उन्नीस सौ सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में हरियाणा
की राजनीति की धुरी तीन लाल हुआ करते थे । चौधरी देवीलाल ने स्वतंत्रता संग्राम में
अहम भूमिका निभाई थी और कई बार जेल भी गए थे । कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने, अविभाजित
पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने । बाद में उन्नीस सौ इकहत्तर में कांग्रेस से
मोहभंग के बाद पार्टी छोड़ दी । जब इमरजेंसी का एलान हुआ तो देवीलाल को भी जेल जाना
पड़ा था। इमरजेंसी के पहले कांग्रेस में संजय गांधी की तूती बोलती थी तो हरियाणा में
एक और लाल का उदय हुआ । वंसीलाल ने संजय गांधी के ड्रीम प्रोजक्ट मारुति कार कारखाने
के लिए जमीन मुहैया करवाकर दिल्ली दरबार में अपने नंबर बढ़ा लिए थे और गांधी परिवार
के करीब पहुंच गए थे, जिसका लाभ उन्हें बाद की राजनीति में भी हुआ । इमरजेंसी के बाद
हुए चुनाव में जब सूबे में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया तो चौधरी देवीलाल हरियाणा
के मुख्यमंत्री बने । उसके बाद तो चौधरी देवी लाल ने राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी
दखल बनाई और दो बार देश के उपप्रधानमंत्री बने । देवीलाल पूरे देश में किसान नेता के
तौर पर उभरे । हरियाणा के तीसरे लाल भजनलाल
थे जिन्हें देश ने पहली बार व्यापक पैमाने पर दलबदल करवाकर सरकार बनाई थी। हरियाणा
के ये तीन लाल जब तक जीवित रहे तो प्रासंगिक बने रहे । इनकी मौत के बाद इनकी राजनीति
की विरासत इनके परिवार के सदस्यों के हाथ में ही रही है, कमोबेश इनके बनाए दल पर भीपरिवार
ही कब्जा रहा है । इस बार के लोकसभा चुनाव में तो देवीलाल परिवार की चौथी पीढ़ी भी
राजनीति में प्रवेश कर रही है । हिसार लोकसभा सीट से इंडियन नेशनल लोकदल के टिकट पर
दुश्यंत चौटाला चुनाव लड़ रहे हैं । दुष्यंत के पिता अजय चौटाला और उनके दादा और चौधरी
देवीलाल के पुत्र ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के भर्ती घोटाले में दोषी ठहराए जाने के
बाद से जेल में बंद हैं । लिहाजा दुश्यंत के कंधों पर परिवार की विरासत और उसकी राजनीति
संभालने की जिम्मेदारी है । वहीं भजनलाल की परंपरागत सीट हिसार से उनका बेटा कुलदीप
विश्नोई भी चुनाव मैदान में हैं । यहां दो लाल के उत्तराधिकारी आमने सामने हैं । हिसार लोकसभा सीट हरियाणा के दो लालों की परिवार
की विरासत की लडाई का कुरुक्षेत्र बनने जा रहा है । मुकाबला दिलचस्प है लेकिन ओमप्रकाश
चौटाला और अजय चौटाला के जेल में बंद होने की वजह से इंडियन नेशनल लोकदल का प्रचार
ढीला चल रहा है । स्थानीय नेताओं के बूते पर दुश्यंत चौटाला मैदान में हैं । वहीं कुलदीप
विश्नोई की पार्टी का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के साथ है । तीसरे लाल- बंसीलाल की
राजनीति की विरासत उनकी बहू किरण चौधरी और पोती श्रुति चौधरी के जिम्मे है । किरण हरियाणा
सरकार में मंत्री हैं और श्रुति भिवानी लोकसभा सीट से दूसरी बार सांसद बनने के लिए
चुनाव मैदान में है ।
इस पूरे प्रसंग के उल्लेख का उद्देश्य यह है कि हमारे
देश में की राजनीति में वंशवाद की जड़े काफी गहरी हो गई हैं । राष्ट्रीय पार्टियों
में कांग्रेस पर वंशवाद के आरोप लगते ही रहे हैं । जवाहरलाल नेहरू पर यह आरोप लगता
है कि उन्होंने अपने जीवित रहते ही इंदिरा गांधी की राजनीति को मजबूत कर दिया था और
उन्हें अपना वारिस घोषित तो नहीं किया लेकिन इलस तरह की पेशबंदी की यह तय हो गा था
कि कांग्रेस को नेहरू के बाद इंदिरा ही संभालेंगी । नेहरू के जीवित रहते ही इंदिरा
गांधी ना केवल कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बनीं बल्कि वो कांग्रेस की अध्यक्ष भी
बन गई थी । हलांकि इस बारे में राजनीतिशास्त्र के जानकारों के मतों में भिन्नता है
। कई लोगों का मानना है कि इंदिरा गांधी कांग्रेस में एक स्वाभाविक नेता के तौर पर
