुसैनी का नाम ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के आमंत्रितों की सूची में था। वो समारोह में नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति के जमकर कयास लगे क्योंकि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप का समर्थन किया था। शपथ ग्रहण के बाद ट्रंप ने जोरदार भाषण दिया। उस भाषण में ट्रंप ने दर्जन भर से अधिक बार भगवान (गाड) को ना सिर्फ याद किया बल्कि नियमित अंतराल पर ईश्वर से काम करने की शक्ति भी मांगी। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का धर्म और ईश्वर के नाम पर काम करने की मंशा सार्वजनिक तौर पर स्पष्ट करना। आप पूरे अमेरिकी चुनाव को याद करिए जब खुलेआम चर्च और जीजस को याद किया जाता रहा। पराजित उम्मीदवार कमला हैरिस ने जब अपनी एक रैली में जीजस इज किंग का नारा लगानेवाले को कहा था कि आप गलत रैली में आ गए हैं। उनके इस बयान के मतदाताओं पर नकारात्मक प्रभाव की काफी चर्चा हुई थी। अगर ट्रंप के भाषण को विश्लेषित करें तो उन्होंने साफ तौर पर अमेरिका फर्स्ट का ना सिर्फ उद्घोष किया बल्कि उसके आधार पर ही नीतियां बनाने की घोषणा की। अब जरा हम अपने देश लौटते हैं। नरेन्द्र मोदी जब चुनाव प्रचार के दौरान प्रसून जोशी के लिखे गीत देश नहीं झुकने दूंगा की बात करते थे तो उनके आलोचक इसको भावना का ज्वार उभारनेवाले नारे के तौर पर देखते थे। ट्रंप ने तो खुलेआम राष्ट्रपति बनने के बाद संदेश दिया कि वो अमेरिका को किसी हाल में झुकने नहीं देंगे। 

याद करिए कि जब पिछले वर्ष जनवरी में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में नरेन्द्र मोदी परंपरागत हिंदू वेशभूषा में पूजा की थाल लेकर मंदिर में प्रवेश कर रहे थे तो कई विश्लेषक इसको चुनाव जीतने का उपक्रम करार दे रहे थे। राजनीति में धर्म के उपयोग को लेकर उनकी तीखी आलोचना हो रही थी। जो लोग मोदी की तब आलोचना कर रहे थे उनको अब ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में धर्म का उफयोग नहीं दिखाई दे रहा है। उनके मुंह सिले हुए हैं। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र सर्वप्रथम की बात करता है तो लोग संघ की इस सोच का आलोचना करते हैं । कई राजनीतिक दल तो यहां तक कहते हैं कि उनके लिए संविधान सर्वप्रथम है। ऐसा कहनेवाले ये भूल जाते हैं कि जब देश रहेगा तभी संविधान रहेगा। राष्ट्र को मजबूत करने के लिए संविधान बनाया गया है जहां सबको साथ लेकर समान अधिकार की बात की गई है। नरेन्द्र मोदी अगर किसी मंदिर में चले जाते हैं तो ये कहकर शोर मचाया जाता है कि वो हिंदू वोटरों को लुभाने या प्रभावित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में तो खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदावर चर्चों में जाते हैं, प्रमुख धर्मगुरुओं का समर्थन लेने का प्रयास करते हैं। धर्म को राजनीति से अलग करने का जो विचार है वो दोषपूर्ण है। धर्म को अफीम कहकर प्रचारित करना और लोकतंत्र को धर्म विहीन बनाने की चेष्टा करना भी अनुचित है। अगर ऐसा उचित होता तो हमारे संविधान के निर्माताओं ने संविधान की मूल प्रति में धार्मिक प्रतीकों के अंकन की अनुमति नहीं देते। संविधान सभा के विद्वान सदस्य धर्म की महत्ता को समझते थे। इस कारण कई संवैधानिक संस्थाओं के ध्येय वाक्य भी धर्म से जुड़े हुए हैं। 

स्वाधीनता मिलने के बाद जवाहरलाल नेहरू के संरक्षण में धर्मविहीन राजनीति या धर्म को अफीम कहनेवाली विचारधारा ने जोर पकड़ा। धर्म की गलत व्याख्या करके जनता के मन में संदेह का बीजारोपण किया गया। जो अब वृक्ष बन चुका है। स्वाधीनता के संघर्ष के दौरान ऐसी स्थिति नहीं थी। तब धर्म और राजनीति को लेकर नेताओं के मन में किसी तरह का संशय नहीं था। अरविंदो घोष ने 1908 में लिखा था, राष्ट्रवाद एक ऐसा धर्म है जो सीधे ईश्वर से आया है। अगर आप राष्ट्रवादी बनने जा रहे हैं, राष्ट्रवादी विचार को स्वीकार करते हैं तो आपको इसके धार्मिक स्वरूप को ही अंगीकार करना होगा। आपको ये याद रखना होगा कि आप ईश्वर के कार्य करने का माध्यम हैं। वो इतने पर ही नहीं रुके थे। 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा के अपने प्रसिद्ध उद्बोधन में अरविंदो ने कहा था कि, मैं ये नहीं कहता कि राष्ट्रवाद एक धर्म है, एक विश्वास है, बल्कि मैं तो ये कहता हूं कि सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रवाद है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी राजनीति में हिंदू धर्म प्रतीकों के उपयोग को सही करार दिया था। बंकिम ने भी अपने लेखों में हिंदू धर्म की बात की। लाला लाजपत राय से लेकप बिपिन चंद्र पाल ने भी धर्म को राजनीति से अलग करके नहीं देखा। अरविंदो घोष से लेकर पाल तक ने अपने भाषण और लेखन में हिंदू धर्म प्रतीकों का उल्लेख करके भारत की जनता को एकजुट होने का संदेश दिया था। इतिहासकार बिपान चंद्र ने अपनी पुस्तक कम्युनिलज्म इन मार्डन इंडिया में देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में लिखा है, ‘आरंभिक दिनों में क्रांतिकारी उग्रवादी गीता और काली की शपथ लेते थे और हिंदू विचार को क्रांतिकारी समझते थे।‘ ये पुस्तक लंबे समय से रेफरेंस पुस्तक के तौर पर पढ़ी जा रही है। इसको पढकर छात्र प्रशासनिक अफसर बन रहे हैं।  बिपान चंद्रा ये नहीं बता पाए कि इसमें गलत क्या था। इंटलैक्चुअल रोहिंग्याओं को ये भी बताना चाहिए कि इसमें गलत क्या है कि प्रधानमंत्री मोदी धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़कर देखते हैं। इस पर तो देशव्यापी बहस होनी चाहिए। ट्रंप के शपथ ग्रहण ने तो इस बहस का आधार भी दे दिया है। 


Monday, January 20, 2025

सशक्त कहानी, दमदार अभिनय


फिल्म दीवार ने अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि को मजबूती प्रदान की। साथ ही एक लेखक जोड़ी को भी स्थापित किया जिसकी कहानी सफलता की गारंटी मानी गई। सलीम जावेद की जोड़ी ने जब फिल्म दीवार की कहानी लिखी तो पहले अमिताभ बच्चन को ही सुनाई। अमिताभ उस समय फिल्म गर्दिश की शूटिंग कर रहे थे। सलीम-जावेद ने फिल्म के सेट पर ही कहानी सुनाई थी। अमिताभ कहानी सुनकर अभिभूत थे। तीनों ने मिलकर तय किया कि इसपर फिल्म बनाने के लिए यश चोपड़ा से संपर्क किया जाए। सलीम-जावेद और अमिताभ, यश चोपड़ा के पाली हिल, बांद्रा के घर गिरनार अपार्टमेंट पहुंचे। इसी अपार्टमेंट में पहली बार यश चोपड़ा ने दीवार की कहानी सुनी। नैरेशन के समय निर्माता गुलशन राय भी थे। इस बात का उल्लेख मिलता है कि कहानी सुनाते सुनाते जावेद साहब अचानक रुकते और कहते कि फिल्म कम से कम 25 सप्ताह चलेगी। कहानी फिर आगे बढ़ती और जब रुकते तो सलीम साहब कहते कि इसपर बनी फिल्म कम से कम 50 सप्ताह चलेगी। इनकी बात सच हुई और कई शहरों में तो दीवार फिल्म 100 से भी अधिक समय तक चली थी। कहानी सुनने के बाद यश चोपड़ा और गुलशन राय दोनों को लगा था कि स्टोरी बहुत रूखी है और फिल्म में गाने होने चाहिए। निर्माता की राय पर फिल्म में गाने डाले गए। आप ध्यान से फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि इन गानों की आवश्यकता नहीं थी। इंटरवल के बाद शशि कपूर और नीतू सिंह का जो गीत है उसका लाजिक समझ में नहीं आता है।  

निर्माता और निर्देशक के तय होने के बाद अभिनेताओं  के चयन पर बात आरंभ हुई । सलीम जावेद ने लीड रोल के लिए अमिताभ का नाम सुझाया। निर्माता गुलशन राय चाहते थे कि राजेश खन्ना को लिया जाए। वो एक फिल्म के लिए साइन खन्ना को अग्रिम भुगतान कर चुके थे। वो अपने पैसे की चिंता कर रहे थे। सलीम-जावेद इसपर राजी नहीं हुए। भूमिका अमिताभ को मिली। उनके भाई रवि की भूमिका के लिए लेखकों ने ही शशि कपूर को तैयार किया। स्क्रिप्ट सुनने के बाद शशि तैयार हो गए। उनकी भूमिका छोटी पर सशक्त थी। उनके बोले गए संवाद दर्शकों को खूब पसंद आए। संवाद की बात हो रही है तो कहना न होगा कि फिल्म दीवार का संवाद हिंदी फिल्मों में संवाद लेखन का शीर्ष है। इसके छोटे छोटे टुकड़े कई बार अब भी दोहराए जाते हैं। मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, मेरे पास मां है, या निरूपा राय का शशि कपूर को ये कहना कि भगवान करे कि गोली चलाते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे जैसे संवाद बहुत ही पावरफुल हैं। ये फिल्म दर्शकों को मानसिक तौर पर झकझोरती है। जब एक बच्चे के हाथ पर ‘मेरा बाप चोर है’ लिख दिया जाता है तो उस बच्चे की मानसिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है। फिल्म दीवार की कहानी में मदर इंडिया और गंगा जमुना का मिला जुला प्लाट नजर आते है लेकिन सलीम जावेद ने जिस तरह से कहानी का ट्रीटमेंट किया है वो इसको एकदम ही अलग जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है। 

फिल्म दीवार के रिलीज होने के बाद ये प्रचारित किया गया था कि ये मुंबई के अंडरवर्ल्ड डान हाजी मस्तान के जीवन से प्रेरित है। समानता है भी। हाजी मस्तान ने भी मझगांव डाकयार्ड में कुली के तौर पर जीवन शुरु किया था। उसने भी वहां पठान गैंग की दादागीरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। फिल्म दीवार में भी विजय यही करता है। फिल्म दीवार के रिलीज होने के दौर को भी याद करना चाहिए। उस समय देश में छात्रों और युवाओं का असंतोष चरम पर था। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश का असंतुष्ट युवा आंदोलनरत था। फिल्म में भी उस वक्त के युवा वर्ग का सिस्टम के प्रति गुस्सा और अपने बूते पर ही सब करना होगा की मानसिकता का प्रतिबिंब नजर आता है। इस कारण जब फिल्म रिलीज हुई तो युवाओं को उसमें अपनी कहानी नजर आई । वो इससे जुड़ते चले गए। फिल्म के अंत में कानून, न्याय और सत्य की जीत दिखाकर नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया गया है।कुल मिलाकर अगर फिल्म के रिलीज होने के 50 वर्ष बाद आज विचार करें तो यही लगता है कि पावरफुल कहानी, सही स्टारकास्ट और यश चोपड़ा जैसे मंझे हुए निर्देशक के बदौलत ये कल्ट फिल्म बन गई। एक निर्देशक के तौर पर यश चोपड़ा को भी इस फिल्म से एक नई पहचान मिली, अमिताभ तो स्थापित हो ही गए।    


