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Thursday, December 4, 2008

बुड्डों ने किया बेड़ागर्क- अनुपम श्रीवास्तव

सचिन जब भी फ्लॉप होते हैं तो यही आवाज़ एडिटोरियल मीटिंगों में गूंजती है कि 'बाहर करो बूढ़ों को' मगर सचिन कभी न कभी मौका देखकर अपने खेल से सभी को चुप कर देते हैं। मैं उन पत्रकारों की बात नहीं कर रहा हूं जो सिर्फ़ इसको भगवान जाग उठा या भगवान सो गया से ज्यादा नहीं समझते। चूंकि सारे संपादकों की रुचि क्रिकेट में है तो क्रिकेट का गुरु बनने की हर कोई कोशिश करता है या फिर दिखने की।
जब मैंने पत्रकारिता का ये प्रोफेशन ज्वाइन ही किया था तब किसी ने कहा था कि सीख जाओगे वक्त के साथ और ये भी जोड़ दिया की तुम अभी बच्चे हो। 'अच्छे-अच्छे गधे घोड़े बन गए इस प्रोफेशन में।' चाहे वो नेता, क्षेत्र या अपने बाप के दम पर आए हों।
कुम्बले और गांगुली रिटायर हो गए और बाकी सभी बूढ़ों का यही हाल होना है मगर जाने क्यों सचिन की बात अलग है। ये खिलाड़ी सारी दुनिया से टक्कर लेता है। शायद भारत का राइस ग्राफ भी ऐसा है जैसा सचिन का रहा। पिछले 19 सालों में जैसा कि लोग अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन की भूमिका में देखते थे। तब शायद भारत का भी लुकआउट वैसा ही था जैसा अमिताभ बच्चन की भूमिका रहती थी एंग्री यंग मैन में, जो शायद समाज से दुखी रहता था और उसका फ्रस्ट्रेशन परदे पर दिखता था।
मैंने सचिन के साथ जिया है क्योंकि जब से मैंने होश संभाला सचिन ही देखा। मुझे हमेशा से लगता है कि सचिन हम लोगों के मोटिवेटर हैं और 'सिंबल ऑफ़ होप' हमेशा रहे हैं। कहीं न कहीं मुझे मेरे पूरे स्ट्रगल पीरियड में जाने क्यों सचिन हमेशा याद रहते हैं।
चलो ये तो रहा हाल खेल का। देश-विदेश में जो घटनाएं हो रही हैं उससे हम पत्रकारों पर भारी संकट है। चुनाव का वक्त करीब है... तो आप किस आइडियोलॉजी से जुड़े पत्रकार हैं ये प्रश्न हमेशा आपसे जाने अंजाने पूछा जाता है मगर क्या जवाब है आपके पास। क्या आप संघी हैं या फिर वामपंथी या फिर बताएं कि leftist, rightist, centrist, capitalist हैं। हैं क्या आप। पत्रकार क्या कहे, साहब मैं तो पेट भरने आया हूं प्रोफेशनल हूं। मेरा इंटरेस्ट था इसलिए आया। 'आई एम हेयर बाई चॉइस नोट बाइ डीफॉल्ट ओर बाई चांस'... चल डॉयलाग मत मार। मुझे तो वही याद आता है जो मेरे रिश्तेदारों ने कहा था - जो कुछ नहीं कर पाता जिन्दगी में वही पत्रकार बनता है।
अब जमाना चाहे जो हो गया हो लाखों रुपये में मॉस कम्युनिकेशन की डिग्री मिलती हो या लाखों रुपये की नौकरी है और फिर वही मानसिक डाउनमार्केट सॉरी खांटी पत्रकारों के बीच की जिंदगी। मेरे पास नौकरी मांगने आए एक इन्टर्न ने कहा- सर मेरे पापा ने लाखों रुपये खर्चे कर ये कोर्स कराया है बस मुझे नौकरी दे दीजिए बाकी मैं कर लूंगा, नौकरी बची रहने का भी जुगाड़ देख लूंगा। बाकी मैं सीख लूंगा। मुझे बॉस, नौकरी दे दीजिये।
मैं जब मुंबई में था तो कई नए पत्रकार कहते थे कि जर्नलिस्ट "Is always ahead of times "। "master of all traits"- शायद वो अंग्रेजी के पत्रकार थे इसलिए कहते थे। मीडिया समाज का आईना होता है या फिर में पूछता हूं ' मीडिया में बीते लोग समाज का'... सही कहा बीड़ू
मैं भी कहां फंस गया, ज्ञान की बातों में, ज्ञान कि बातों से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खैर, आजकल दफ्तरों में भी खेल होने लगा है। कंट्रोल में रहेगा। आजकल जैसा सारे न्यूज चैनलों में माहौल है थोड़ा चिल्लाइये, डोज दीजिये फिर जानिये आपकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलेगा। सब डर कर काम करेंगे। खौफ का माहौल होगा, आपकी सब जी हुजूरी करेंगे बस खलीफा बन जाएंगे फिर क्या आप ही आप हैं।
शायद हम हिन्दुस्तानियों को डंडे के बिना काम करने की आदत ही नहीं है। तभी दिमागी शोरगुल में भी हमारी जिंदगी कटती है। नेचुरल इंस्टिंक्ट, टेलेंट क्या होता है। फ्लेयर इसलिये नहीं है क्योंकि सभी नौकरी या खानापूर्ति करने आए हैं। किसको दोष दें आप। अगर सब कुछ ठीक होता तो जो हाल हिन्दी न्यूज़ चैनलों का दिवालियापन है क्या दिवालियापान..अरे... भाई अगर ख़बर नहीं होगी तो हम क्या दिखायेंगे।
राखी सावंत का हैप्पी बर्थडे ही तो दिखायेंगे भले ही वो ऐश्वर्या, माधुरी या तब्बू, कैटरीना, दीपिका नहीं। अगर वो मीडिया को यूज, सॉरी..समय देना चाहें तो क्या बुराई है। ड्रामा हर रोज मिलता नहीं है। देश में हार्ड न्यूज़ देखता कौन है। हांलाकि चुनाव चल रहे हैं मगर फिर भी रेटिंग का सवाल है।
वो तो भला हो मुंबई ब्लास्ट का कि कुछ जर्नलिज्म करने को मिला। हम सब ने वो ही किया जो कभी भी किसी ने नहीं किया था। जाहिर तौर पर खबर ही ऐसी थी। मगर कहीं न कहीं हर पैमाने पर होड़ लगी हुई थी। आखिर बुराई क्या है इसमें। .......थैंक्स मुंबई ब्लास्ट....180 फीसदी का इजाफा हुआ व्यूअरशिप में। मगर अब तो ये खबर भी ख़त्म हो रही है। पब्लिक मेमोरी इज शॉर्ट ..अब फिर से नया कुछ खोजना पड़ेगा।
चुनाव है न मगर क्या जो जनता का गुस्सा है नेताओं के प्रति इससे चैनल संख्या या पोलिंग करने वालो की संख्या में इजाफा होगा। इस रिसेसन के दौर में भी हमारी निकल पड़ी..सही है बिड़ू। बाकवास बंद कर और नौकरी कर।
छोड़िए, नौकरी कीजिए..नौकरी...नहीं सर नहीं आपको सचिन बनना ही होगा... सचिन बनिए...सचिन बनिए...सचिन।

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