आज हिंदी दिवस है । एक फिर से सालाना उत्सव की तरह हिंदी
पर खतरे की बात होगी । हिंदी पखवाड़े के नाम पर सरकारी कार्यालयों में पंद्रह दिनों
तक हिंदी के उत्थान पर बातें होंगी। हिंदी के नाम पर, उसके विकास के नाम पर होनेवाले
इस सालाना आयोजन पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । यह सब एक कर्मकांड की तरह होगा और फिर
हालात सामान्य । हर साल की तरह इस बार भी ज्यादातर वक्ता हिंदी में अंग्रेजी शब्दों
के बढ़ते इस्तेमाल और उसके भ्रष्ट होने पर छाती कूटते नजर आएंगें । हिंदी को लेकर इस
तरह की चिंता दशकों से जताई जा रही है लेकिन समस्या की जड़ में जाने का गंभीर प्रयास
नहीं हो रहा है । अब अगर हम अगर इतिहास की ओर चलें तो हिंदी को लेकर गंभीर चिंता वहां
भी दिखाई देती है । हिंदी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्तूबर
1910 को प्रस्ताव पारित किया था – विश्वविद्यालय शिक्षा
में हिंदी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्र लिपि का निर्धारण । तकरीबन सौ साल बाद भी
हमारे शीर्ष विश्वविद्लायों में हिंदी को अबतक आदर नहीं मिल पाया है और अब भी अंग्रेजी
के बरक्श दोयम दर्जे पर ही है । इसी तरह से साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में पुरुषोत्तम
दास टंडन के बनाए प्रस्तावों को पास किया गया । इसमें सबसे अहम था सारे देश में हिंदी
के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिंदी साहित्य
की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों
की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना । आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे
पुरखों के प्रण अब भी अधूरे हैं । हिंदी दिवस पर हिंदी की स्थिति पर विलाप करने से
बेहतर होगा कि हम साहि्तय सम्मेलन में करीब सौ साल पहले पारित प्रस्तावों पर अब भी
गंभीरता से काम करने की कोशिश करें । इन विषयों पर अगर हिंदी में मौलिक लेखन शुरू करवाने
में कामयाब हो सकें तो यह हिंदी को मजबूत करने की दिशा में उठाया गया एक संजीदा कदम
होगा ।
हिंदी के साथ दूसरी बड़ी समस्या है कि इसको हमेशा से अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी
के दुश्मन के तौर पर पेश किया गया । हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहोदर जैसा व्यवहार
करना होगा । अंग्रेजी से भी हिंदी को दुश्मनी छोड़कर उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने
की कोशिश करनी पड़ेगी क्योंकि दुश्मनी से नुकसान दोनों पक्षों का होता है । महात्मा
गांधी भी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और वो इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते
थे लेकिन गांधी जी ने भी कहा भी था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वो प्रांतीय
भाषाओं की जगह ले ले । वह अतिरिक्त भाषा होगी और अंतरप्रांतीय संपर्क के काम आएगी ।
हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे
देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां आपसी समन्वय और सामंजस्य
के सिद्धांत को लागू करना होगा । इतना अवश्य है कि हमें यह सोचना होगा कि हिंदी राजभाषा
तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा एक नहीं हो
सकी । इसका बड़ा नुकसान यह हुआ कि अंग्रेजी में कामकाज करनेवालों ने हिंदी को उसके
हक से वंचित रखा । अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बना दिया कि हिंदी अगर हमारे
देश की भाषा बन गई तो अन्य भारतीय भाषाएं खत्म हो जाएंगी । लेकिन बावजूद इसके हिंदी
बगैर किसी सरकारी मदद के अपना पांव फैला रही है और पूरे देश में संपर्क भाषा के रूप
में स्थापित हो चुकी है । इसने विंध्य को पार किया भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंची,
पूर्वोत्तर में भी हिंदी को लेकर एक माहौल बनने लगा है । हिंदी दिवस पर अगर हम सचमुच
चिंता में हैं और दिल से इस भाषा का विकास चाहते हैं तो हमें भारतीय भाषाओं से संवाद
को बढ़ाना होगा । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा । अन्य भारतीय
भाषाओं में यह विश्वास पैदा करना होगा कि हिंदी के विकास से उनका भी विकास होगा । इस
काम में भारत सरकार की बहुत अहम भूमिका है । उसको साहित्य अकादमी या अन्य भाषाई अकादमियों
के माध्यम से इस काम को आहे ब़ढ़ाने के काम को बढ़ावा देने के उपाय ढूंढने होंगे ।
साहित्य अकादमी ने भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच
अनुवाद का काम भी अकादमी गंभीरता से नहीं कर पा रही है । अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी
को लेकर जो शंकाए हैं उसको भी यह आवाजाही दूर कर सकेगी । हिंदी के विकास के लिए केंद्र
सरकार ने वर्धा में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का गठन किया था । लेकिन
यह विश्वविद्यालय अपने स्थापना के लगभग डेढ दशक बाद भी अपनिी पहचान बनाने के लिए ही
संघर्ष कर रहा है । इस विश्वविद्यालय के माध्यम से भी हिंदी के विकास के लिए काम करने
कीअनंत संभावनाएं हैं जिसपर काम होना अभी शेष है । हिंदी में शुद्धता की वकालत करनेवालों
को भीअपनिी जिद छोड़नी होगी । नहीं तो हिंदी के सामने भी संस्कृत जैसा खतरा उत्पन्न
हो जाएगा । गुलजार ने एक गाना लिखा था – कजरारे कजरारे
जो काफी हिट रहा । उसकी एक लाइन है – आंखें भी कमाल
करती हैं, पर्सनल से सवाल करती है । अब इसमें पर्सनल हटा कर व्यक्तिगत करने पर वो तीव्रता
नहीं महसूस की जाती है ।
एक और अहम काम करना होगा कि सरकारी हिंदी को थोड़ा सरल बनाया जाए । सरकार में हिंदी
की जिन शब्दावलियों का इस्तेमाल होता है उसको आसान बनाने के लिए शिद्दत के साथ जुटना
होगा । भारत सरकार के पत्रकारिता और मुद्रण शब्दकोश को आज के हिसाब से बनाने के प्रोजेक्ट
से जुड़े होने के अवुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि सरकारी कामकाज के लिए जिन शब्दकोशों
का उपयोग होता है वो बहुत पुराने हो चुके हैं । हिंदी इस बीचकाफी आधुनिक हो गई है ।
उसने अंग्रेजी के कई शब्दों को अपने में समाहित कर लिया है । इन शब्दकोशों को आधुनिक
बना देने से सरकारी हिंदी भी आधुनिक हो जाएगी । इसकी वजह से एक बड़ा वर्ग लाभान्वित
होगा और हिंदी ज्यादा लोकप्रिय हो पाएगी । तब ना तो हिंदी दिवस पर स्यापा होगा और ना
ही उसकी चिंता पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे ।
1 comment:
भाषा को आसान बनाने की बात दोहराई जाती है, वह सहीं नहीं है। निजी शब्द दारिद्र्य को भाषा पर थोपकर हम कौनसा हिंदी का भला करेंगे? हिंदी अपनी अनेक बोलियों के आधार पर टिकी है, सरल करने के चक्कर में मानक रूप से खिलवाड़ ठीक नहीं। संगणक सरल है, कंप्यूटर कठीन यदि इसे स्वीकारें ...।
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