Saturday, January 18, 2025

आक्रामक दिखने का हास्यास्पद प्रयोग


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान की राहुल गांधी ने आलोचना की। आलोचकों ने संघ को घेरने के लिए इय बयान के चुनिंदा अंश को आधार बनाया। सबसे पहले हम देखते हैं कि मोहन भागवत ने कहा क्या था। उन्होंने कहा कि, ‘प्रतिष्ठा द्वादशी, पौष शुक्ल द्वादशी का नया नामकरण हुआ। पहले हम कहते थे बैकुंठ एकादशी, बैकुंठ द्वादशी अब उसे प्रतिष्ठा द्वादशी कहना क्योंकि अनेक शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा उसी दिन हो गई। स्वतंत्रता थी, प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। भारत स्वतंत्र हुआ 15 अगस्त को राजनीतिक स्वतंत्रता आपको मिल गई। हमारा भाग्य निर्धारण करना हमारे हाथ में है। हमने एक संविधान भी बनाया एक विशिष्ट दृष्टि जो भारत के अपने स्व से निकलती है, उसमें से वह संविधान दिग्दर्शित हुआ, लेकिन उसके जो भाव है, उसके अनुसार चला नहीं और इसलिए हो गए सब स्वप्न साकार कैसे मान लें, टल गया सर से व्यथा का भार कैसे मान लें”। ऐसी परीस्थिति समाज की, क्योंकि जो आवश्यक स्वतंत्रता में स्व का अधिष्ठान होता है, वह लिखित रूप में संविधान से पाया है, लेकिन हमने अपने मन को उसकी पक्की नींव पर आरूढ़ नहीं किया है। हमारा स्व क्या है? राम कृष्ण शिव, यह क्या केवल देवी देवता हैं, या केवल विशिष्ट उनकी पूजा करने वालों के हैं? ऐसा नहीं है। राम उत्तर से दक्षिण भारत को जोड़ते हैं।‘ अपने वक्तव्य में वो आगे भी काफई कुछ कहते हैं । 

राहुल गांधी ने शतकों से परतंत्रता झेलने वाले भारत के सच्चे स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा को असली आजादी बताकर संघ पर हमला किया। उन्होंने कहा कि आरएसएस के प्रमुख ने कहा कि भारत ने 1947 में स्वतंत्रता हासिल नहीं की, उन्होंने कहा कि भारत को सच्ची स्वतंत्रता तब मिली जब राममंदिर का निर्माण हुआ। वो इससे भी आगे चले गए और कहा कि भागवत का ये बयान देशद्रोह है और अगर वो दूसरे देश में होते तो उनको गिरफ्तार किया जा सकता था। आगे और भी बहुत कुछ बोले जिसमें सभी संस्थाओं पर संघ के कब्जे की बात से लेकर ये तक कह गए कि हमलोग बीजेपी, आरएसएस और भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। पहली बात तो ये कि संघ प्रमुख ने कहा ही नहीं कि देश को असली आजादी राम मंदिर बनने के बाद मिली। उन्होंने कहा कि हमारी स्वतंत्रता उस दिन प्रतिष्ठित हुई। 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिली लेकिन जिस स्व तंत्र की बात हो रही है क्या वो 1947 में मिल गई थी। इस संबंध में प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी की पुस्तक पालिटिक्स इन इंडिया को देखना चाहिए। इसमें वो एक अध्याय का आरंभ ही इस बात से करते हैं कि स्वतंत्रता हासिल करने के बाद, बदलाव और पुनर्निर्माण की घोषणा होती है, लेकिन भारत में जो राजनीतिक परंपरा चली आ रही थी उसमें कोई गहन बदलाव नहीं आया। हिंदू परंपरा, पश्चिमी राजनीतिक विचार और पुनर्निमाणात्मक राष्ट्रवाद ने राष्ट्र के पुनर्निमाण का एक रास्ता तय किया। इसी क्रम में रजनी कोठारी आगे लिखते हैं कि 1947 के बाद जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी तो एक ऐसा अभिजात वर्ग उभरा जो भारत छोड़कर जा रहे अंग्रेज अभिजात वर्ग के विचार और अनुभवों का पोषक था। वो तो यहां तक कह जाते हैं कि इस अभिजात्य विचार ने व्यक्तिगत और सांस्थानिक विचार को प्रभावित किया। कहने का तात्पर्य ये है कि स्वतंत्रता के बाद कोठरी जिस अंग्रेजी अभिजात्य विचार की बात करते थे वो खत्म नहो हो सका। स्व स्थापित नहीं हो सका।  

इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि भारतीय परंपरा और भारतीय विचार को पूर्ण रूप से नहीं अपनाया जा सका। वो जिन संस्थाओं की बात कर रहे हैं उसमें भी अंग्रेजों के अभिजात्य विचार का प्रभाव बना रहा। शिक्षा से लेकर सांस्कृतिक प्रतिष्ठान तक उससे प्रभावित रहे। इस तरह के विचार कोठारी के अलावा कई अन्य राजनीति विज्ञानी मानते और कहते रहे हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि वो सभी लोग देशद्रोही और संविधान विरोधी थे। वासुदेव शरण अग्रवाल से लेकर कुबेरनाथ राय तक जिस सांस्कृतिक परंपरा की व्याख्या करते रहे हैं, वो 1947 के बाद के वर्षों में स्थापित हो पाई। जिस स्व की बात हमारे मनीषी करते थे क्या वो हस्तगत हो पाया। इसपर विचार की आवश्यकता है। संघ प्रमुख ने संविधान में स्व की दृष्टि और भाव की बात की जिसको राहुल गांधी संविधान का अपमान बता रहे हैं। 

राहुल गांधी इन दिनों संविधान की बहुत बात करते हैं। संविधान को लेकर एक दिलचस्प प्रसंग। तय हुआ कि संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान पर हस्ताक्षर करेंगे। राहुल गांधी की दादी के पिता जवाहरलाल नेहरू भी संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने सबसे पहले दस्तखत कर दिया। अब संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद के सामने संकट कि वो कहां हस्ताक्षर करें। उन्होंने नेहरू जी के दस्तखत के ऊपर हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अपने हस्ताक्षर किए। जिसको देखकर ही लगता है कि जगह बनाकर किसी तरह अध्यक्ष ने अपने हस्ताक्षर किए। जब देश में पहला आमचुनाव होने जा रहा था तो उसके परिणाम के पहले ही नेहरू जी ने संविधान में पहला संशोधन करवा दिया। होना ये चाहिए था कि जन प्रतिनिधि निर्वाचित होते और नई संसद का गठन होता उसके बाद संविधान में संशोधन होता। पर नेहरू जी ने मनमानि की। सिर्फ नेहरू जी ने ही क्यों उनके बाद उनकी पुत्री ने तो संविधान का मजाक ही बना दिया। देश में इमरजेंसी लगाई। बाद में इंदिरा जी के पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए संसद के द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश की। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भी ऐसी ही एक कोशिश हुई। केबल और टेलीविजन एक्ट में संशोधन करके न्यूज चैनलों पर काबू करने का असफल प्रयास हुआ था।

इन सबसे अलग हटकर भी अगर देखा जाए तो संविधान में या जिन संस्थाओं में भारतीय धर्म प्रतीकों की बात हमारे संविधान निर्माताओं ने अंगीकार किया था क्या हमारा देश अबतक उस दिशा में चल पाया है। रजनी कोठारी भी ये मानते हैं कि राज्य को स्वतंत्रता की स्थितियां पैदा करनी चाहिए उसमें बाधा नहीं खड़ी करनी चाहिए। 1947 के बाद अगर देखा जाए तो कांग्रेस के शासनकाल में कई बार स्वतंत्रता की स्थितियों में बाधा उत्पन्न की गईं। जिसका विस्तार से जिक्र ऊपर किया जा चुका है। राहुल गांधी अंग्रेजी में बोलते हैं। उनको ये समझना होगा कि भाषा केवल शब्दों का समूह भर नहीं है उससे प्रभाव पैदा होता है, निर्मिति होती है। शब्दों का अपना संस्कार होता है इस कारण से सार्वजनिक जीवन में रहनेवालों को शब्दों के संस्कार और उसकी परंपरा से परिचित होना आवश्यक है। अन्यथा उनके वक्तव्य हास्यास्पद हो जाते हैं। देशद्रोही ऐसा ही एक शब्द है। विचार तो इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम संविधान निर्माताओं के सोच या भाव को राष्ट्र-जीवन में उतार सके हैं। क्या स्व की अवधारणा तक पहरुंचने में हमें सफलता प्राप्त हुई है।   

Sunday, January 12, 2025

तुमसा नहीं देखा...


ओंकार प्रसाद नैयर जिसे ओपी नैयर के नाम से जाना गया, एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। लेकिन जब वो किसी गीत के लिए संगीत तैयार करते थे तो उसमें रागों का उपयोग इतनी खूबसूरती से करते थे कि पारखियों को इस बात का अनुमान नहीं होता था कि उन्हें रागों की व्यवस्थित शिक्षा ग्रहण नहीं की। 16 जनवरी 1926 को अविभाजित भारत के लाहौर में उनका जन्मे नैयर की बचपन से ही संगीत में रुचि थी। पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। उनके परिवार के लोग उनको संगीत की तरफ जाने से रोकते। उनको लगता था कि अगर नैयर संगीत से दूर हो गया तो पढ़ाई में मन लगेगा। पर नैयर का मन तो संगीत में रम चुका था। 17 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने एचएमवी के लिए कबीर वाणी कंपोज की थी लेकिन वो पसंद नहीं की गई। बावजूद इसके उन्होंने एक प्राइवेट अलबम प्रीतम आन मिलो कंपोज की जिसमें सी एच आत्मा से गवाया। इस अलबम ने नैयर को संगीत और सिनेमा जगत में एक पहचान दी। नैयर खुश हो रहे थे कि उनका सपना पूरा होने वाला है। नियति को कुछ और ही मंजूर था। देश का विभाजन हो गया। उनको लाहौर में सबकुछ छोड़-छाड़ कर पटियाला आना पड़ा। पटियाला में वो संगीत शिक्षक बनकर जीवन-यापन करने लगे। पर मन तो फिल्मों में संगीत देने का था। एक नैयर बांबे (अब मुंबई) पहुंचते हैं। लंबे संघर्ष और जानकारों की सिफारिश के बाद उनको फिल्म संगीत में हाथ आजमाने का अवसर मिला।

1952 की फिल्म आसमान ने नैयर के लिए सफलता का क्षितिज तो खोला पर उनके और लता मंगेशकर के बीच दरार भी पैदा कर दी। दोनों ने फिर कभी साथ काम नहीं किया। ये वो समय था जब लता मंगेशकर फिल्म अनारकली, नागिन और बैजू बाबरा जैसी फिल्मों के गाने गाकर प्रसिद्धि की राह पर चल पड़ी थीं। नैयर ने लता से अपनी फिल्म आसमान में गाने का अनुबंध किया था। जब रिकार्डिंग का समय हुआ तो लता मंगेशकर नदारद। वो तय समय पर नहीं पहुंची। बाद में लता ने नैयर को बताया कि उनके नाक में कुछ दिक्कत थी। डाक्टर ने उनको आराम की सलाह दी थी। तब नैयर ने उनसे दो टूक कहा कि जो समय पर नहीं पहुंच सकता उसका मेरे लिए कोई महत्व नहीं। लता ने समझाने का प्रयत्न किया। नैयर नहीं माने। तब लता ने भी कहा जो व्यक्ति संवेदनहीन हो  वो उनके लिए नहीं गा सकती। इस विवाद के बाद राजकुमारी ने वो गाना गाया। गीत था, मोरी निंदिया चुराए गयो...। दरअसल नैयर एक ऐसे संगीतकार थे जो अपनी शर्तों पर काम करते थे। जब लता से विवाद हुआ तो शमशाद बेगम ने उनका साथ दिया। उन्होंने गीता दत्त और आशा भोंसले से गवाना आरंभ किया। उनकी संगीत में जो रिद्म था या जो पंजाबी लोकसंगीत की धुनों का उपयोग करते थे उसमें आशा की आवाज एकदम फिट बैठ रही थी। गीता दत्त ने ही नैयर को गुरुदत्त से मिलवाया। फिल्म आर-पार के गीतों और उसके बाद मिस्टर एंड मिसेज 55 की गीतों ने ओ पी नैयर के संगीत को सफलता के ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया। नैयर निरंतर सफल हो रहे थे। बी आर चोपड़ा ने दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला को लेकर फिल्म नया दौर शुरु की। चोपड़ा ने नैयर को संगीतकार के तौर पर साइन किया। यही वो फिल्म थी जिसके गीतों को कंपोज करते नैयर और आशा के बीच की नजदीकियां बढ़ीं। नया दौर में आशा और रफी के गानों ने लोकप्रियता का शिखर छुआ। रफी के साथ उनका गाया गाना ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी, कवांरियों का दिल मचले’ या शमशाद बेगम के साथ ‘रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’ जैसे गीत लोगों की जुबान पर चढ़ गए। जैसे जैसे आशा और नैयर की नजदीकियां बढ़ीं, गीता और शमशाद की उपेक्षा आरंभ हो गई। नैयर भूल गए कि शमशाद बेगम ने उनकी कठिन समय में मदद की थी और गीता दत्त ने उनको गुरुद्त्त से मिलवाया था। गीता दत्त ने नैयर से एक बार पूछा भी था वो क्यों उनकी उपेक्षा कर रहे हैं पर नैयर के पास कोई उत्तर नहीं था। पर जब फिल्म हाबड़ा ब्रिज में हेलेन पर फिल्माया गीत मेरा नाम चिन चिन चू को गीता दत्त की आवाज मिली तो वो बेहद खुश हो गईं थीं। ये गाना हेलेन की पहचना भी बना। हेलेन की तरह ही शम्मी कपूर को जपिंग स्टार की छवि देने में ओपी नैयर के संगीत की बड़ी भूमिका है। फिल्म तुमसा नहीं देखा के गीत और संगीत से ही शम्मी कपूर की छवि मजबूत हुई।  

