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Sunday, April 27, 2014

हिंदी में नायको का सम्मान नहीं

जादुई यथार्थवाद के जनक गाब्रिएल गार्सिया मार्केज को श्रद्धांजलि देने मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में जो भीड़ उमड़ी वह सचमुच जादुई लग रही थी । आधुनिक युग में लेखकों को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग घंटों कतार में खड़े रहें तो सचमुच आश्चर्य होता है । गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए कोलंबिया के राष्ट्रपति भी मैक्सिको पहुंचे थे । मार्केज का अंतिम संस्कार बगोटा कैथेड्रल में बेहद निजी रिश्तेदारों की मौजूदगी में हुआ । इस अंतिम संस्कार में कोलंबिया के राष्ट्रपति जुआन मैन्युल सैंटोस भी शामिल हुए थे । जब बगोटा कैथेड्रल में मार्केज का अंतिम संस्कार हो रहा था उसी वक्त प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार कोलंबिया के उनके पैतृक शहर में भी किया गया जिसमें भी काफी लोग इकट्ठा हुए । यह तब हुआ जब 1981 में मार्केज ने सेना की पूछताछ की आशंका के बाद कोलंबिया छोड़ दिया था । बगोटा कैथेड्रेल में अंतिम संस्कार के बाद उनका अस्थि कलश मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में रखा गया था । वहां भारी संख्या में उनके प्रशंसक हाथों में पीला गुलाब लिए अपने प्रिय लेखक को अंतिम विदाई देने पहुंचे थे । पीले फूल मार्केज को बेहद पसंद थे । इस अंतिम विदाई में कोलंबिया के राष्ट्रपति के साथ साथ मैक्सिको के राष्ट्रपति भी शामिल हुए । दो राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी और लैटिन अमेरिकी देशों में उसी वक्त अलग अलग शहरों में अपने प्रिय लेखकों को श्रद्धांजलि यह उस समाज की सोच और अपने प्रिय लेखक के प्रति प्यार और सम्मान को दर्शाता है ।

इसके पहले मार्केज के घर पर उनके अंतिम दर्शन करने के लिए काफी लोग जमा हुए थे । उन तस्वीरों के बाद जब मैं मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में मार्केज को अंतिम विदाई की तस्वीरें देख रहा था तो बहुत शिद्दत से पिछले साल ही राजेन्द्र यादव के निधन पर उनके घर का मंजर याद आ रहा था । देर रात राजेन्द्र यादव की मौत हुई थी और जब तड़के उनके घर पहुंचा था तो वहां चंद लोग मौजूद थे । सुबह से सभी टेलीविजन चैनलों पर यादव जी के निधन का समाचार चलने लगा था लेकिन लोगों की बात तो दूर साथी साहित्यकार भी वहां नहीं पहुंचे थे । यादव जी दिल्ली के मयूर विहार इलाके में रहते थे, उसी मयूर विहार में दर्जनों साहित्यकार रहते हैं जिनमें से कई तो उनके घर पहुंचे भी नहीं, सीधे अंतिम संस्कार के मौके पर पहुंचे । यह भारतीय आधुनिक समाज का सच है । राजेन्द्र यादव जी हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थे और उनके प्रशंसक हर उम्र के लोग थे । ऐसा नहीं है कि यादव जी के अंतिम संस्कार में इस तरह की उदासीनता देखने को मिली थी । भारत के महान लेखक प्रेमचंद का जब निधन हुआ था तो उनकी शवयात्रा में भी चंद लोग ही शामिल हुए थे । उनकी शवयात्रा देखकर किसी ने पूछा था कि किसका निधन हुआ है तो बताया गया कि कोई मास्टर साहब थे । इससे इतर आचार्य रामचंद्र शुक्ल और निराला जी को अंतिम विदाई देने के लिए पूरा शहर जरूर उमड़ा था । सवाल यही है कि हिंदी समाज अपने लेखकों को नायक क्यों नहीं बना पाता है । क्यों नहीं हमारे देश में सड़कों और इमारतों के नाम लेखकों का नाम पर रखे जाते हैं । जब जवाब ढूढने निकलते हैं तो मुझे लगता है कि इसके लिए हिंदी समाज की तटस्थता और सरकारी उदासीनता जिम्मेदार है । बहुत हद तक जिम्मेदार हमारा शासक वर्ग भी है जो साहित्य से दूर होता जा रहा है । हमें अपने साहित्यकारों का मान करना सीखना होगा ।   

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