भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के वडोदरा के
अलावा बनारस से चुनाव लड़ने के एलान से लेकर नामांकन भरने तक आलोचकों ने काफी हो हल्ला
किया । उनका एतराज नरेन्द्र मोदी के दो जगहों से चुनाव लड़ने को लेकर था । समर्थकों
के अलग तर्क थे, विरोधियों के अलग । दो तरह का माहौल बनाया गया- समर्थकों की दलील थी
कि उत्तर प्रदेश, देश का सबसे बड़ा राज्य है और बनारस से चुनाव लड़ने का एक प्रतीकात्मक
महत्व है । मोदी के रणनीतिकारों का मानना था कि उनके बनारस से चुनाव लड़ने का असर पूर्वांचल
और बिहार की कई सीटों पर पड़ेगा । इस वजह से ही बनारस के मौजूदा सांसद मुरली मनोहर
जोशी की सीट भी बदली गई । उनके खफा होने की खबरें भी आईं लेकिन उनकूी नाराजगी को दरकिनार
कर दिया गया । विरोधियों का तर्क था कि नरेन्द्र मोदी बनारस से अपनी जीत को लेकर आश्वस्त
नहीं हैं लिहाजा गुजरात की एक सीट से भी चुनाव लड़ना चाहते हैं । उन्होंने इस मसले
पर भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी को इस तरह से घेरने की कोशिश की कि लगा जैसे
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ये पहला मौका हो जब कोई बड़ा नेता दो लोकसभा क्षेत्र
से चुनाव लड़ रहा हो । कांग्रेस के बनारस से उम्मीदवार और उनकी पार्टी के आला नेताओं
ने इस तरह का माहौल बनाया कि अगर नरेन्द्र मोदी वड़ोदरा और बनारस दोनों जगह से चुनाव
जीत जाते हैं तो वो बनारस छोड़ कर भाग जाएंगे । अति उत्साह में मोदी के विरोधियों ने
चुनाव में होनेवाले सरकारी और गैरसरकारी खर्चे को भी अपनी आलोचना का आधार बनाया । यहां
तक कहा कि जनता के पैसे पर चुनावी रणनीति को अंजाम दिया जा रहा है । एक विशेषज्ञ ने
तो आमचुनाव में दो सीटों पर चुनाव लड़ने की तुलना उम्मीदवार द्वारा खरीदी गई इंश्योरेंस
पॉलिसी से कर दी जिसके प्रीमियम का भुगतान जनता करती है । इसको देखकर लगता है कि टीकाकारों
को इतिहास बोध नहीं है या फिर ये जानबूझकर इतिहास को ओझल करना चाहते हैं । आजाद भारत
के इतिहास में दो जगहों से चुनाव लड़ने की परंपरा की शुरुआत की प्रामाणिक जानकारी नहीं
है लेकिन चर्चा में इंदिरा गांधी का चुनाव ही आता है जब उन्होंने उन्नीस सौ अस्सी में
रायबरेली के अलावा आंध्र प्रदेश के मेडक से भी लोकसभा का चुनाव लड़ा था । अब उस वक्त
देश का राजनैतिक माहौल क्या था और कांग्रेस किन परिस्थियों से जूझ रही थी उसको याद
करने से इंदिरा गांधी के दो लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने की वजह साफ हो जाती
है । इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी को रायबरेली से करारी हार
का सामना करना पड़ा था । उस हार से इंदिरा गांधी को बड़ा झटका लगा था । रायबरेली से
नेहरू परिवार का पुराना रिश्ता था इस वजह से झटका सदमे की तरह था । उन्नीस सौ इक्कीस
में मुंशीगंज में किसानों के आंदोलन के दौरान मोतीलाल नेहरू ने अपने युवा पुत्र जवाहरलाल
नेहरू को रायबरेली भेजा था । जवाहरलाल के वहां पहुंचने के ठीक पहले ब्रिटिश सिपाहियों
ने प्रदर्शनकारी किसानों पर गोलियां चलाई थी जिसमें कई किसानों की मौत हो गई थी । जानकारों
का मानना है कि जवाहरलाल नेहरू ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण मुंशीगंज चौराहे पर दिया
था । अपने पिता की वजह से इंदिरा गांधी को भी इस क्षेत्र से काफी लगाव था लिहाजा जब
वो सतहत्तर में हारी तो उन्हें सदमा लगा । अस्सी के लोकसभा चुनाव में जब वो रायबरेली
और मेडक दोनों जगहों से जीतीं तो उन्होंने रायबरेली की सीट छोड दी थी । सतहत्तर में
इंदिरा गांधी के दो लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की वजह उनकी रायबरेली से जीत में
संदेह का होना था और वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी ।
इसी तरह से जब उन्नीस सौ निन्यानवे में सोनिया गांधी ने भी चुनावी मैदान में कदम
रखा था तो उन्होंने भी उत्तर प्रदेश के अमेठी और कर्नाटक के बेल्लारी से लोकसभा क्षेत्र
से चुनाव लड़ा था । सोनिया गांधी को दोनों जगह से जीत हासिल हुई थी । बेल्लारी में
तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेता सुषमा स्वराज को भारी मतों से पराजित