ओ पी नैयर एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने हारमोनियम, सितार, गिटार, बांसुरी, तबला, ढोलक, संतूर, माउथआर्गन और सेक्साफोन आदि का जमकर उपयोग किया। इन वाद्ययंत्रों के साथ जब वो प्रयोग करते थे तो गीत के एक एक शब्द का ध्यान रखते थे। ये बहुत कम लोगों को पता है कि नैयर होम्योपैथ और ज्योतिष के भी अच्छे जानकार थे। एक समय में सबसे अधिक पैसे लेनेवाले संगीतकार को बाद में अपनी जिंदगी चलाने के लिए अपना घर तक बेचना पड़ा था। पर स्वाभिमानी इतने कि अपने किसी निर्णय पर कभी अफसोस नहीं किया।  


Saturday, January 11, 2025

पांडुलिपि मिशन को मिले जीवनदान


महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट ने पांच भारतीय भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में लाने का निर्णय लिया था। ये पांच भाषाएं हैं मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया। इन भाषाओं में हमारे देश में प्रचुर मात्रा में ज्ञान संपदा उपलब्ध है। पालि और प्राकृत में तो हमारे इतिहास की अनेक अलक्षित अध्याय भी हैं जिनका सामने आना शेष है। हमारे देश की ऐतिहासिक ज्ञान संपदा कई मठों और बौद्ध विहारों के अलावा जैन मतावलंबियों के मंदिरों में रखी हैं। इनमें से अधिकतर पांडुलिपियां पालि और प्राकृत में हैं। प्रधानमंत्री मोदी इन भाषाओं को क्लासिकल भाषा की घोषणा से आगे जाकर पांडुलिपियों में दर्ज ज्ञान संपदा को आम जनता तक पहुंचाना चाहते हैं। बुद्ध के बारे में तो प्रधानमंत्री राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर निरंतर बोलते रहते हैं। हाल ही में प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुद्ध और उनके सिद्धातों के बारे में चर्चा की थी। भगवान बुद्ध ने जो ज्ञान दिया है उसको वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का कार्य होना शेष है। प्रधानमंत्री के निर्णय के बाद पालि को लेकर थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन ने सक्रियता दिखाई और देश के कई हिस्से में गोष्ठियां आदि करके उसको मुख्यधारा में लाने की पहल आरंभ की है। इन गोष्ठियों में भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं की भागीदारी ये स्पष्ट है कि इस कार्य में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति और स्वीकृति दोनों है।  प्रधानमंत्री की अपने देश की ज्ञान संपदा को आमजन तक पहुंचाने के लिए सबसे कारगर तरीका तो यही लगता है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को फिर से सक्रिय किया जाए।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का आरंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 2003 में किया गया। मिशन के गठन के करीब सालभर बाद अटल जी की सरकार चली गई। केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, ‘इस परियोजना के माध्यम से मिशन का उद्देश्य भारत की विशाल पाण्डुलिपीय सम्पदा को अनावृत करना और उसको संरक्षित करना है। भारत लगभग पचास लाख पाण्डुलिपियों से समृद्ध है जो संभवत: विश्व का सबसे बड़ा संकलन है| इसमें सम्मिलित हैं अनेक विषय, पाठ संरचनाएं और कलात्मक बोध, लिपियां, भाषाएं, हस्तलिपियां, प्रकाशन और उद्बोधन| संयुक्त रूप से ये भारत के इतिहास, विरासत और विचार की ‘स्मृति’ हैं। ये पाण्डुलिपियां अनेक संस्थानों तथा निजी संकलनों में प्राय: उपेक्षित और अप्रलेखित स्थिति में देशभर में और उसके बाहर भी बिखरी हुई हैं| राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन का उद्देश्य अतीत को भविष्य से जोड़ने तथा इस देश की स्मृति को उसकी आकांक्षाओं से मिलाने के लिए इन पाण्डुलिपियों का पता लगाना, उनका प्रलेखन करना, उनका संरक्षण करना और उन्हें उपलब्ध कराना है|’  इस मिशन की वेबसाइट पर ही इसके कार्यों का लेखाजोखा भी उपलब्ध है। उसको देखकर सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि मिशन बस चलता रहा है। कोई उल्लेखनीय कार्य हुआ हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। अभी कुछ वर्षों पहले तो सांस्कृतिक जगत में ये चर्चा थी संस्कृति मंत्रालय इस मिशन को बंद करना चाहती है। पता नहीं किन कारणों से इस मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ने का निर्णय हुआ। जब मिशन को कला केंद्र से जोड़ा गया तो माना गया था कि वहां इसके उद्देश्यों को पूरा करने को गति मिलेगी। कला केंद्र के पुस्तकालय में भी पांडुलिपियों का खजाना है। देशभर के 52 पुस्तकालयों से इन पांडुलिपियों की माइक्रो फिल्म बनाकर यहां रखा गया है। इन पांडुलिपियों में गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र शामिल हैं। इसके अलावा कला केंद्र की लाइब्रेरी में एक लाख के करीब स्लाइड्स हैं जिसपर देश की विविध परंपराओं की झलक देखी जा सकती हैं। देश भर के स्मारकों या ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीरें भी यहां हैं। कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय अपने आप में अनोखा है। यहां किताबें तो हैं ही एक सांस्कृतिक आर्काइव भी है। पर यहां से जुड़ने के बाद भी मिशन गतिमान नहीं हो सका। बताया जाता है कि संस्कृति मंत्रालय ने मिशन को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जोड़ तो दिया पर उसको गतिमान करने के लिए जो आर्थिक संसाधन नहीं दिए। परिणाम वही हुआ जो बिना अर्थ के किसी संस्था का होता है। 

अब प्रधानमंत्री की रुचि को देखते हुए एक बार फिर से राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को सक्रिय करने का प्रयास संस्कृति मंत्रालय कर रहा है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अकाउंट्स को अस्थायी रूप से साहित्य अकादमी को दिया गया है। साहित्य अकादमी को निर्देश दिया गया है कि वो राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के खर्चों का हिसाब किताब रखे। बिलों का भुगतान आदि करे। इस निर्णय के पीछे की मंशा क्या हो सकती है पता नहीं। साहित्य अकादमी को पूरा देश सृजनात्मकता के केंद्र के रूप में जानता है, संस्कृति मंत्रालय इसको लेखा विभाग के लिए भी उपयुक्त समझता है। इन दिनों संस्कृति मंत्रालय अपने अजब-गजब फैसले के लिए भी जाना जाने लगा है। कभी अपने से संबद्ध संस्थाओं के चेयरमैन के स्तर को लेकर जारी फरमान तो कभी राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक अस्थायी अफसर को हटाकर दूसरे अस्थायी अफसर को दायित्व देने को लेकर । मंत्रालय को जो ठोस कार्य करने चाहिए उस ओर वहां कार्यरत अफसरों का ध्यान ही नहीं जा पा रहा है। राजा राममोहन राय मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में नियमित महानिदेशक की नियुक्ति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नियमित चेयरमैन की नियुक्ति जैसे कार्यों पर ध्यान है कि नहीं, पता नहीं। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडिया गेट के पास अमृत वाटिका की बात की थी। इस वाटिका में मेरी माटी, मेरा देश के दौरान जमा की गई मिट्टी को रखा जाना था। देशभर से कलश में मिट्टी लेकर लोग दिल्ली में जुटे थे। भव्य कार्यक्रम हुआ था। तब इस तरह की खबर आई थी गृहमंत्री अमित शाह ने अमृत वाटिका के लिए जगह देखने के लिए उस इलाके का दौरा भी किया था। अब पता नहीं कहां हैं वो मिट्टी भरे कलश और कहां बन रही है अमृत वाटिका। संस्कृति मंत्रालय को इस बारे में बताना चाहिए। 

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को अगर संस्कृति मंत्रालय के वर्तमान अधिकारियों के भरोसे छोड़ा गया तो उसका परिणाम क्या होगा इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो अफसर संस्कृति और संस्कृति से जुड़े मुद्दों की संवेदना को नहीं समझ सकते वो पांडुलिपियों में संचित ज्ञान को लेकर संवेदनशील होंगे इसपर संदेह है। दूसरी जो चिंता योग्य बात ये है कि जब मंत्रालय के अफसर प्रधानमंत्री की रुचि वाली योजनाओं को लेकर बेफिक्र रहते हैं तो वो किसकी सुनते होंगे, कहा नहीं जा सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को मिशन की तरह चलाया जाए और उसको किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में सौंपा जाए। संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत अपने स्तर पर इस कार्य. को पटरी पर लाने में विशेष रुचि लें ताकि भारत का जो इतिहास वर्षों से सामने नहीं आ पाया है वो सामने आ सके और लोग उसपर गर्व कर सकें। प्रधानमंत्री मोदी के पंच-प्रण की पूर्ति की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।   


Friday, January 10, 2025

अकबर रोड से कोटला रोड का सफर


जब ये तय हुआ कि सभी राजनीतिक दलों को उनके सांसदों की संख्या के आधार पर दिल्ली में पार्टी के मुख्यालय के लिए जमीन दी जाएगी तो कांग्रेस को पंडित दीनदयाल उपाध्याय मार्ग और कोटला रोड के कोने पर प्लांट संख्या 9 ए आवंटित किया गया। उसी समय कांग्रेस ने तय कर लिया था वो अपने कार्यालय के पते में पंडित दीनदयाल उपाध्याय रोड न लिखकर कोटला रोड लिखेगी। संभव है कि कांग्रेस नेतृत्व ने सोचा होगा कि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के प्रखर और शीर्ष नेता के नाम पर रखे मार्ग को अपने पते में न लिखा जाए। इस निर्णय के लभग डेढ दशक बाद कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय की इमारत तैयार हो चुकी है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दिल्ली में पार्टी का मुख्यालय पांचवीं बार स्थानांतरित हो रहा है। स्वाधीनता के बाद से कांग्रेस पार्टी का कार्यालय 7 जंतर मंतर रोड पर चल रहा था। इस इमारत से कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने लंबे समय तक काम किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर उनके बाद के कई कांग्रेस अध्यक्ष वहां बैठा करते थे। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ तो संगठन कांग्रेस ने इस इमारत को छोड़ने से इंकार कर दिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने विंडसर प्लेस में अस्थायी कार्यालय बनाया। इंदिरा गांधी को 7 जंतर मंतर मंतर रोड कार्यालय के छूटने का दर्द लंबे समय तक सालता रहा था। 1971 में पार्टी ने अपना स्थायी ठिकाना डा राजेन्द्र प्रसाद रोड पर बनाया। सात वर्षों तक कांग्रेस ने इसी कार्यालय में पार्टी की राजनीतिक गतिविधियां चलती रहीं। 1977 में संगठन कांग्रेस का विलय जनता पार्टी में हो गया। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस बंगले को सरदार पटेल स्मारक संस्थान को अलाट कर दिया गया। जनता पार्टी का दफ्तर इसी इमारत में था। उस समय बताया गया था कि जनता पार्टी को सरदार पटेल स्मारक ट्रस्ट ने किराए पर जगह दी है। बाद में ये जगह विवादित होती चली गई। आज तो इस इमारत में कौन किराएदार है और कौन मालिक पता करना कठिन है।

