देश में लोकतंत्र का महापर्व आम चुनाव शुरू हो चुका
है । लोकसभा चुनाव के पहले नेताओं की जुबानी जंग और मीडिया में कयासों के कोलाहल के
बीच एक अहम बात दब गई है । पूरे देश में राजनीति पंडित इस चुनाव में राजनीतिक दलों
के आसन्न जीत और हार का कयास लगा रहे हैं । कुछ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लहर
बता रहे हैं तो कईयों का मानना है कि दक्षिण में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी मोदी
के विजय रथ को रोक सकती है । सबके अपने अपने तर्क और कारण हैं । जीत हार के इन तर्कों,
कारणों और दावों प्रतिदावों के बीच एक बात जो खामोश मजबूती के साथ दिखाई दे रही है
वो है इन चुनावों में वामपंथी दलों का अप्रसांगिक होना । कुछ राजनीति विश्लेषकों का
तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस और भाजपा भले ही जीत के दावों में उलझी हो लेकिन इस
लोकसभा चुनाव में वामदलों की हार में किसी को संदेह नहीं है । क्यों इस लोकसभा चुनाव
में वामपंथी समूह की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम निष्क्रिय दिखाई दे रही है । क्यों नहीं
वामपंथी समूह गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों के बीच की धुरी बन पा रहे हैं । ज्यादा
दिन नहीं बीते हैं जब नब्बे के दशक में हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनैतिक कौशल से
कई बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट कर सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई
थी । उसके बाद भी दो हजार चार में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गठन में वामदलों
की बेहद अहम भूमिका थी । अब सिर्फ इतने दिनों में क्या हो गया कि तमिलनाडू में एआईएडीएमके
के साथ गठबंधन के एलान के चंद दिनों बाद जयललिता उससे बाहर निकल आती हैं । गुजरात में
प्रोग्रेसिव फ्रंट आकार भी नहीं ले पाता है । सांप्रदायिकता के नाम पर दिल्ली में गैर
कांग्रसी और गैर भाजपा दलों को एकजुट करने का उनका प्रयास परवान नहीं चढ पाता है ।
क्या साख का संकट है या फिर नेतृत्व का । इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि उन्नसी
सौ बावन के पहले आम चुनाव में देश भर में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरने वाली पार्टी
महज साठ साल में अप्रासंगिक होती दिख रही है । क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल
जैसे मजबूत गढ़ के अलावा बिहार और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मजबूत प्रदर्शन करनेवाली
पार्टी अब वहां काफी कमजोर दिखाई देती है ।
दरअसल वामदल अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं । राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । साफ है कि भारतीय मार्क्सवादी इस देश को रूस और चीन की व्यवस्था के अनुरूप चलाना चाहते हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतूीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया । इसकी एतिहासिक वजहें हैं । उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार कर दिया और आजादी को बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण माना । भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश स्वतंत्रता के जश्न में डूबा हुआ था और लोगों की आकांक्षा सातवें आसमान पर थी तो सीपीआई ने उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात भारतीय गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया था । रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इसको खत्म करने में भारत की मदद की थी । लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद सीपीआई में विभाजन हो गया और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीआई रूस के इशारों पर चलती थी तो सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी । भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन । जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस निर्णय का समर्थन किया था । ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता के मूड को नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं । पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे । पार्टी में नाराजगी इतनी बढ़ी कि डांगे को दल से निकाल बाहर किया गया। लेकिन तबतक तो पार्टी का नुकसान हो चुका था । उसके बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी उसके बाद मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई । यूपीए वन के दौर में जिस तरह से वामपंथी दलों ने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन और उसके आधार पर फैसले का उदाहरण है । उस वक्त भी नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे । अपनी किताब – कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर प्रकाश करात को कठघरे में खड़ा किया है । उन्होंने वर्तमान माहासचिव प्रकाश करात के तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे ।