उभरी थी । उनका तर्क है कि जवाहरलाल की मौत के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री
बने और उस वक्त इंदिरा ने मंत्री बनने से भी इंकार कर दिया था । बाद में शास्त्री जी
के दबाव में इंदिरा गांधी मंत्री बनी थी । इसी तरह से जब लालबहादुर शास्त्री की मौत
हुई तो सिंडिकेट ने मोरार जी देसाई को रोकने के लिए इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवा
दिया । इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाने में नेहरू की भूमिका पर भले ही विशेषज्ञों में मतभेद
हो लेकिन बाद में इंदिरा गांधी ने जिस तरह से पहले अपने बेटे संजय और उनकी मौत के बाद
राजीव गांधी को आगे किया वो वंशवाद का सर्वोत्तम नमूना है । फिर तो राजीव के बाद सोनिया
और राहुल की ताजपोशी इतिहास है। शीर्ष नेतृत्व अगर परिवारवाद को बढ़ावा देता है तो
वो नीचे तक जाता है । कांग्रेस में कमोबेश हर बड़ा नेता चाहता है कि उसके बेटा या बेटी
राजनीति में आकर सांसद या लिधायक बने । हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा
के पुत्र सांसद हैं, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के पुत्र विधायक हैं । यह फेहरिश्त
बहुत लंबी है । ऐसा नहीं है कि वंशवाद का ये रोग सिर्फ कांग्रेस में ही है । भारतीय
जनता पार्टी भी इससे अछूती नहीं है लेकिन कमोबेश भाजपा में यह परंपरा अपेक्षाकृत कम
है ।
राष्ट्रीय दलों के अलावा अगर हम क्षेत्रीय दलों की बात करें तो वहां तो वंशवाद
के आगे समर्पित कार्यकर्ताओं को हमेशा से दरकिनार किया जाता है । क्षेत्रीय दलों के
मुखिया दल को अपनी संपत्ति समझते हैं जिसपर स्वाभाविक रूप से उनके उत्तराधिकारी का
हक होता है । लालू यादव की आरजेडी पर उनकी बेटी मीसा भारती और बेटे तेजस्वी का ही कब्जा
होगा भले ही रामकृपाल जैसे समर्पित कार्यकर्ता को पार्टी क्यों ना छोड़नी पड़े । इसी
तरह रामविलास पासवान की पार्टी को उनके अभिनेता से नेता बने बेटे चिराग पासवान ही संभाल
सकते हैं, उसके पहले भाई रामचंद्र और पारस । अकाली दल में भी चाहे कितने भी दिग्गज हों लेकिन
उत्तराधिकार प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर बादल को ही मिलता है । यह कहानी सिर्फ
एक दल की नहीं है । अगर आप कश्मीर से शुरू करें तो वहां फारूक अबदुल्ला के बेटे उमर
अब्दुल्ला, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, तमिलनाडू में करुणानिधि
के बेटे स्टालिन से लेकर पूरा कुनबा ही उनकी पार्टी की राजनीति के केंद्र में है ।
यही हाल ओडिशा में है बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक को ही सूबे की सत्ता के साथ
साथ पार्टी की कमान भी मिलती है । तो क्या हमारा समाज अब भी लोकतंत्र की आड़ में राजतंत्र
के रास्ते पर चल रहा है जहां राजा का बेटा ही राजा होता है । जनता का भी भरोसा लोकतंत्र
के इन नए राजकुमारों की हासिल होता है । तो क्या हम ये मान लें कि आजादी के साठ दशक
बाद भी हमारा लोकतंत्र राजशाही से मुक्त नहीं हो पाया है । राजा बदल गए हैं लेकिन राजनीति
नहीं बदली है । जनता के नाम पर चंद परिवार के लोग ही देश पर राज कर रहे हैं । राजनीति
शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे अन्य वजहों में एक वजह इन नेताओं का
अपने साथियों पर भरोसा नहीं होना है । राजनीति से लेकर अपनी संपत्ति के प्रबंधन के
लिए वो सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार के लोगों पर भरोसा करते हैं जिसका नतीजायह होता
है कि वंशवाद और परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है । हमारे देश में लोकतंत्र की जड़े बहुत
गहरी हो चुकी हैं लेकिन जनता की भागीदारी को सत्ता में और मजबूत करने के लिए वंशवाद
की विषबेल को रोकना होगा ।
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