जनता पार्टी के शासन काल के दौरान कांग्रेस पार्टी को अकबर रोड पर 24 नंबर की कोठी आवंटित कर दी गई। तब से लेकर अबतक कांग्रेस पार्टी का मुख्यालय वहीं से कार्य कर रहा है। करीब 47 वर्षों के बाद इस महीने मुख्यालय कोटला रोड पर शिफ्ट होने वाला है। अकबर रोड के कार्यालय में कांग्रेस पार्टी ने काफी राजीनीतिक उतार चढ़ाव देखे। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी का प्रधान मंत्री बनना, नरसिंहराव का प्रधानमंत्री बनना, सोनिया गांधी का अध्यक्ष पद संभालना, नरसिंहराव के पार्थिव शरीर के लिए कांग्रेस कार्यालय का नहीं खुलना, सोनिया की जगह मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनना, राहुल गांधी का पार्टी की कमान संभलना, लंबे समय बाद किसी गैर गांधी के रूप में मल्लिकार्जुन खरगे का अध्यक्ष बनना जैसी महत्वपूर्ण राजनीतिक गठनाओं का गवाह अकबर रोड का बंगला बना। 

1978 में जब कांग्रेस पार्टी को केंद्रीय कार्यालय के लिए 24 अकबर रोड का बंगला अलाट हुआ था तब उसमें आठ कमरे थे। समय के साथ इसके परिसर में वैध-अवैध निर्माण होता रहा। इस समय तो जाने कितने स्थायी- अस्थायी कमरे हैं। रशीद किदवई ने अपनी पुस्तक में कांग्रेस मुख्यालय परिसर में एक अस्थायी मंदिर की बात की है। उनके मुताबिक कांग्रेस मुख्यालय में एक बड़ा पेड़ था। किसी समय कर्नाटक के एक व्यक्ति को जब पार्टी का टिकट मिला तो उसने पेड़ के नीचे एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया। 1999 में आए तूफान के कारण वो विशाल पेड़ गिर गया। उसके नीचे बना मंदिर भी ध्वस्त हो गया। परिसर के उस मंदिर को लेकर भी रोचक जानकारी दी गई है कि जो भी टिकटार्थी आता था वो वहां सर नवाता था। टिकट मिलने पर फिर मंदिक पहुंच कर भगवान को धन्यवाद देता था। इस तरह के कई किस्से 24 अकबर रोड से जुड़े रहे हैं। अब जब वो परिसर खाली हो जाएगा तो ये किस्से, अगर विस्तार से लिखे नहीं गए, तो इतिहास में खो सकते हैं।   


Sunday, January 5, 2025

याद सदा रखना ये कहानी


फिल्म जब जब फूल खिले का क्लाइमैक्स सीन याद करिए। नायिका हीरो को तलाशते रेलवे स्टेशन पहुंचती है। वो गलती से दूसरे प्लेटफार्म पर पहुंच जाती है और ट्रेन उसके सामने से निकल जाती है। वो निराश होती है लेकिन अचानक उद्घोषणा होती है कि पठानकोट जानेवाली गाड़ी प्लेटफार्म नंबर पांच से रात नौ बजकर 40 मिनट पर रवाना होगी। वो भागती हुई पांच नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचती है। परेशान हालत में राजा राजा चिल्लाते हुए नायक को ढूढती है। जैसे ही नायक उसको दिखता है तो ट्रेन चल पड़ती है। वो दरवाजे पर लगे हैंडल को पकड़कर दौड़ती हुई नायक से माफी मांगने लगती है। अपने साथ ले चलने की गुहार लगाती है। ये लंबा सीक्वेंस है। ट्रेन चल रही होती है, नायक खामोशी से अपनी प्रेमिका को देखता रहता है और वो ट्रेन के साथ दौड़ती रहती है। अचानक प्लेटफार्म खत्म होता है और नायक एक्शन में आकर नायिका को ट्रेन के अंदर खींच लेता है। नायक हैं शशि कपूर और नायिका है नंदा। वही नंदा जो अबतक फिल्मों में बहन या पत्नी की भूमिका निभा रही होती थी, इस फिल्म में एक बिल्कुल ही अलग रोल में चुलबुली प्रेमिका की भूमिका में दिखती है। फिल्म हिट हो जाती है। शशि कपूर जिनकी फिल्में अबतक निरंतर फ्लाप हो रही थी वो रातों रात स्टार बन जाते हैं। ट्रेन का ये सीक्वेंस बहुत कठिन था और रात दो बजे से सुबह चार बजे के बीच बांबे सेंट्रल स्टेशन पर फिल्माया गया था। नंदा इस सीन को करते हुए बेहद डरी हुई थी क्योंकि अगर शशि कपूर कुछ सेकेंड से चूकते तो वो ट्रेन के नीचे आ सकती थी। नंदा ने इस सीन को किया। 

शशि कपूर के साथ फिल्म में इस सीन को करने के लिए नंदा क्यों तैयार हुई थीं इसके पीछे दिलचस्प कहानी है। नंदा, मास्टर विनायक की बेटी थीं। मास्टर विनायक फिल्म इंडस्ट्री के बड़े प्रोड्यूसर-डायरेक्टर थे। उनका परिवार फिल्म निर्माण से जुड़ा था। व्ही शांताराम नंदा के रिश्तेदार थे। 41 वर्ष की उम्र में मास्टर विनायक का निधन हो गया तब नंदा की उम्र महज सात वर्ष थी। परिवार चलाने के लिए नंदा को फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर काम करना पड़ा था।  बेबी नंदा के नाम से उन्होंने कई फिल्में की। नंदा को अभिनेत्री के तौर पर व्ही शांताराम ने अपनी फिल्म तूफान और दीया में अवसर दिया था। राज कपूर के साथ उन्होंने फिल्म आशिक की थी। इसके निर्माण के दौरान राज कपूर से उनकी दोस्ती हो गई। इस बीच उनकी कई सफल फिल्में आई। जब राज कपूर को पता चला कि जब जब फूल खिले में नंदा शशि कपूर की प्रेमिका का रोल कर रही हैं तो वो नंदा के पास पहुंचे। राज साहब ने नंदा का हाथ पकड़कर कहा कि पता चला है कि तुम शशि के साथ काम कर रही हो। आप उससे सीनियर कलाकार हो प्लीज उसका ध्यान रखना। शशि मेरा भाई नहीं, मेरा बेटा है और असफलता का काऱण अंदर से टूटा हुआ है। अगर तुम उसकी मदद करोगी तो वो फिल्म अच्छे से कर पाएगा। राजकपूर की ये बात नंदा के दिल को छू गई। जब जब फूल खिले के क्लाइमैक्स की बात आई तो कुछ लोगों ने नंदा से कहा कि उनको इस खतरनाक सीक्वेंस के लिए बाडी डबल का उपयोग करना चाहिए। नंदा नहीं मानी क्योंकि उनको राज कपूर की बात याद थी। इस फिल्म के क्लाइमैक्स का गीत, याद सदा रखना ये कहानी, चाहे जीना चाहे मरना, भले ही फिल्म के प्रेमी-फ्रेमिका के बीच हो लेकिन याद तो सदा नंदा से किया राज कपूर का अनुरोध और नंदा का उसको निभाना भी रहेगा। जब शशि कपूर असफलता का दौर झेल रहे थे तो नंदा के उनके साथ कई फिल्में कीं।

नंदा का बचपन बहुत संघर्ष में बीता था, इस कारण वो अंतर्मुखी थीं। सेट पर बहुत बातें नहीं करती थीं। उन्होंने विवाह भी नहीं किया। कहा जाता है कि वहीदा रहमान की सलाह पर उन्होंने निर्देशक मनमोहन देसाई के साथ सगाई तो की थी लेकिन विवाह के पहले और सगाई के दो वर्ष बाद मनमोहन देसाई का घर की छत से गिरकर निधन हो गया। ये तो विधि का विधान ही कहा जाएगा कि नंदा का निधन भी घर की छत से गिरकर ही हुआ। हलांकि दोनों के निधन में दो दशक का अंतराल रहा। 1952 से लेकर 1983 तक के लंबे कालखंड में नंदा ने कई बेहद सफल फिल्में कीं जिनमें धूल का फूल, काला बाजार, आंचल, छोटी बहन प्रमुख हैं। 1960 से लेकर बाद के कुछ वर्षों तक वो और अभिनेत्री नूतन फिल्म इंडस्ट्री में सबसे अधिक महंगी एक्ट्रेस के तौर पर चर्चित रहीं। उनका किसी फइल्म में होना सफलता की गारंटी माना जाता था। बाल कलाकार से लेकर सह कलाकार से लेकर मेन लीड और फिर सह-कलाकार की दर्जनों भूमिका में नंदा के अभिनय के इंद्रधनुष को देखा जा सकता है। 


Saturday, January 4, 2025

इतिहास पुनर्लेखन के सामने चुनौतियां


नववर्ष में दिल्ली के आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में गृह मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ का लोकार्पण किया। लोकार्पण समारोह में अमित शाह ने कई ऐसी बातें कहीं जिसपर बौद्धिक जगत में विमर्श होना चाहिए। गृह मंत्री ने कहा कि हमारे देश के हर हिस्से में मौजूद भाषाएं, लिपियां, आध्यात्मिक विचार, तीर्थ स्थलों की कलाएं, वाणिज्य और व्यापार, हजारों साल से कश्मीर में उपaस्थित थे और वहीं से देश के कई हिस्सों में पहुंचे थे। जब ये बात सिद्ध हो जाती है तो कश्मीर का भारत से जुड़ाव का प्रश्न बेमानी हो जाता है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यह पुस्तक प्रमाणित करती है कि देश के कोने-कोने में बिखरी हुई हमारी समृद्ध विरासत हजारों वर्षों से कश्मीर में भी थी। पुस्तक के बारे में बताया जा रहा है कि इसमें लगभग 8 हजार साल पुराने ग्रंथों में जहां भी जिस रूप में कश्मीर का उल्लेख आया है उसको निकालकर इसमें रखा गया है। गृह मंत्री ने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बताते हुए कहा कि किसी भी कानून की धारा इसे भारत से अलग नहीं कर सकती। पूर्व में कश्मीर को भारत से अलग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन समय ने उस धारा को ही हटा दिया। जाहिर सी बात है वो कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खत्म करने की बात कर रहे थे। गृह मंत्री ने इस प्रयास को रेखांकित किया जिसके अंतर्गत लंबे समय से देश में चल रहे मिथक को तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तोड़कर सत्य को ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्थापित करने का काम किया गया। इस पुस्तक का संपादन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के चेयरमैन रघुवेन्द्र तंवर ने किया है। अमित शाह ने इतिहास लेखन पर चुटकी भी ली और कहा कि कुछ लोगों के लिए इतिहास का मतलब दिल्ली के दरीबे से बल्लीमारन और लुटियन से जिमखाना तक सिमट गया था। 

अमित शाह जब इतिहास लेखन के बारे में बात कर रहे थे तो वो भारतीय दृष्टि से लिखे गए इतिहास की अपेक्षा कर रहे थे। परोक्ष रूप से उन्होंने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर तंज भी कसा और कमरे में बैठकर इतिहास लिखने की बात की। अमित शाह ने इतिहास लेखन को लेकर पहली बार अपना मत नहीं रखा बल्कि समय समय पर वो इतिहास लेखन को लेकर अपनी बेबाक राय रखते रहे हैं। मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में काफी लोग वामपंथियों को हर गलती के लिए जिम्मेदार ठहराते थे। सेमिनारों और गोष्ठियों में वामपंथी और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गलतियों की ओर इशारा कर उनको कोसते थे। कुछ वर्षों पहले अमित शाह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में भारतीय दृष्टि से इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि सिर्फ किसी को दोष देने से काम नहीं चलनेवाला है। उन्होंने भारतीय दृष्टि रखनेवाले इतिहासकारों पर भी सवाल खड़े उनमें से कितनों ने भारतीय दृष्टि से विचार किया। बड़े-बड़े भारतीय साम्राज्य के संदर्भग्रंथ तक नहीं बना पाने की बात भी अमित शाह ने रेखांकित की थी। मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य का संदर्भग्रंथ तैयार नहीं कर पाए। मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए। शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की गई। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया जा सका। वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास में सही तरीके से दर्ज नहीं हो पाती। उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। आज भी कई लोग उसको सिपाही विद्रोह के नाम से ही जानते समझते हैं। वीर सावरकर ने सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया। गृहमंत्री ने तब जोर देकर कहा था कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकालीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। केंद्रीय गृहमंत्री ने बेहद सटीक बात कही थी कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी। 

