लोकसभा के पांचवें चरण का चुनाव खत्म हो चुका है । तकरीबन
आधी लोकसभा सीटों के उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में बंद हो चुकी है । लेकिन अब भी
चुनाव के कई चरण बाकी हैं लिहाजा सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार में अपनी ताकत
झोंकी हुई है । एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और सियासी हमले तेज हो गए हैं । दोनों राजनीतिक दल, कांग्रेस और बीजेपी अपनी-अपनी
उपलब्धियों का गुणगान करने में लगे हैं लेकिन सियासी हमलों में उपलब्धियों का बखान
पृष्ठभूमि में चला गया है । चुनावी रण में पार्टियां अपनी बुनियादी मुद्दों से भटकती
नजर आ रही हैं और एक बार फिर से मतदाताओं के ध्रुवीकरण करने में जुटे हैं । भारतीय
जनता पार्टी के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने जब अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत
की थी तो उनका मुख्य मुद्दा विकास था । विकास के अलावा वो अपनी सभाओं में भ्रष्टाचार
और महंगाई के खिलाफ जंग का एलान करते थे । मोदी के राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर
उदय के साथ उनकी छवि निर्माण में लगी टीम ने गुजरात के विकास मॉडल और उसमें नरेन्द्र
मोदी की भूमिका को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाया । नतीजा यह हुआ कि देशभर के मतदाताओं
के बीच मोदी की विकास पुरुष की छवि पेश हुई । एक ऐसा शख्स जो मजबूती से निर्णय ले सकता
है और विकास की राह में आनेवाली सारी बाधाएं दूर करने की क्षमता रखता है । इसी तरह
से अगर हम कांग्रेस की बात करें तो राहुल गांधी हों या सोनिया गांधी दोनों ने अपनी
सभाओं में सबसे ज्यादा ढिढोरा जनता को पिछले दस साल में दिए गए अधिकारों का पीटा ।
चाहे वो मनरेगा हो, सूचना का अधिकार हो ,शिक्षा का अधिकार हो, भोजन की गारंटी हो या
फिर भूमि सुधार कानून हो । उधर तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने वामदलों के
कुशासन और बंगाल की खस्ता हालत को फिर से चुनावी मुद्दा बनाया । उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर
में सांप्रदायिक दंगों के बावजूद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने खुलकर ध्रुवीकरण
की राजनीति नहीं की । उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों ने बदहाल कानून व्यवस्था को चुनावी
मुद्दा बनाया । लेकिन जैसे जैसे चुनावी प्रक्रिया आगे बढ़ने लगी तो सभी दलों ने गियर
बदला और विकास, भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे को पृष्ठभूमि में डालते हुए इस तरह
के बयान देने शुरू कर दिए जिससे दो समुदायों के बीच ध्रुवीकरण तेज हो सके । कांग्रेस
ने जवाहरलाल नेहरू के उस प्रसिद्ध कथन को भुला दिया जिसमें हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री
ने कहा था- हम चाहे किसी भी धर्म के हों सभी भारत माता की संतान हैं और हमारे अधिकार
समान हैं । हम किसी भी तरह की सांप्रदायिकता और संकीर्ण सोच को बढ़ावा नहीं दे सकते
हैं । कोई भी देश तबतक महान नहीं हो सकता जबतक कि वहां की जनता अपने कार्य और सोच में
संकीर्ण हो ।‘ अब जरा सोचिए जवाहरलाल
नेहरू की राजनीति की विरासत संभालने वाले किस तरह से उसी संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे
रहे हैं । दरअसल कांग्रेस के रणनीतिकारों को जब लगा कि पार्टी लोकसभा चुनाव में कमजोर
पड़ रही तो उन्होंने एक बार फिर से सेक्युलर और कम्युनल कार्ड खेलने की रणनीति बनाई
। गुजरात दंगों को लेकर देश का मुसलमान नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को लेकर सशंकित रहता
है । कांग्रेस शुरू से इस कोशिश में थी कि लोकसभा चुनाव के पहले मुसलमानों को मोदी
का भय दिखाकर अपने पक्ष में किया जाए । लेकिन मोदी लगातार विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार
को मुद्दा बनाकर कांग्रेस की इस रणनीति की हवा निकाल रहे थे । जब भारतीय जनता पार्टी
ने हिंदू वोटरों को लुभाने के लिए रामदेव और श्रीश्री रविशंकर का सहारा लिया तो कांग्रेस
ने इसके काट के लिए दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी को अपने पाले में
किया । अभी हाल ही में राजनाथ सिंह कल्बे जव्वाद और फिरंगी महली के दर पर दस्तक दे
आए । बेवजह का विवाद भी खड़ा कर आए ।
