लोकसभा चुनाव के पहले चरण
के चुनाव में अब चंद दिन बचे हैं और सियासत अपने चरम पर है । टेलीविजन चैनलों पर चुनाव
पूर्व सर्वे ने बीजेपी के हौसले बुलंद कर दिए हैं । अगर इन चुनाव पूर्व सर्वे के नतीजों
को माना जाए तो लगता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अपने गठन के बाद का
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने जा रही है। राजनीति में एक जुमला बार बार दोहराया जाता है
कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है । इस बात में सचाई भी है
क्योंकि लोकसभा की पांच सौ तैंतालीस सीटों में से अकेले उत्तर प्रदेश से अस्सी लोकसभा
सदस्य चुने जाते हैं । यूपी के चुनाव पूर्व सर्वे में भाजपा को तो अब पचास सीटें तक
मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है । सबसे ज्यादा लोग नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री
के तौर पर देखना भी चाहते हैं । यह सही है कि मोदी की कट्टर हिंदूवादी और विकास पुरुष
की छवि का फायदा बीजेपी को मिलता दिख रहा है । पार्टी को इस बात का भी फायदा मिलेगा
कि उन्नीस नौ निन्यानवे के बाद पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी ताकत से भाजपा
को जिताने के लिए जुटा है । उत्तर प्रदेश के प्रभारी अमित शाह के साथ संघ के एक वरिष्ठ
स्वयंसेवक को सहप्रभारी बनाया गया है । नरेन्द्र मोदी की उत्तर प्रदेश की रैलियों में
उमड़ रही भीड़ इस बात की गवाही दे रहे हैं कि जमीनी स्तर पर काम हो रहा है । लेकिन
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ मोदी या उनकी विकास पुरुष की छवि उत्तर प्रदेश
की राजनीति को बीजेपी के पक्ष में कर सकते हैं । इस बात की पड़ताल के लिए हमें उत्तर
प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक संरचना की विवेचना करनी पड़ेगी । उत्तर प्रदेश और बिहार
में चुनाव के वक्त जाति एक अहम भूमिका निभाती है । जातियों के विश्लेषण से यह बात उभर
कर आती है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में सिर्फ इकसठ फीसदी वोटरों तक अपनी पहुंच बना पाई
है और उसमें से ही अपने लिए वोट जुटाने का उपक्रम करती है । उत्तर प्रदेश में मुसलमानों
और दलित वोटरों का संयुक्त प्रतिशत उनचालीस है । अतीत के चुनावी नतीजे बताते हैं कि
दलित वोटर मजबूती के साथ बीएसपी और मायावती के साथ हैं, और मुसलमान वोटर किसी भी कीमत
पर भाजपा को वोट नहीं देंगे । अब अगर बाकी बचे इकसठ फीसदी वोटरों का विश्लेषण करें
तो दस फीसदी यादव वोटर भी बीजेपी को वोट देंगे इसमें संदेह है । यादव वोटरों का मुलायम
से छिटकना जरा मुश्किल है, समाजवादी पार्टी की रैलियों में भी खासी भीड़ इकट्ठा हो
रही है । बचते हैं इक्यावन फीसदी वोटर जिनके
सहारे बीजेपी को पचास सीटें हासिल करने की चुनौती है । बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अब
भी ब्राह्मणों और क्षत्रियों से भरा पड़ा है और उनमें जबरदस्त मनमुटाव और गुटबाजी भी
है । कल्याण सिंह के बाद बीजेपी में कोई मजबूत जनाधार वाला पिछड़ा नेता नहीं उभर पाया
। जिसकी वजह से अन्य पिछड़ी जाति का रुझान सपा और बीएसपी की ओर होता चला गया । दो हजार
बारह के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ पंद्रह फीसदी वोट मिल सके थे । कालांतर
में यह बात भी सामने आई कि भाजपा ने सपा और बीएसपी की तुलना में फिछड़ी जाति के कम
लोगों को टिकट दिए थे । हलांकि इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी के पिछड़ी जाति से होने
का जमकर प्रचार किया जा रहा है और अपना दल के साथ गंठबंधन कर पिछड़ी जातियों को लुभाने
की कोशिश भी की गई है । टिकट बंटवारे में भी इसका ख्याल रखा गया है और तकरीबन बत्तीस
फीसदी उम्मीदवार पिछड़ी जाति से हैं ।
भाजपा के पक्ष में दो बातें जाती हैं । पहली अखिलेश सरकार से प्रदेश की जनता का
बुरी तरह से मोहभंग हो चुका है । मुजफ्फरनगर समेत पूरे सूबे में दर्जनों दंगों की वजह
से मुसलमानों में खासी नाराजगी है तो कानून व्यवस्था कायम रखने में नाकाम रहने से आम
जनता खफा है । विधानसभा चुनाव के वक्त अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में शामिल
करने पर जिस तरह का रुख अपनाया था उससे जनता आशान्वित हुई थी लेकिन अब अखिलेश ने अपराधी
राजनेताओं के सामने घुटने देक दिए हैं । अतीक अहमद से लेकर तमाम बाहुबलियों को टिकट
बांटने से तो यही संदेश जा रहा है । दूसरी बात जो बीजेपी के पक्ष में है वो है केंद्र
की कांग्रेस सरकार से भारी नाराजगी । इस नाराजगी का असर उत्तर प्रदेश पर भी पड़ेगा
। बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता कांग्रेस को सबक सिखाने को आतुर
दिख रही है । बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाना मुश्किल तो है पर असंभव नहीं है ।
उन्नीस सौ इक्यानवे के आम चुनाव में बीजेपी ने सारे सामाजिक समीकरणों को ध्वस्त करते
हुए 32.8 फीसदी वोट हासिल किए थे । उस वक्त धार्मिक ध्रुवीकरण की वजह से अगड़ी जातियों
के अलावा गैर यादव फिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलितों ने बीजेपी को वोट दिए थे । उन्नीस
सौ अट्ठानवे में तो भाजपा ने अपना प्रदर्शन बेहतर करते हुए 33.4 फीसदी वोट हासिल किए
थे । बीजेपी को गैर यादव पिछड़ी जातियों के छब्बीस फीसदी वोट को मजबूत करना होगा और
अपना दल से गठबंधन इसी रणनीति की एक कड़ी है। इसी छब्बीस फीसदी वोट और अगड़ी जातियों
के 23 फीसदी वोट को जोड़कर बीजेपी उत्तर प्रदेश में सफलता का परचम लहरा सकती है ।
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