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में पिछले कुछ वर्षों से इतिहास को लेकर कुछ कार्य हुए हैं लेकिन बीच बीच में वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी छाया लंबे समय तक उस संस्था पर महसूस की जाती है। परिषद का काम इतिहास लेखन और उसकी प्रविधि पर ध्यान देने का है झंडा लगवाने और गेस्ट हाउस बनवाने का नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन वहां भी लंबे समय से सदस्य सचिव नहीं होने के कारण प्रशासनिक और अकादमिक बाधाएं आती रहती हैं। ऊपर से वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो उसके अच्छे कार्यों को ढंक देता है। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा। सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। इसका भी बड़ा नुकसान हुआ है। किसी से पूछिए कि सालभर में क्या हुआ तो कहेंगे इतने कार्यक्रम कर लिए। 

आवश्यकता इस बात की है कि ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ जैसी पुस्तकें अधिक से अधिक संख्या में आएं। संपादित किताबें भी आएं लेकिन स्कालर्स का चयन करके उनको स्वतंत्र पुस्तकें लिखने के लिए भी प्रेरित किया जाए। उनको फेलोशिप दी जाए, उनसे विषय़ देकर शोध करवाया जाए। जो तथ्य ओझल कर दिए गए उनको सामने लाने का दायित्व दिया जाए। अमित शाह जिन संदर्भ ग्रंथों की बात कर रहे हैं उनको तैयार करने की दिशा में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारतीय दृष्टिवाले इतिहासकारों का चयन करके उनसे संदर्भ ग्रंथ तैयार करवाने चाहिए। मंत्रालय का भी दायित्व है कि वो इस तरह की संस्थाओं में समय पर मानव संसाधन उपलब्ध करवाए ताकि प्रशासनिक और अकादमिक कार्यों में व्यवधान नहीं आ सके। ये अच्छी बात है कि एक पुस्तक आई और गृह मंत्री ने उसकी प्रशंसा की। ऐसी पुस्तकों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत पाठ्यक्रमों में शामिल करवाना चाहिए। प्रतियोगी परीक्षाओं में उन्हीं पुस्तकों से प्रश्न पूछे जाएं ताकि विद्यार्थी उसका अध्ययन कर सकें। जिस तरह से भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है उसके लिए एक टास्क फोर्स बनाकर कार्य करना होगा अन्यथा समय बहुत तेजी से निकलता जा रहा है।  


Saturday, December 28, 2024

समानांतर सिनेमा का अल्पज्ञात पक्ष


इस वर्ष मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड की जूरी में श्याम बेनेगल, व्ही शांताराम के सुपुत्र किरण शांताराम, वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री निर्माता संजीत नार्वेकर, निर्देशक मधुर भंडारकर के साथ मैं भी था। इस बात को लेकर मैं बेहद उत्साहित था कि श्याम बेनेगल जैसे कद्दावर फिल्म निर्देशक के साथ बैठने बतियाने का अवसर मिलेगा। मेरे मन में कई प्रश्न थे जो मैं श्याम बाबू से पूछना चाहता था। नियत तिथि पर मुंबई पहुंचा। जूरी की बैठक के लिए जब पहुंचा तो बताया गया कि श्याम बाबू बीमार हैं। वो नहीं आ पाएंगे और आनलाइन जुड़ेंगे। मगर डायलिसिस में देर हो जाने के कारण वो उस दिन बैठक में आनलाइन भी नहीं जुड़ पाए। बैठक के दौरान ही उनका एक ईमेल मेरे पास आया कि आप जो तय कर देंगे मेरी उस नाम पर सहमति होगी। मैं चौंका क्योंकि इसके पहले कभी श्याम बाबू से भेंट नहीं हुई थी, उनसे परिचय भी नहीं था। जूरी की बैठक हो गई। नाम तय हो गया। फेस्टिवल के आयोजकों को सम्मानित किए जानेवाले फिल्मकार का नाम दे दिया गया। हमें बताया गया कि श्याम बाबू ने मीटिंग की मिनट्स मगंवाई है। बात आई-गई हो गई। शाम को मैं वापस दिल्ली लौट आया। अगले दिन सुबह फोन की घंटी बजी, मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई कि श्याम बेनेगल बोल रहा हूं, क्या आप अनंत विजय हैं। मैंने सोचा कि कोई प्रैंक कर रहा है और फोन काट दिया। फिर उसी नंबर से फोन आया तो मैंने उठाकर कहा कि क्यों मजाक कर रहे हो भाई। श्याम बेनेगल साहब के पास न तो मेरा नंबर है और ना ही वो मुझे जानते हैं। इसपर फोन करनेवाले व्यक्ति ने कहा कि वो बेनेगल ही बोल रहे हैं और उनको मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के बारे में बात करनी है। तब मुझे लगा कि ये श्याम बाबू ही हैं। मैंने प्रणाम किया और फोन काटने के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा तो बोले कि आपकी प्रतिक्रिया उचित थी। खैर... अवार्ड के चयन पर उन्होंने बात की और धन्यवाद कहा। मैंने उनके फोन रखने के पहले पूछा कि श्याम बाबू मैं आपसे समांतर सिनेमा के बारे में कुछ बात करना चाहता हूं। लेकिन थोड़ी लंबी बात होगी तो समय दे दीजिए। उन्होंने अगले दिन सुबह 11 बजे फोन करने को कहा। 

अगले दिन सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा करते हुए कुछ प्रश्न तैयार करना आरंभ किया। तैयार कर भी लिया। अगे दिन 11 बजते ही फोन मिला दिया। श्याम बाबू ने फोन उठाकर कहा कि आप समय के पाबंद हैं यह जानकर खुशी हुई। अब उनको मैं क्या कहता कि मैं तो सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। हाल-चाल पूछकर बोले कि बताइए क्या पूछना है। मैंने श्याम बाबू से कहा कि आप समांतर सिनेमा के आरंभिक निर्देशकों में माने जाते हैं तो क्या आप लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से एक विशेष तरह की फिल्में बनानी शुरू कीं। आपलोगों ने जिस तरह से हिंदी फिल्मों में आम लोगों का प्रवेश करवाया क्या उसके पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा थी। आगे कुछ बोलता इसके पहले वो बोले कि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि समांतर सिनेमा को पहचान एक बहुत ही दिलचस्प कारण से मिली। आपको एक प्रसंग बताता हूं। मैंने जब अंकुर फिल्म बनाई थी तो सत्यजित राय को दिखाई थी। फिल्म देखने के बाद राय साहब ने जानना चाहा था कि अंकुर से मेरी क्या अपेक्षा है। तब मैंने उनको बताया था कि मेरी अपेक्षा बस इतनी है कि ये फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमा हाल में सप्ताह भर चल जाए। तो उन्होंने कहा था कि एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी ये फिल्म। उस समय मुझे लगा था कि सत्यजित राय साहब ने मेरे उत्साहवर्धन के लिए ऐसा कहा था। उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ। मेरी फिल्म इरोस में पहली बार दिखाई गई। संभवत: वो पहली हिंदी फिल्म भी थी जो इरोस में दिखाई गई। इसमें ना तो मेरा कोई योगदान था और ना ही सिनेमाघऱ के मालिक की उदारता। 

हुआ ये था कि उन दिनों इरोस समेत दक्षिण मुंबई के सिनेमाघरों में अमेरिकी फिल्में चला करती थीं। उन सिनेमाघरों में हिंदी की फिल्में नहीं दिखाई जाती थीं। 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों की बात थी। भारत सरकार ने हालीवुड की फिल्मों के आयात पर आंशिक पाबंदी लगा थी। सरकार ने एक संख्या तय कर दी थी कि इतनी ही अमेरिकी फिल्में आयात होकर भारत के सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है। सरकार में बैठे लोगों का सोच था कि इससे भारतीय फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी मुद्रा विनिमयन की भी सीमा तय कर दी गई थी। परिणाम ये हुआ कि दक्षिण मुंबई के अलावा अन्य महानगरों के सिनेमाघरों में दिखाने के लिए हालीवुड की फिल्में कम हो गईं। सिनेमाघरों के स्क्रीन खाली होने लगे। ये वही समय था जब मेरी और मेरे जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशकों की फिल्में आने लगीं। हमें इन महानगरों के सिनेमाघरों में एक संभावना नजर आई। हमने उनसे संपर्क कर अपनी फिल्में वहां दिखानी आरंभ की। हमें स्क्रीन मिलने लगे और सिनेमाघर मालिकों को फिल्में। जो दर्शक अंग्रजी फिल्में देखने इन सिनेमाघरों में आते थे वही दर्शक हमारी फिल्मों को मिलने लगे। समाज में हमारी फिल्मों की चर्चा होने लगी। अंग्रजीदां लोगों को हमारी फिल्में अच्छी लगने लगीं और फिर समांतर सिनेमा, वैकल्पिक सिनेमा या नया सिनेमा जैसी संज्ञा हमारी फिल्मों को मिले। जब महानगरों में ये फिल्में दिखाई जाने लगीं तो अंग्रेजी मीडिया ने भी हमारी फिल्मों पर लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह से समांतर सिनेमा को एक पहचान मिली। ये पहचान बाद में देशव्यापी हुई। श्याम बाबू इसके बाद हंसे और बोले कि कुछ अन्य कारण भी थे जिसके कारण हमारी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से अलग दिखती थीं। दरअसल उस समय मुख्यधारा की जो फिल्में बन रही थीं उनमें कहानियां और ट्रीटमेंट कमोबेश एक जैसे होते थे जिससे दर्शक उबने लगे थे। आपको याद रखना चाहिए था कि ये वही दौर था जब अमिताभ बच्चन का भी उदय हो रहा था। कहानियां और कहानी कहने का अलग अंदाज भी एक कारण थे जिसको ना केवल समांतर सिनेमा ने अपानाया बल्कि मुख्यधारा की फिल्मों में भी वो बदलाव दिखा। लंबी बात हो गई थी। मेरे पास कई प्रश्न शेष थे लेकिन श्याम बाबू ने कहा कि अगली बार जब मुंबई आएं तो मिलें। बैठकर बातें करेंगे। अफसोस कि श्याम बाबू से बातें अधूरी रह गईं। मुंबई जाना होगा लेकिन अब उनसे मिलना नहीं पाएगा। उनके निधन ने मुझसे ये अवसर छीन लिया। 

श्याम बेनेगल जी से बात करने के बाद समांतर सिनेमा को देखने का मेरा नजरिया बदला। ये भी लगा कि किस तरह से वामपंथी विचारधारा के लोग किसी भी चीज को लेबल कर देते हैं । इसमें उनका पूरा ईरोसिस्टम कार्य करता है। श्याम बाबू की बातों को सुनने के बाद राज कपूर का एक इंटरव्यू याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मैसेज देने या समाज को बदलने आदि के लिए कोई फिल्म नहीं बनाते हैं। उनको जो कहानी अच्छी लगती है उसका फिल्मांकन करते हैं। फिल्मों को श्रेणीबद्ध तो फिल्म समीक्षक करते हैं। 


Monday, December 23, 2024

सत्यजित राय से प्रभावित थे श्याम बेनेगल


स्वाधीन भारत में जिन कुछ फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों से हटकर समांतर सिनेमा की शुरुआत की उनमें श्याम बेनेगल प्रमुख हैं। 1973 में जब श्याम बेनेगल की पहली फिल्म अंकुर प्रदर्शित हुई तबतक उनका संघर्ष बहुत लंबा हो चुका था। करीब 12 वर्षों के बाद उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा हो सका। श्याम बेनेगल ख्यात फिल्मकार सत्यजित राय को अपना गुरु मानते थे। बेनेगल ने एकाधिक बार ये माना कि उनपर सत्यजित राय का गहरा प्रभाव था। वो सत्यजित राय की तरह की ही फिल्में बनाना चाहते थे। जब फिल्म अंकुर की एडिटिंग हो रही थी को श्याम बेनेगल ने सत्यजित राय को बांबे (अब मुंबई) बुलाकर फिल्म दिखाई थी। मुंबई के बुडहाउस रोड और कोलाबा के बीच एक छोटे से थिएटर में सत्यजित राय ने अंकुर देखी थी। फिल्म देखने के बाद सत्यजित राय ने खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने श्याम बेनेगल से पूछा था कि इस फिल्म से तुम्हारी क्या अपेक्षा है?  बेनेगल ने उत्तर दिया था कि वो चाहते हैं कि फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमाघर में सप्ताह भर चले। तब सत्यजित राय ने कहा था कि ये एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी। राय का कथन सही साबित हुआ था। इस फिल्म से श्याम बेनेगल को फिल्मकार के रूप में पहचान मिली। 