किसी भी पार्टी के लिए उसका नेता बेहद अहम होता है । नेतृत्व का विजन और जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और सहयोगी नेताओं के बीच सम्मान पार्टी को मजबूती प्रदान करती है । इस वक्त वामदलों के नेतृत्व में इन सभी गुणों का अभाव दिखाई देता है । नेतृत्व में वो तेज, वो चुंबकीय आकर्षण नहीं दिखाई देता है जो कभी ए के गोपालन, ई एमएस नंबूदरीपाद, ज्योति बसु में दिखाई देता था । जिस तरह से हरकिशन सिंह सुरजीत का सभी दलों के नेता सम्मान करते थे वैसा सम्मान भी वर्तमान नेतृत्व हासिल नहीं कर पाए हैं । राजनीति शास्त्र में कहा जाता है कि कोई भी विचार कभी भी नहीं मरता है उसी प्रासंगिकता भले ही कम या खत्म होती है । तो क्या यह मान लिया जाए कि भारत में वाम दलों की प्रासंगिकता खत्म हो गई है या फिर पार्टी के अंदर से कोई नेता उभरेगा जो मार्क्सवाद को भारतीय नजरिए से व्य़ाख्यायित करते हुए नीतियों में बदलाव कर पार्टी को प्रासंगिक बनाएगा ।
दरअसल वामदल अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं । राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । साफ है कि भारतीय मार्क्सवादी इस देश को रूस और चीन की व्यवस्था के अनुरूप चलाना चाहते हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतूीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया । इसकी एतिहासिक वजहें हैं । उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार कर दिया और आजादी को बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण माना । भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश स्वतंत्रता के जश्न में डूबा हुआ था और लोगों की आकांक्षा सातवें आसमान पर थी तो सीपीआई ने उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात भारतीय गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया था । रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इसको खत्म करने में भारत की मदद की थी । लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद सीपीआई में विभाजन हो गया और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीआई रूस के इशारों पर चलती थी तो सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी । भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन । जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस निर्णय का समर्थन किया था । ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता के मूड को नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं । पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे । पार्टी में नाराजगी इतनी बढ़ी कि डांगे को दल से निकाल बाहर किया गया। लेकिन तबतक तो पार्टी का नुकसान हो चुका था । उसके बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी उसके बाद मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई । यूपीए वन के दौर में जिस तरह से वामपंथी दलों ने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन और उसके आधार पर फैसले का उदाहरण है । उस वक्त भी नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे । अपनी किताब – कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर प्रकाश करात को कठघरे में खड़ा किया है । उन्होंने वर्तमान माहासचिव प्रकाश करात के तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे ।
किसी भी पार्टी के लिए उसका नेता बेहद अहम होता है । नेतृत्व का विजन और जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और सहयोगी नेताओं के बीच सम्मान पार्टी को मजबूती प्रदान करती है । इस वक्त वामदलों के नेतृत्व में इन सभी गुणों का अभाव दिखाई देता है । नेतृत्व में वो तेज, वो चुंबकीय आकर्षण नहीं दिखाई देता है जो कभी ए के गोपालन, ई एमएस नंबूदरीपाद, ज्योति बसु में दिखाई देता था । जिस तरह से हरकिशन सिंह सुरजीत का सभी दलों के नेता सम्मान करते थे वैसा सम्मान भी वर्तमान नेतृत्व हासिल नहीं कर पाए हैं । राजनीति शास्त्र में कहा जाता है कि कोई भी विचार कभी भी नहीं मरता है उसी प्रासंगिकता भले ही कम या खत्म होती है । तो क्या यह मान लिया जाए कि भारत में वाम दलों की प्रासंगिकता खत्म हो गई है या फिर पार्टी के अंदर से कोई नेता उभरेगा जो मार्क्सवाद को भारतीय नजरिए से व्य़ाख्यायित करते हुए नीतियों में बदलाव कर पार्टी को प्रासंगिक बनाएगा ।
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