चंद दिनों पहले की बात है । इतिहासकार बिपिन चंद्रा का निधन
हुआ । राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ में दीक्षित होकर भारतीय जनता पार्टी में पहुंचे राम
माधव ने उनके निधन पर शोक जताते हुए ट्वीट किया था कि बिपिन चंद्रा का इतिहास लेखन
में अप्रतिम योगदान है । राम माधव के ट्वीट
पर संघ मामलों के जानकार होने का दावा करनेवाले राकेश सिन्हा ने आपत्ति जताई और कहा
कि वो राम माधव से इस मामले में सहमत नहीं हैं । मैंने राकेश सिन्हा के ट्वीट पर हस्तक्षेप
करते हुए लिखा कि आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है । ठीक उसी तरह से राम माधव को
अपनी राय व्यक्त करने का । इसपर राकेश ने मुझे ट्वीट पर ही जवाब दिया कि आप अपने मिजाज
में संघ विरोधी हैं लिहाजा संघ के बारे में अपमानजनक बात कहनेवाले आपको प्रिय लगते
हैं । यहां सिर्फ यह याद दिलाना चाहता हूं कि बातें राम माधव और उनके बिपिन चंद्रा
की श्रद्धांजिल पर हो रही थी । अब अगर राम माधव संघ के बारे में अपमानजनक बातें कहते
हैं और इसलिए मैंने उनका समर्थन किया तो फिर कुछ कहना व्यर्थ है । दूसरी बात यह कि
बिपिन चंद्रा ने जो विपुल इतिहास लेखन किया उसको देखते हुए उन्हें कम से कम राकेश सिन्हा
के प्रमाण पत्र की आवश्कता तो नहीं है । अब एक और प्रसंग सुनिए- हिंदी के एक वरिष्ठ
आलोचक हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खासे सक्रिय हैं । वामपंथी विचारधारा की शव साधना
में तल्लीन रहते हैं । फेसबुक और अन्य जगहों पर वो मुझे संघी घोषित कर चुके हैं और
गाहे बगाहे राष्ट्रवादी पत्रकार कहकर चुटकी लेते रहते हैं । उनका दर्द यह है कि मैं
वामपंथ में व्याप्त कमियों और खामियों पर लगातार क्यों लिखता हूं । उनका दुराग्रह ये
होता है कि मोदी और संघ के बारे में उसी तीव्रता से क्यों नहीं लिखता हूं जिसके आधार
पर वामपंथ और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा करता हूं । लिहाजा वो पेसबुक पर कई बार
मुझे खुले आम चुनौती दे चुके हैं कि मैं नरेन्द्र मोदी या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक
संघ की आलोचना करूं । इसका एक तीसरा कोण भी है । एक समूह संपादक ने एक बार अपने संपादकीय
पृष्ठ प्रभारी से पूछा था कि अनंत विजय क्यों राहुल गांधी के खिलाफ लिखते रहते हैं
। सवाल एक सिन्हा, आलोचक या समूह संपादक का नहीं है । सवाल उस प्रवृत्ति का है जो अपने
वैचारिक विरोधियों को किसी खास रंग में रंग कर छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं । दरअसल
यह प्रवृत्ति बौद्धिक दिवालियापन से उपजता है । उपर के वाकयों में एक साझा सूत्र है,
वह यह कि किसी विचारधारा, दल या उसके नेताओं या नीतियों की आलोचना पर अब बौद्धिक तर्कों
के आधार पर विमर्श की गुंजाइश नहीं रही । बौद्धिक होने का दावा करनेवाले लोग भी अब
विरोधियों की ब्रांडिंग कर देने पर अपनी सारी उर्जा और तर्क शक्ति खर्च करने लगे हैं
। दरअसल अगर हम देखें तो इस प्रवृत्ति का विकास नब्बे के दशक में प्रारंभ हुआ । सोवियत
रूस के विखंडन और चीन में विचारधारा के नाम पर अधिनायकवादी कदमों पर कुछ लेखकों और विद्वानों ने सवाल खड़े करने शुरू
कर दिए । सोवियत रूस और चीन के बहाने से हमारे देश के वामपंथियों और उनकी करतूतों पर
भी सवाल खड़े होने लगे। हमारे वामपंथी विद्वान मित्र उन सवालों से मुठभेड़ की बजाए
सवाल करनेवालों को संघी करार देकर उसे हंसी में उड़ाकर अपमानित करने लगे । सवाल तो
फिर भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े रहे । कालांतर में संघ की वकालत करनेवाले स्वयंभू
विद्वानों ने वामपंथियों की इस तकनीक या तरकीब का अनुसरण शुरू कर दिया । फिर वही हुआ
। एक दूसरे से नफरत की हद तक वैचारिक मतभेद करनेवाले अपने अपने विरोधियों को परास्त
करने के लिए एक ही वैचारिक औजार का इस्तेमाल करने लगे ।
मेरे मन में बहुधा यह सवाल उठता है कि क्या एक पत्रकार को
इस या उस विचारधारा के साथ खड़ा होना चाहिए । क्या एक पत्रकार को बगैर वस्तुनिष्ठ हुए
अपने तर्कों में विचाचारधारा विशेष का सहारा लेना चाहिए । क्या एक पत्रकार के लिए यह
उचित है कि वो दल विशेष की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्तुतिगान करे या फिर खबरों
को इस तरह से मोड़ दे कि किसी दल या नेता विशेष को फायदा पहुंचे । ऐसे कई उदाहरण है
जब पत्रकारों ने ऐसा किया हो । इस सच को स्वीकारने का साहस वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर
ने दिखाया है । अपनी किताब एक जिंदगी काफी नहीं में उन्होंने स्वीकार किया है यूएनआई
की नौकरी में रहते हुए वो लालबहादुर शास्त्री को सलाह देते थे । इसके अलावा उन्होंने
माना कि यूएनआई की टिकर में उन्होंने मोरारजी देसाई के खिलाफ एक खबर लगा दी जिसका फायदा
लालबहादुर शास्त्री को हुआ । पर मेरा मानना है कि पत्रकार को अपने लेखन में ईमानदार
होना चाहिए । वहां किसी भी तरह की बेईमानी पूरे पेशे को संदिग्ध करती है । मेरा अपना
मानना है कि पत्रकारों की आत्मा हमेशा सत्य के पक्ष में झुकी होनी चाहिए । किसी और
की तरह झुकाव उसकी लेखनी को संदिग्ध करती है । अगर बगैर किसी पक्ष में झुके लेखन होता
रहा तो यह तय मानिए कि हर पक्ष में आपको किसी और पक्ष का दिखाने या साबित करने की होड़
लगी रहेगी । पत्रकार की सफलता इसी में है ।
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