श्याम बेनेगल को इंदिरा गांधी पसंद करती थीं। उनकी फिल्म अंकुर की वो प्रशंसक थीं। कहा जाता है कि विदेशी राजनयिकों को वो अंकुर दिखाया करती थीं। इमरजेंसी के दौरान 1976 में जब श्याम बेनेगल की फिल्म निशांत आई तो भारत सरकार ने उसको प्रतिबंधित कर दिया। भारत में इस फिल्म पर प्रतिबंध था लेकिन अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में फिल्म निशांत पसंद की जा रही था। कान फिल्म महोत्सव में तो इस फिल्म को आडियंस अवार्ड भी मिला था। इस फिल्म को भारत में पदर्शित करने के लिए सत्यजित राय ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा । इंदिरा गांधी ने फिल्म मंगवा कर देखी। फिल्म देखने के बाद उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला को प्रतिबंध हटाने का उपाय ढूंढने को कहा। शुक्ला को जब पता चला कि बेनेगल सीधे इंदिरा गांधी तक पहुंच गए हैं तो आगबबूला हो गए। उन्होंने बेनेगल को अपने दफ्तर में बुलावाया और काफी देर तक कार्यालय में खड़े रहने को मजबूर किया। बाद में कुछ शर्तों के साथ प्रतिबंध हटाने का आश्वासन दिया। प्रतिबंध हटा। पर फिल्म के पहले एक सूचना देनी पड़ी कि इस फिल्म की घटनाएं स्वाधीनता पूर्व के भारत की हैं। फिल्म प्रदर्शित हुई। श्याम बेनेगल ने कई बेहतरीन फिल्में बनाई लेकिन उनको याद किया जाएगा उन फिल्मों के लिए जिसमें उन्होंने सामाजिक विषमता दिखाई। 


Saturday, December 21, 2024

रखरखाव की बाट जोहते वैश्विक धरोहर


हाल ही में मुंबई के इंडिया गेट के पास फेरी हादसा हुआ। ये दुखद घटना थी। इस घटना के साथ ही स्मरण हो आया कुछ समय पहले की मुंबई से फेरी से एलिफेंटा की यात्रा। मुंबई के अपोलो बंदर, जो अब गेटवे आफ इंडिया के नाम से ज्यादा जाना जाता है, से अरब सागर स्थित एलिफेंटा द्वीप तक की यात्रा। जहां लोग फेरी से आते-जाते हैं। मुंबई के गेटवे आफ इंडिया से एलिफेंटा तक जाने में करीब घंटे भर का समय लगता है। अरब सागर की लहरों पर हिचकोले खाती फेरियों में सावधानी से बैठे रहना पड़ता है। जब फेरी एलिफेंटा तक पहुंचती है तो ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। पुर्तगालियों ने इस द्वीप का नाम एलिफेंटा दिया। इस द्वीप पर हाथी की एक विशालकाय प्रतिमा थी जो अब मुंबई के माता जीजाबाई उद्यान में रखी गई है। एलिफेंटा द्वीप पर पहुंचने पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है कि एलिफेंटा द्वीप मूलत घारापुरी के नाम से जाना जाता है। एलिफेंटा का नाम यहां से प्राप्त शैलकृत एक विशाल हाथी के कारण रखा गया है। इस बोर्ड से ही ये ज्ञात हुआ कि आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई)द्वारा इन गुफाओं को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक अधिसूचना क्रमांक -2704-अ-दिनांक 26.5.1909 द्वारा घोषित किया गया है। तत्पश्चात यूनेस्को द्वारा विश्वदाय स्मारकों की सूची में एलिफेंटा गुफाओं को 1987 में शामिल किया गया है। ये गुफाएं औरर यहां मौजूद मूर्तियां इतनी महत्वपूर्ण है कि इसको वर्ल्ड हैरिटेज साइट माना गया।

अब जरा इस द्वीप की ऐतिहासिकता और यहां प्रदर्शित कला के बारे में जान लेते हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि 1579 में इस द्वीप पर जे एच वान नाम का एक यूरोपियन आया था जिसने अपनी पुस्तक डिस्कोर्स आफ वायजेज में इस द्वीप का उल्लेक पोरी के तौर पर किया गया है। इसके आधार पर भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि सोलहवीं शती में इस द्वीप को पुरी के नाम से जाना जाता होगा। इस द्वीप के नाम को लेकर इतिहासकारों में कई तरह की राय है। एलिफेंटा में पुरातात्विक खोज के दौरान एक ताम्र घट मिला था। उस घट पर जोगेश्वरी देवी के श्रीपुरी में बना, ऐसा उत्कीर्ण है। इसके आधार पर कुछ लोगों का मत है कि इस द्वीप को श्रीपुरी के नाम से जाना जाता होगा। जोगेश्वरी मुंबई महानगर में एक स्थान है। स्थानीय लोग इसको घारापुरी कहते हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बोर्ड पर भी ऐसा ही लिखा है। घारा को कुछ लोग शैव मंदिरों के पुजारी से भी जोड़ते हैं। क्योंकि शिव मंदिर के पुजारियों को घारी कहा जाता था। इस द्वीप की गुफाओं में शिव के कई स्वरूप की मूर्तियां हैं।संभव है कि वहां पुजारियों की संख्या काफी रही होगी जिसके आधार पर घारापुरी नाम से जाना जाता होगा। 

घारापुरी की गुफाओं में स्थित जिस एक मूर्ति के बारे में चर्चा करना आवश्यक लगता है उसको त्रिमूर्ति कहते हैं। यह अद्भुत मूर्ति है। इसमें शिव के तीन दिशाओं में तीन सर और चेहरा हैं। इस मूर्ति में जटा का विन्यास इस तरह से किया गया है कि वो भव्य मुकुट का आभास देता है। सामने शिव का जो चेहरा है वो बेहद गंभीर मुद्रा में है और उसके होठ बहुत मोटे और लटके हुए हैं। आमतौर पर इस तरह के होठ वाली मूर्तियां कम मिलती हैं।  इतिहासकार राधाकमल मुखर्जी के अनुसार इस मूर्ति के बीच का मुख निरपेक्ष और पारलौकिक तत्पुरुष सदाशिव का है। दायां चेहरा उग्र, भृकुटि ताने हुए और विनाश व वैराग्य की भावना वाले अघोरभैरव का है और बांयी ओर पार्वती का चेहरा है। मुखर्जी ने अपने लेख प्रतीक और प्रतिमान में लिखा है कि यह त्रिमूर्ति-स्वरूप एक समय भारत तथा गांधार, तुर्किस्तान और कंबोडिया में सुपरिचित था। चीन की युन-थाल गुफा में इसको पाया गया है तथा जापान की दाई इतोक यही है। यह शिव त्रिमूर्ति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट विषय वस्तु का अद्वितीय और व्याक प्रतीक है। कुछ लोग इस त्रिमूर्ति को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की तरह देखते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर लोग मुखर्जी से सहमत हैं। जहां शिव की ये त्रिमूर्ति स्थित है उस कक्ष के बाहर दो द्वारपाल की मूर्तियां भी हैं। इस त्रिमूर्ति के अलावा घारापुरी में कई अन्य मूर्तियां भी हैं जो भारतीय कला की श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं। इन मूर्तियों में अर्धनारीश्वर शिव की भी एक मूर्ति है। मंडप के सम्मुख गर्भगृह में पूर्वी द्वार की ओर एक बड़ा सा शिवलिंग है। इन मूर्तियों की खास बात है कि इनको पहाड़ियों को काटकर बनाया गया है। एक शिवलिंग को छोड़कर सभी मूर्तियां पहाड़ी को काटकर बनाई गई है। शिवलिंग का पत्थर अलग प्रतीत होता है । ऐसा लगता है कि इसको कहीं बाहर से लाकर वहां प्रतिष्टइत किया गया होगा।

इतने विस्तार में घारापुरी स्थित मूर्तियों का विवरण इस कारण से दिया ताकि इस बात का अनुमान हो सके कि देश के विभिन्न हिस्सों में कितनी ऐसी चीजें हैं जो ना केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि भारतीय कला का उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं। जो लोग भारतीय कला को नेपथ्य में रखकर फ्रांसीसी, पुर्तगाली और मुगलकालीन कला पर लहालोट होते रहते हैं उनको घारापुरी की कलाकृतियों को देखकर उसपर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। एक और बात जिस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है वो इन विरासत का संरक्षण। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल घारापुरी की इन गुफाओं की उचित देखभाल नहीं हो रही है। यहां पहुंचने वाले पर्यटक आसानी से इन प्रतिमाओं तक पहुंच जाते हैं। ना केवल वहां खड़े होकर फोटो खींचते हैं बल्कि चाक आदि से दीवारों पर कुछ लिख भी देते हैं। नागरिकों को अपने कर्तव्य समझने चाहिए । विरासत को संरक्षित करने रखने में सहयोग करना चाहिए। दूसरी तरफ एएसआई को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि पर्यटक इन कलाकृतियों को दूर से देखें। कुछ मूर्तियों को घेरा गया है लेकिन वो नाकाफी है। इसके अलावा परिसर का रखरखाव भी एएसआई की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। वहां उपस्थितत कर्मचारी या गार्ड इन कलाकृतियों को लेकर संवेदनहीन दिखे। उनको इस बात का एहसास ही नहीं था कि उनपर वैश्विक धरोहर के रखरखाव का दायित्व है। कलाकृतियां भी रखरखाव की बाट जोहती प्रतीत हो रही थीं। पहले भी इस स्तंभ में कोणार्क मंदिर और त्रिपुरा के उनकोटि परिसर के रखरखाव में लापरवाही को लेकर लिखा जा चुका है। हमारे ये धरोहर उपेक्षा का शिकार होकर नष्ट होने की ओर बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर अपनी विरासत के संरक्षण की बातों पर जोर दे रहे हैं लेकिन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था एएसआई अन्यान्य कारणों से संरक्षण में पिछड़ जा रही है। देश में एक ऐसी संस्कृति नीति की आवश्यकता है जिसमें धरोहरों के संरक्षण को प्रमुखता दी जाए। अधिकारियों का एक अखिल भारतीय काडर बने जो कला संस्कृति और धरोहरों को लेकर विशेष रूप से प्रशिक्षित हों। औपनिवेशक काल की व्यवस्था से बाहर निकलना होगा। आज संस्कृति मंत्रालय का दायित्व वन से लेकर डाक सेवा के अधिकारियों पर है। वन, डाक, रेल और राजस्व की तरह ही कला संस्कृति को नहीं चलाया जा सकता है। 


प्रेम और रोमांस का कुशल चितेरा


राज कपूर एक ऐसे फिल्मकार थे जो अपनी जिंदगी में घटित घटनाओं को अपनी फिल्मों में इस तरह पिरोते थे कि वो कहानी का बेहद दिलचस्प हिस्सा हो जाता था। दो फिल्मों का जिक्र जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की घटनाओं को फिल्मों में रिक्रिएट किया। संगम फिल्म में एक सीन है। राज कपूर जब वैजयंतीमाला के पहनने के लिए गहना निकाल रहे होते हैं तो उनको एक पत्र मिलता है। वो उसको पढ़ना चाहते हैं। अचानक फोन की घंटी बजती है और वैजंयतीमाला उनके हाथ से कागज छीनकर दूसरे कमरे में चली जाती है। फोन पर बात करते-करते वो उस कागज को फाड़कर खिड़की से बाहर फेंक देती है। राज कपूर ये देख लेते हैं। दोनों पार्टी में जाने के लिए निकलते हैं तो राज कपूर रुमाल भूलने का बहाना करके वापस लौटते हैं। खिड़की के बाहर फटे कागज को उठाने लगते हैं। वैजंयतीमाला को शक होता है। वो वापस कमरे में आती है। दोनों में झगड़ा होता है। ये सब राज कपूर की असली जिंदगी में घटित हुआ था जिसको उन्होंने फिल्म संगम में उतार दिया। 1955 में राज और नर्गिस फिल्म चोरी चोरी की मद्रास (अब चेन्नई) में शूटिंग कर रहे थे। एक होटल में रुके थे। दोनों एक पार्टी में जानेवाले थे। देर हो रही थी। वो नर्गिस के पास पहुंचे तो देखा उसके हाथ में एक कागज था। राज ने कागज के बारे में पूछा कि ये क्या है। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहकर नर्गिस ने कागज को फाड़ कर फेंक दिया। जब दोनों कार तक पहुंचे तो राज रुमाल भूलने का बहाना बनाकर वापस उसी जगह पहुंचे और डस्टबिन से फटे हुए कागज उठाकर अपने कमरे की दराज मे रख दिया। पार्टी से लौटेने के बाद राज ने फटे कागजों को जोड़कर पढ़ा। वो शाहिद लतीफ नाम के एक प्रोड्यूसर का प्रणय निवेदन था। दोनों में जबरदस्त झगड़ा होता है। राज कपूर ने अपनी जिंदगी की इस सच्ची घटना को संगम फिल्म में रख दिया। 