किया था । उस वक्त की स्थितियां भी यही थी कि ना तो सोनिया गांधी और ना ही पार्टी नेताओं
का अंतर्विरोध झेल रही कांग्रेस सोनिया गांधी के चुनाव जीतने को लेकर आश्वस्त थे ।
लेकिन सोनिया के दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के दो फायदे भी थे । अगर उत्तर और दक्षिण
भारत दोनों जगह से सोनिया गांधी चुनाव जीत जाती तो एक अखिल भारतीय छवि और स्वीकार्यता
के साथ राजनीति में उनका पदार्पण होता । हुआ भी वही लेकिन सोनिया ने अपने पति की सीट
अमेठी को ही चुना और बेल्लारी से इस्तीफा दे दिया । दो हजार चार में जब पूरे भारत में
इंडिया शाइनिंग का जोर चल रहा था तब भी सोनिया गांधी ने अमेठी और रायबरेली से चुनाव
लड़ा था और दोनों सीटें जीती थी । बाद में अमेठी सीट छोड़ दूी थी जहां से राहुल गांधी
पहली बार सांसद बने । इस बार भी कमोबेश वही स्थितियां थी फर्क सिर्फ इतना था कि चिंता
लोकसभा पहुंचने की थी अखिल भारतीय स्वीकार्यता तो सोनिया गांधी को हासिल हो ही चुकी
थी ।
दो हजार चार के ही लोकसभा चुनाव में लालू यादव छपरा और मधेपुरा दो लोकसभा सीट से
चुनाव लड़े थे । दो हजार चार में लालू यादव का आकर्षण और लोकप्रियता दोनों ही कम हो
चुका था । बिहार के राजनैतिक क्षितिज पर नीतीश का उदय हो चुका था । लिहाजा लालू यादव
अपनी जीत को लेकर आशंकित थे । ये अलहदा है कि लालू यादव दोनों सीट से जीत गए थे और
मधेपुरा की सीट खाली कर दिया था । लालू यादव तो बाद में भी छपरा और दानापुर से चुनाव
लड़ चुके हैं । छपरा में उन्हें जीत हासिल हुई थी लेकिन दानापुर सीट से वो हार गए थे
। दानापुर से एक समय उनके सहयोगी रहे रंजन यादव ने उन्हें पटखनी दी थी । इसी तरह समाजवादी
पार्टी के नेता मुलायम सिंह भी दो लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं । उन्नीस सौ
निन्यानवे में संभल और कन्नौज दोनों सीट से चुनाव लड़कर विजयी हुए थे । बाद में उन्होंने
संभल सीट से अपने सुपुत्र अखिलेश यादव को चुनाव लड़वाया था । पिता की परंपरा को आगे
बढ़ाते हुए अखिलेश यादव ने भी दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कन्नौज के अलावा फिरोजाबाद
से चुनाव लड़ा था । अखिलेश ने भी दोनों जगह जीत हासिल की और उपचुनाव में फिरोजाबाद
से अपनी पत्नी डिंपल को चुनाव लड़वाया लेकिन यहां दांव उल्टा पड़ गया था और कांग्रेस
के राज बब्बर ने डिंपल को हरा दिया था । नीतीश भी दो सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं ।
इस बार भी मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं ।
आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का उद्देश्य नरेन्द्र मोदी के प्रभाव को कम करना बताया गया ।
इन क्षेत्रीय दलों के नेता अपने प्रभाव वाले राज्य से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा
पाते हैं जबकि इंदिरा और सोनिया ने उत्तरी राज्यों के अलावा दक्षिणी राज्यों से चुनाव
लड़ा था । बुनियादी फर्क यह है कि राष्ट्रीय दल के नेता लोकसभा की सीट पक्की करने के
अलावा अखिल भारतीय स्वीकार्यता के लिए दो जगहों से चुनाव लड़ते हैं जबकि क्षेत्रीय
दलों के नेता सिर्फ सीट पक्की करने के लिए दांव लगाते हैं । यही बात मोदी पर भी लागू
होती है ।
दो जगहों से चुनाव लड़ने
वालों की इतनी लंबी सूची बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि ना तो कानूनन और ना ही नैतिक
रूप से यह गलत है । जनप्रतिनिधि कानून उन्नीस सौ इक्यावन की धारा तैंतीस के मुताबिक
कोई भी भारतीय नागरिक को दो से ज्यादा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ सकता है चाहे वो लोकसभा
का चुनाव हो, विधानसभा का हो या फिर विधान परिषद का । यही नियम उपचुनावों के दौरान
भी लागू होता है । इसी कानून की धारा सत्तर में यह प्रावधान है कि अगर कोई उम्मीदवार
दो सीटों से जीतता है और तय समय के अंदर एक सीट से इस्तीफा नहीं देता है तो दोनों ही
सीट खाली मानी जाएगी । इस पृष्ठभूमि में और इस कानून के प्रभावी होने से किसी भी उम्मीदवार
के दो सीटों से खड़े होने पर कोई पाबंदी नहीं है और ना ही गलत है । नैतिकता पर सवाल
उठाने का हक तो सब को है ही ।
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