सोनिया गांधी के सिपहसालारों ने दिल्ली के ख्यात अहमद
बुखारी से उनकी मुलाकात करवाई । इस मुलाकात के बाद सोनिया ने उनसे अपील की सेक्युलर
वोटों का बंटवारा नहीं हो । पहले से लिखी गई स्क्रिप्ट के मुताबिक सोनिया की अपील पर
बुखारी ने फौरन अमल किया और मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की गुजारिश कर डाली
। ये अलग बात है कि बुखारी की मुसलमानों के बीच इतनी भी साख नहीं है कि उनके कहने से
सैकड़ों वोट भी पड़ सके लेकिन जामा मस्जिद और उसके शाही इमाम के प्रतीकात्मक महत्व
को वो भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । पुरानी दिल्ली इलाके में एक जुमला खूब
चलता है कि जामा मस्जिद की सीढियों के नीचे बुखारी की कोई नहीं सुनता । उनके भाई ने
भी बुखारी की बात नहीं मानने की अपील कर दी थी । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले
बुखारी मुलायम सिंह यादव के साथ थे । जब मुलायम सिंह यादव ने उनके रिश्तेदार को मंत्री
बनाने से मना कर दिया बुखारी बिदक गए । मुसलमान वोटों की ठेकेदारी का बुखारी का लंबा
इतिहास रहा है । हर चुनाव के पहले वो राजनीति सौदेबाजी के बाद इस या उस पक्ष में वोट
देने की अपील करते हैं ।
लोकसभा चुनावों पर गहरी नजर रखनेवाले राजनीति विश्लेषकों
का कहना है कि जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ध्रुवीकरण की राजनीति की ओर बढ़ता दिखा
तो फिर नीचे के नेता और कार्यकर्ता बेकाबू होने लगे । उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से कांग्रेस
प्रत्याशी ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की
बोटी बोटी काटने जैसा घोर आपत्तिजनक बयान दिया तो वसुंधरा राजे भी मुख्यमंत्री पद की
मर्यादा भूल गई । उन्होंने भी कह डाला कि चुनाव के नतीजे आने दीजिए तब पता चलेगा कि
किनकी बोटियां कटेंगी । इन बयानबाजियों और चुनाव नजदीक आता देख बीजेपी के रणनीतिकारों
को लगा कि कहीं वो पिछड़ वना जाएं तो खुद मोदी ने भी मांस के निर्यात और पिंक रिवोल्यूशन
की बातें करके ध्रुवीकरण को हवा दी । मोदी के विश्वस्त सिपहसालार और उत्तर प्रदेश में
चुनाव के प्रभारी अमित शाह तो एक और कदम आगे चले गए । उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश
के शामली और बिजनौर में अपमान का बदला लेने वाला बयान दे डाला । अमित शाह ने कहा कि
आदमी भूखा और प्यासा तो रह सकता है, लेकिन अगर अपमानित हो जाता है तो चैन से नहीं रह
सकता है । अमित शाह ने कहा कि अपमान का बदला तो लेना पड़ेगा । गौरतलब है कि यह मुजफ्फरनगर
का वही इलाका है जहां कुछ महीनों पहले सांप्रदायिक दंगों में पचास से ज्यादा मुसलमान
मारे गए थे । अमित शाह के इस बयान को अगर उन दंगों से जोड़कर देखें तो ध्रुवीकरण का
लक्ष्य नजर आता है ।
मौका भांपते ही समाजवादी पार्टी इसमें कूद पड़ी और उत्तर प्रदेश के ताकतवर मंत्री
आजम खान ने तो सारी हदें पार कर दी । सारी राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए उन्होंने
अमित शाह को गुंडा नंबर एक और कातिल तक कह डाला । बाद में ये बयान दे दिया कि करगिल
में मुसलमानों ने विजय दिलवाई । यह भारतीय राजनीति का इतना निचला स्तर है कि इसकी जितनी
भर्त्सना की जाए वो कम है । फौज का जवान वर्दी
पहनने के बाद ना तो हिंदू होता है और ना मुसलमान वो सिर्फ हिन्दुस्तनी होता है । चुानवी
फायदे के लिए इस तरह से फौज पर टिप्पणी नेताओं की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है
। दरअसल नेताओं की ध्रुवीकरण की इन कोशि्शों को चुनाव आयोग की कमजोरी से बल मिलता है
। चुानव आयोग इस तरह की बयानबाजियों के मसले में नोटिस जारी करने की मामूली सी कार्रवाई
करता है, चंद दिनों तक रैली करने पर पाबंदी लगाता है लेकिन सख्त कार्रवाई नहीं कर इनके
हौसले को हवा देता है । इस तरह की बयानबाजियों और संप्रदाय के आधार पर वोटरों को बांटने
की कोशिशों पर चुनाव आयोग को बेहद सख्त कदम उठाने होंगे । कानूनी दांव पेंच से बच निकलने
के नेताओं की कोशिशों पर भी रोक लगाना होगा । भारत विविध धर्मों और संप्रदायों का देश
है और वोट और सत्ता के लिए इसके सामाजिक तानेबाने को छिन्न भिन्न करने की इजाजत किसी
भी कीमत पर नहीं दी जा सकती है ।
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