दूसरी घटना भी नर्गिस से ही जुड़ी हुई है। नर्गिस अपनी मां के साथ बांबे (अब मुंबई) के चित्तो मैंशन में रहती थीं। एक दिन राज कपूर उनके घर पहुंचे और उन्होंने घंटी बजाई। थोड़ी देर बाद एक सुंदर सी लड़की ने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसने अपने हाथ से बाल ठीक किए। वो सीधे रसोई से आई थी और उसके हाथ में बेसन लगा हुआ था। जब वो बाल ठीक कर रही थीं तो गीला बेसन उनके बालों में लग जाता है। राज कपूर के मन पर ये सुंदर दृश्य अंकित हो जाता है। वर्षों बाद जब वो बाबी फिल्म बनाते हैं तो ये दृष्य डिंपल कपाड़िया पर फिल्माते हैं। 

राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। 

शैलेन्द्र और राज कपूर के मिलने की दिलचस्प कहानी है। स्वाधीनता का संघर्ष अपने चरम पर था। बांबे (अब मुंबई) में प्रोफेशनल राइटर्स एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में शैलेन्द्र ने एक गीत गाया था, मेरी बगिया में आग लगा गया रे गोरा परदेशी। वहां राज कपूर भी थे। कार्.क्रम के बाद राज ने  शैलेन्द्र से अपनी फिल्म आग के लिए गीत लिखने का अनुरोध किया। शैलेन्द्र ने ये रहकर मना कर दिया कि वो पैसे के लिए कविता नहीं लिखते हैं। बात आई गई हो गई। आग के बाद जब राज कपूर अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे। एक दिन शैलेन्द्र उनके महालक्ष्मी वाले आफिस में पहुंचे। राज कपूर से मिलकर बोले शायद आप मुझे पहचान रहे हों। मेरी पत्नी गर्भवती और बीमार है, मुझे 500 रुपयों की आवश्यकता है। कुछ दिनों के लिए उधार दें। मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। दो तीन महीने में वापस कर दूंगा। राज कपूर ने उनको रुपए दे दिए। दो महीने बाद शैलेन्द्र पैसे वापस करने आए। राज कपूर ने वापस लेने से मना कर दिया, बोले कि आपकी जरूरत के समय पैसे दिए थे मैं साहूकार नहीं कि पैसे देकर वापस लूं। स्वाभिमानी शैलेन्द्र को ये बात जंची नहीं। उन्होंने कहा कि मैं कर्ज कैसे उतारूं। राज कपूर ने हंसते हुए कहा कि अगर कर्ज उतारना चाहते हैं तो मेरी फिल्म बरसात के लिए गीत लिख दें। शैलेन्द्र ने बरसात के लिए दो गीत लिखे। राज की अगली आवारा के गीत लिखने के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के कहने पर उन्होंने आवारा के गीत लिखे। शैलेन्द्र और राज कपूर की मित्रता इस तरह से प्रगाढ़ हुई। 

फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। इसका संकेत उनकी फिल्म के आरंभ में भी मिला करता था जहां उनके पिता पृथ्वीराज कपूर के शिवलिंग के सामने बैठकर श्लोक पढ़ने के दृष्य से होता था।


Sunday, December 8, 2024

मेरा नाम राजू...


दस ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों की झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढंक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखा। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवारवालों को सुनाया। मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरीटेलर राज कपूर था। कहना ना होगा कि राज कपूर में बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। 

राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयता के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था। आवारा में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृष्यों को जीवंत किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरनी उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद की फिल्मों में भी राज कपूर भारतीय जीवन के यथार्थ से टकराते रहे। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे। 

राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर जिस देश में गंगा बहती है बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो राम तेरी गंगा मैली तक निरंतर बढ़ता चला गया। इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण जुगुप्साजनक होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है संगम। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े। लेकिन कलाकार मन फिर से दर्शन की ओर लौटने को बेताब था। 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा। यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म बाबी आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। बाबी के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता निर्देशकों के हाथ लग गया। नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। संगम में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन जब मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत के उत्तेजक दृष्यों को नकारा। फिर राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई। 1982 में जब राज ने प्रेम रोग बनाया तो इस फिल्म में सामतंवादी रूड़ियों पर प्रहार तो था लेकिन एक सुंदर प्रेम कहानी भी गढ़ी गई थी।

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि राज कपूर ने अपनी और अपने फिल्मों की अलग जगह उस समय बनाई जब महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। देवानंद, दिलीप कुमार और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार निरंतर सफल हो रहे थे। समाजिक यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण राज कपूर ने तैयार किया जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घोली कि दर्शक चार दशकों तक उसके प्रभाव में रहा। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शौ मैन का स्मरण पर्व भी है। 


Saturday, December 7, 2024

सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा का सच


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों की महत्ता को रेखांकित किया था। मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि माना जाता है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए सबसे अच्छी जगह पुस्तकालय है। इस क्रम में उन्होंने चेन्नई से लेकर देश के अन्य हिस्सों में स्थापित पुस्तकालयों का ना केवल उल्लेख किया बल्कि उसको रचनात्मकता के केंद्र के रुप में विकसित करने पर बल भी दिया। इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने बिहार के गोपालगंज के प्रयोग पुस्तकालय की भी चर्चा की। इस पुस्तकालय की चर्चा से आसपास के जिलों में उत्सुकता का वातावरण बना है। प्रयोग पुस्तकालय जिले के 12 गावों के युवाओं को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है। प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को ज्ञान के केंद्र में रूप में भी रेखांकित किया और लोगों को पुस्तकों से दोस्ती करने का आह्वान भी किया। उनका मानना है कि पुस्तकों से दोस्ती करने पर आपकी जिंदगी बदल सकती है। इसके पहले अपने गुजरात के अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गांधीनगर के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने भी पुस्तकालयों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने पुस्तकालयों के प्रभारियों के साथ एक बैठक भी की। अमित शाह ने कहा कि देश के भविष्य को संवारने में पुस्तकालयों की बड़ी भूमिका है। गृहमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के सभी पुस्तकालों को दो -दो लाख रुपए देने की भी घोषणा की। उन्होंने पुस्तकालयों को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि तकनीक के उपयोग को बढ़ाकर व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अमित शाह ने प्राचीन ग्रंथों को आनलाइन उपलब्ध करवाने का भी आग्रह किया। इसके पहले राष्ट्रपति ने भी पुस्तकालयों को लेकर अपनी अपेक्षा जाहिर की थी। 

प्रधानमंत्री ने 24 नवंबर 2024 को मन की बात कार्यक्रम में पुस्तकालयों पर अपनी राय रखी और अगले ही दिन यानि 25 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए कोलकाता स्थित राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक प्रभारी को मुक्त करके दूसरे प्रभारी की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। नेशनल लाइब्रेरी के महानिदेशक ए पी सिंह को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का छह महीने या नियमित नियुक्ति जो भी पहले हो, तक प्रभार दे दिया गया। ये आदेश संस्कृति मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किया गया। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री का लाइब्रेरी पर बोलना और 25 नवंबर को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक के प्रबार संबंधित आदेश जारी होना एक संयोग हो सकता है, लेकिन संयोग सुखद है। फिर वही प्रश्न कि प्रभारियों के जरिए सांस्कृतिक संस्थाओं का काम कब तक चलता रहेगा। पता नहीं कब से राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक पर नियमित अधिकारी नहीं हैं। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन देश में पुस्तकालयों की नोडल संस्था है। उसका ये हाल है तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की पुस्तकालयों को लेकर देखे जा रहे स्वप्न का क्या होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। प्रभारी तो बस संस्था को चलायमान रख सकते हैं। उनसे किसी नवाचार, किसी नए प्रकल्प की आशा व्यर्थ है। उनका प्राथमिक दायित्व तो अपनी मूल संस्था के प्रति होता है। पुस्तकालयों की नोडल संस्था में नियमित महानिदेशक का नहीं होना संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर बड़े प्रश्न खड़े करता है। 

राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को लेकर संस्कृति मंत्रालय कितनी गंभीर है इसको इस घटना से भी समझा जा सकता है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के सदस्यों की एक बैठक करीब दो वर्ष बाद 25 सितंबर 2024 को हुई। नवनियुक्त सदस्यों की ये पहली बैठक थी। इस बैठक में पिछले वर्ष के निर्णयों का अनुमोदन होना था। फाउंडेशन पुस्तकों की खरीद भी करता है। इस बैठक में पुस्तकों की सूची अनुमोदन के लिए आई तो कुछ सदस्यों ने उसपर आपत्ति जताई। संस्कृति मंत्री इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने इस मसले को देखने का आश्वासन दिया। आश्वासन तो इस बात का भी दिया गया था कि पुस्तकों की सरकारी खरीद के नियमों को पारदर्शी बनाया जाए। मजे की बात ये रही कि बैठक को दो महीने से अधिक समय बीत गया लेकिन इसका मिनट्स अबतक सदस्यों के पास नहीं पहुंचा है। जब मिनट्स ही नहीं बना तो बैठक में लिए गए निर्णयों का क्या हुआ होगा, इसकी जानकारी की अपेक्षा तो व्यर्थ ही है। दरअसल फिल्म द कश्मीर फाइल्स का वो संवाद बेहद सटीक है, सरकार भले ही तुम्हारी है लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भले ही 11 वर्षों से चल रही है लेकिन सिस्टम में बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। 

सिस्टम के नहीं बदलने का ही एक और उदाहरण है। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नियमों में सख्ती। बताया जा रहा है कि सख्ती के बाद कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत नहीं आ सकता। अगर कोई शास्त्रीय गायन या नृत्य के कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसको सीएसआर के अंतर्गत नहीं माना जाएगा। पहले साहित्य, कला और संस्कृति के आयोजन इस योजना के अंतर्गत आते थे। अब साहित्य को लेकर नियम इतने कड़े कर दिए गए हैं कि किसी कार्यक्रम में पुस्तकों का वितरण बेहद कठिन हो गया है। कल्पना कीजिए कि समाज के पढ़े लिखे लोगों के बीच एक पुस्तक चर्चा रखी गई। लेखक से पुस्तक पर चर्चा करने के बाद आमंत्रित सदस्यों को उनकी पुस्तक भेंट की जाती थी। पहले ये पूरा कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत आता था और खर्चे की औपचारिकताएं बिल आदि जमा कर पूरी कर ली जाती थीं। अब ये कर दिया गया है कि जो भी किसी वस्तु का एंड यूजर होगा यानि कि जिसको भी आयोजक संस्था की ओर पुस्तक भेंट की जाएगी उसका नाम और फोन नंबर आयोजक को संबंधित सरकारी विभाग के पास जमा करना होगा। सायकिल वितरण में तो इस तरह का प्रविधान उचित है लेकिन साहित्यिक कार्यक्रमों में पुस्तक वितरण में ये बाधा है। स्कूलों में पुस्तक वितरण में तो ये दायित्व स्कूल उठा लेते हैं। ये सहजता के साथ संपन्न हो जाता है, लेकिन आयोजनों में एक किताब गिफ्ट देने पर फार्म भरवाना कठिन सा होता है। ये व्यावहारिक दिक्कतें हैं। पिछले 10 वर्षों में अधिक पुस्तकें तो भारतीय विचार और विचारधारा की प्रकाशित हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके कार्यों पर प्रकाशित हो रही हैं। प्रश्न ये उठता है कि क्या ईकोसिस्टम भारतीय विचार के पुस्तकों के पाठकों तक पहुंच में नियमों के जरिए बाधा खड़ी कर रहा है। सीएसआर के नियमों में पुस्तकों को लेकर उदारता बरतनी चाहिए। नियम बनाने वालों को इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सोच को और विजन को अमली जामा पहनाया जा सके। लोगों और पुस्तकालयों तक पुस्तकें पहुंचे इसके लिए आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय पुस्तकालयों की नोडल संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को सक्रिय करे। प्रतिवर्ष नए और उच्च स्तर की पुस्तकें खरीद कर पुस्तकालयों में भेजी जाएं। संस्थाओं को प्रभारियों से मुक्त करके नियमित नियुक्ति की जाए ताकि जो भी व्यक्ति वहां नियुक्त हो उसकी प्राथमिकता में पुस्तकालयों की बेहतरी हो। 

Tuesday, December 3, 2024

साहब बीबी और गुलाम


विमल मित्र के उपन्यास पर साहिब, बीबी और गुलाम नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म कर्म में आस्था रखनेवाली घरेलू महिला का अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पीते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही। इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा सीन वो जिसमें वो अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो केवल अंतिम बार। मैंने छोड़ने का निश्चय किया है, पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया है। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए। फिल्म के उत्तरार्ध के एक सीन को बदलने को लेकर गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख कैश एंड क्लासिक्स में लिखा था। 

विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित फिल्म साहिब, बीबी और गुलाम को गुरुदत्त ने बनाया था।  अपने प्रदर्शन पर इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। गुरुदत्त ने इस फिल्म में ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया था। आज से छह दशक पहले इस तरह के विषयों को फिल्मी पर्दे पर उतारने की बात सोच पाना भी मुश्किल था। गुरुदत्त ने सोचा भी और किया भी। छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने जब शादी करके जमींदार चौधरी के परिवार में हवेली में प्रवेश करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है। उसका नाम हवेली की देहरी के बाहर रह जाता है और वो बन जाती है छोटी बहू। जिससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो जमींदार चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहे। वो रहती भी है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए सारे जतन करती है। पति पर पूरा भरोसा करती है लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकती हैं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है। वो पति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए तमाम तरह के जतन करती है। स्त्री यौनिकता के बारे में भी पति से खुल कर बात करती है जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृष्यों को साहब बीबी और गुलाम में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। पहले भी कुछ लोगों ने इसपर चर्चा की होगी। 

इस तरह के विषय आज सामान्य लग सकते हैं। लेकिन 1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृष्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाते। उनको झटका लगा था। आज ये सामान्य बात है। मिर्जापुर वेबसरीजीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद है। जिसका नोटिस भी नहीं लिया जाता। अभिनेता पंकज त्रिपाठी जिसने अखंडानंद त्रिपाठी का अभिनय किया है और उसकी पत्नी बीना त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाली रसिका दुग्गल के बीच भी कुछ दृश्यों में साहिब बीबी और गुलाम के छोटे बाबू और छोटी बहू जैसा संवाद है। दर्शक इन दृष्यों को और संवाद को सहजता के साथ लेता है। समाज बदल गया है। दर्शकों की मानसिकता बदल गई है। स्त्री यौनिकता पर समाज में खुलककर बात होने लगी है। जब गुरुद्दत ने ये सोचा था तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में ये सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं वो फिल्मों में बाद में आते हैं। 

साहिब बीबी और गुलाम एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया है लेकिन इस पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था पर वो भी नहीं आए। अंत में उन्होंने खुद ये भूमिका निभाई। इसी तरह से छोटी बहू की भूमिका को लेकर नर्गिस से संपर्क किया गया था। गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेन्द्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वो लोग लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं तो वो निराश हो गए और उनको मना कर दिया। इतना ही नहीं गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस डी बर्मन से करवाना चाहते थे लेकिन वो अपनी बीमारी के कारण कर नहीं सके तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया तो शकील बदायूंनी से गीत लिखवाए गए। सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी उसने एक ऐसी फिल्म दी जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए न सिर्फ देखी जाती है बल्कि छात्रों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं। 

Saturday, November 30, 2024

आरंभिक भारतीय फिल्मों से बदलेगा इतिहास


गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया। इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी। ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता। 

एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है। नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत। फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है। इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है। 

हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी। उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे। 

जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी। अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ। कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।    


Saturday, November 23, 2024

नेहरू से मोदी युग के साहित्य पर विमर्श


हिंदी साहित्य में नेहरू युग या नेहरू के विचारों के प्रभाव की खूब चर्चा हुई है। नेहरू के बाद इंदिरा युग की भी चर्चा रही। आपातकाल को लेकर कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी के शासनकाल को परखने का प्रयास किया लेकिन अधिकतर वामपंथी लेखकों ने इंदिरा गांधी के संविधान को ध्वस्त कर आपातकाल लगाने के निर्णय को लेकर बहुत तीखी आलोचना नहीं की। नागार्जुन ने देश में आपातकाल लगाने के पहले ही इंदिरा गांधी के अंदर के अधिनायकवादी प्रवृत्ति को पहचान लिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा था उसके दो वर्ष पूर्व ही नागार्जुन ने ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी बहुत तीखी कविता लिखी थी। इस कविता को प्रगतिशील आलोचकों ने बहुत करीने से दबा दिया। उसकी चर्चा ही नहीं होने दी। आनेवाली पीढ़ी को ये बताने का प्रयास हुआ कि नागार्जुन स्वभाव से प्रगतिशील कवि थे। इस धारणा को पुष्ट करनेवाली नागार्जुन की कविताओं की ही चर्चा की गई। ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी कविता में नागार्जुन ने इंदिरा गांधी और उनके क्रियाकलापों पर कठोर टिप्पणी की थी। अपनी इस कविता में नागार्जुन ने ना सिर्फ महंगाई को लेकर इंदिरा गांधी पर प्रहार किया था बल्कि उनको ठगों और उचक्कों की मलकाइन तक कह डाला था। पंक्तियां देखिए, महंगाई का तुझे पता क्या/जाने क्या तू पीर पराई/इर्द गिर्द बस तीस हजारी/साहबान की मुस्की छाई/तुझ को बहुत बहुत खलता है/’अपनी जनता’ का पिछड़ापन/महामूल्य रेशम में लिपटी/यों ही करती जीवन-यापन/ठगों- उचक्कों की मलकाइन/प्रजातंत्र की ओ हत्यारी/अबके हमको पता चल गया है/है तू किन वर्गों की प्यारी । यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नागार्जुन ने आपातकाल की घोषणा के पूर्व ही इंदिरा गांधी को प्रजातंत्र की हत्यारी कहा था। इंदिरा युग में इस तरह के साहित्य को जानबूझकर ओझल कर दिया गया। तू किन वर्गों को प्यारी से नागार्जुन कटाक्ष कर रहे हैं कि किस तरह से आम आदमी की बात करते करते वो धनाढ्य लोगों के पक्ष में खड़ी हो गईं। 

नेहरू युग में हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकारों ने आधुनिकतावादी कम्युनिस्ट विचार ने ‘धर्म को अफीम’ बताया। जबकि मार्क्स ने उसको अफीम बताने के साथ मानव के दुखी मन का आर्तनाद भी बताया था लेकिन आधुनिकतावादियों और कम्युनिस्टों ने इस दुखी मन के मर्म को न कभी समझा न कभी सहलाया और वृहत्तर हिंदू समाज को क्रमिक तरीके से अपने से दूर कर दिया और अन्तत: खो दिया। ये बातें हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने सेतु प्रकाशन से प्रकाशित अपनी पुस्तक, हिंदी साहित्य के 75 वर्ष : नेहरू युग से मोदी युग तक में लिखी है। नेहरू युग से लेकर राजीव गांधी के दौर तक कम्युनिस्टों की चुनिंदा मामलों पर खामोशी से भी हिंदी साहित्य लेखन का सत्य से आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। स्वाधीनता के समय जो देश विभाजन हुआ उसको हिंदी के अधिकतर साहित्यकारों ने अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। दो चार लेखकों को छोड़कर मानवता के इतिहास की इतनी बड़ी घटना को कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हिंदी के लेखकों ने अपनी कृतियों का विषय नहीं बनाया। सुधीश पचौरी प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी के अधिकतर लेखक आश्विट्ज, जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को गैस चैंबर में मौत के घाट उतार दिया था, को तो याद करते हैं लेकिन उन्हें विभाजन की विभीषिका परेशान नहीं करती। मुक्तिबोध जैसा क्रांतिकारी कवि भी विभाजन की विभीषिका पर निरपेक्ष ही नजर आता है। इसका उत्तर भी मिलता है जब लेखक कहता है कि कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन स्वयं टू नेशन थ्योरी पर आधारित थी। वह स्वयं प्रो विभाजन थी। उनके लिए तो विभाजन एकदम उचित था। ऐसे में प्रगतिवादियों को विभाजन का दर्द कैसे महसूस होता, यदि दर्द यत्र तत्र आया भी तो बेहद सेलेक्टिवली आया। 

कम्युनिट विचारधारा से जुड़े हिंदी के लेखकों ने विभाजन की विभीषिका को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया बल्कि उनकी कलम 1984 में दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर भी कमोबेश खामोश ही रही। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तीन दिनों तक दूरदर्शन ने शोक को लाइव दिखाया। कहा जाता है कि उस उस दौरान किसी ने खून का बदला खून का नारा दिया और दूरदर्शन के जरिए वो बड़े समुदाय तक पहुंचा और सिखों का नरसंहार आरंभ हो गया। राजीव गांधी के बड़े पेड़ गिरने से धरती हिलने वाले बयान ने भी आग में घी का काम किया। सुधीश पचौरी का मानना है कि टीवी के सतत प्रसारण और शोक दृष्यों को लगातार देख इंदिरा के प्रति हमदर्दी और मारने वालों के प्रति क्षोभ पैदा होता था। पता नहीं किन तत्त्वों का शोक बेदर्द होकर आम सिखों पर टूटने लगा। सिख और हिंदू जो कल तक एक दूसरे के अनन्य थे वो एक दूसरे के अन्य हो गए। इस बात का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए कि हिंदू परिवारों में धर्म की रक्षा के लिए अपने बड़े बेटे को सिख बनाने की परंपरा थी वही हिंदू इंदिरा की हत्या के बाद सिखों को पराया समझने लगे। जाहिर है जब इस तरह के धार्मिक अस्मितामूल्क विमर्श अपनी जगह बनाने लगते हैं तब न यथार्थ बचता है न कोई तटस्थता बच पाती है। समूचा यथार्थ ही विभक्त हो जाता है। 1984 में सिखों के नरसंहार ने इसी प्रकार से यथार्थ को विभाजित कर दिया। जो कल तक अपने को सिख या हिंदू की तरह महसूस नहीं करता था वह भी अपनी अस्मिता पहनकर चलने लगा। स्वाधीनता के समय देश विभाजन के बाद यह दूसरा नया विभाजन था। इस विभाजन ने भले ही भौगोलिक विभाजन नहीं किया लेकिन हमारे आसपास के दैनिक यथार्थ और अनुभवों को भी विभक्त कर दिया। प्रश्न यही उठता है कि सिखों के नरसंहार को हिंदी के लेखकों ने प्राय: अनदेखा क्यों किया? सिखों का दर्द हिंदी लेखकों की रचनाओं में नहीं आ पाया। कुछ लेखकों ने लिखा लेकिन वृहत्तर हिंदी साहित्यिक समाज खामोश रहा। एकबार फिर हिंदी के साहित्यकार संवेदनहीन साबित हुए। सुधीश पचौरी कहते हैं कि वो दंगों में शामिल हुए बिना भी दंगों में ‘शामिल’ नजर आए।

आज बहुत सारे साहित्यकार भ्रमित नजर आते हैं। इंदिरा गांधी युग में साहित्य में जिस अवसरवाद का उदय हुआ भूमंडलीकरण तक चलता रहा। मंडल के बाद साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श आरंभ हुआ। दलित और स्त्री चेतना का उभार होता है। ये दौर चलता है। मोदी युग में हिंदी साहित्य का इंटरनेट मीडिया युग आरंभ होता है। हिंदी साहित्य की रचना प्रक्रिया से लेकर अर्थ प्रक्रिया और उसकी आलोचना प्रक्रिया भी बदलती नजर आती है। मगर इस बदलाव का अहसास बहुत कम लोगों को है और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट तो और भी कम लोगों को है। मोदी युग में हिंदी साहित्य में नए नए प्रश्न खड़े हो रहे हैं। विमर्श पर बहुत चर्चा होती है। विमर्श, आधुनिकता आदि को लेकर साहित्य में बहस कम दिखाई देती है। उपभोक्ता संस्कृति से लेकर बाजर को नए सिरे परिभाषित करने में साहित्य पिछड़ता नजर आता है। हिंदी के वामपंथी साहित्यकार अब भी पुरानी घिसी पिटी लीक पर चलते हुए नजर आते हैं। उनको अपनी रचनाओं में इन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की आवश्यकता है। आवश्कता तो इस बात को रेखांकित करने की भी है कि हिंदू समाज किन कारणों से संगठित हुआ और अपने अधिकारों के लिए कृतसंकल्पित भी।