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Monday, September 1, 2014

मोदी सरकार के सौ दिन

एक बहुत पुरानी कहावत है कि शासन इकबाल से चलता है । राजा या शासक की हनक हो तो फिर ज्यादातर काम बेहद सुचारू रूप से कार्यान्वित हो जाता है । नरेन्द्र मोदीकी सरकार ने जब जब 26 मई को कामकाज संभाला था तो प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी की हनक साफ हो चुकी थी । इन सौ दिनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का इकबाल भी पूरे तौर पर स्थापित हो चुका है लिहाजा गवर्नेंस में, नीतिगत फैसलों में कहीं कोई दिक्कत देखने को नहीं मिल रही है । पिछले दस साल से सहयोगी दलों की वैशाखी और सोनिया गांधी की मर्जी पर चल रही मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में शासक का नो तो इकबाल दिखता था और ना ही उनकी हनक । ऐसा लगता था कि एक ही सरकार में कई कई प्रधानमंत्री काम कर रहे हैं । सरकार का हाल वैसा ही था जैसा उस रथ का होता है जिसमें जुते चारों घोड़े अलग अलग दिशा में दौड़ने लगते हैं । मोदी की अगुवाई में जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया तो इस बात की उ्ममीद बढ़ गई थी कि एक लोकतांत्रिक संस्था के तौर पर प्रधानमंत्री के पद की गरिमा बहाल होगी । मोदी सरकार के सौ दिन के कार्यकाल की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि देश में प्रधानमंत्री के पद की गरिमा बहाल और उसकी सर्वोच्च सत्ता स्थापित हुई । इसका असर देश में हर ओर दिखने लगा । चाहे वो विदेशी निवेशकों का भरोसा हो या फिर विकास दर हो या फिर विदेश नीति हो । यह प्रधानमंत्री की हनक ही है कि अमेरिका भी उनकी आगवानी के लिए पलक पांवड़े विछाए हुए है । अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही नरेन्द्र मोदी ने इस बात के संकेत दे दिए थे कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध उनकी प्राथमिकता होंगे । अपनी सरकार के सौ दिन पूरे होने के पहले उन्होंने भूटान और नेपाल की यात्रा की और विदेश मंत्री को बांग्लादेश और म्यांमार के दौरे पर भेजा । इन कदमों से सरकार की नीति औरनीयत दोनों के संकेत तो मिलते ही हैं क्योंकि भारत जैसे विशाल देश में किसी भी सरकार के आकलन के लिए सौ दिन का वक्त बहुत ही कम है ।
मोदी सरकार के सौ दिन की एक उपलब्धि यह मानी जा सकती है कि सरकार काम करती हुई दिखने लगी है । मंत्रालयों में बाबू वक्त पर मौजूद रहने लगे हैं । यह एक ऐसा बदलाव है जो सीधे सीधे लोगों को दिखाई देता है । पर किसी भी सरकार के आकलन के लिए यह बड़ा आधार नहीं हो सकता है । मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करना है । पिछले सौ दिन में अगर हम मानव संसाधन मंत्रालय के कामकाज पर नजर डालते हैं तो वहां से कोई बिग टिकट आइडिया दिखाई नहीं देता है । मोदी सरकार की शुरुआत ही में मानव संसाधन मंत्रालय दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से उलझ गया था । हमारे देश में युवाओं की इतनी बड़ी संख्या है और प्रधानमंत्री लगातार कौशल विकास की बात करते हैं ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की महती जिम्मेदारी है कि वो देश में कौशल विकास के लिए जमीन तैयार करे । मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी खुद युवा और उर्जावान हैं तो उनसे यह अपेक्षा और बढ़ जाती है । बावजूद इसके मानव संसाधन मंत्रालय में फैसलों में देरी हो रही है । देश के दर्जनभर से ज्यादा विशवविद्यालयों के कुलपति के पद खाली हैं लेकिन उसको भरने की प्रक्रिया भी काफी धीमे गति से चल रही है । इसी तरह से पर्यावरण मंत्रालय में जयंति टैक्स भले ही खत्म हो गया है लेकिन विकास री राह में बाधा बन रहे कानूनों को बदलने की बातें तो हो रही हैं लेकिन ठोस पहल नहीं दिखाई दे रही है । पर्यावरण मंत्रालय ने हलांकि 5 जून से लेकर 28 जुलाई तक कई अहम फैसले लिए । 24 जुलाई को एक अहम फैसले में पर्यावरण की मंजूरी के लिए रुके डेढ सौ प्रोजेक्टों को एक साथ हरी झंडी दी गई ।
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की थी । अप्रैल जून की तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.7 फीसदी होने से अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के संकेत मिले हैं । इसके पहले के दो तिमाही में आर्थिक विकास दर 4.6 फीसदी के करीब थी । मोदी सरकार के काबिल वित्त मंत्री अरुण जेटली भले ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटाने में लगे हों लेकिन खराब मॉनसून की वजह से चुनौती और बढ़ती जा रही है । इसके अलावा वित्त मंत्रालय के सुधार प्रस्तावों को अमली जामा पहनाना बाकी है । रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के बारे में कानून में बदलाव का एलान हो गया है लेकिन उसपर कार्रवाई शेष है । इंश्योरेंस में 49 फीसदी विदेशी निवेश का कानून नहीं बन पाया है । एक्सपेंडिचर मैनेजमैंट कमीशन बना दिया गया है, कमेटी का एलान भी हो गया है लेकिन अबतक उसका टर्म ऑफ रेफरेंस सार्वजनिक नहीं हो पाया है । इस सरकार ने गुड्स एंड सर्विस टैक्स को देशभर में लागू करवाने का दावा किया था लेकिन अब इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि यह कानून इस साल के अंत तक लागू हो पाएगा ।
मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती महंगाई पर काबू पाना था । जानकारों का मानना है कि सरकार को इस दिशा में अभी बहुत काम करना है । फल, सब्जी, चीनी जैसे आवश्यक वस्तुओं की कीमतो में कमी नहीं आने से मध्यमवर्ग के माथे पर चिंता की लकीरें कम नहीं हो रही है । सरकार को यह कोशिश करनी होगी कि चिंता की इन लकीरों को लोगों के माथे पर गहराने ना दें । इस दिशा में ही कदम उठाते हुए सरकार ने पेट्रोल की कीमतों और गैर सब्सिडी वाले सिलिडरों की कीमत में कमी की है । लेकिन अगर पिछले सौ दिन के सरकार के कार्यकाल में महंगाई पर उटाए गए कदमों को देखें तो वो नाकाफी हैं । सरकार को इस दिशा में ठोस कदमन उठाने होंगे । साथ ही सरकार को चाहिए कि वो अपनी पार्टी के नेताओं को महंगाई पर संवेदनहीन बयान देने से रोकें । प्रधानमंत्री के हाथ में जादू की छड़ी नहीं है जैसे बयान मध्यवर्ग की भावनाओं को आहत करते हैं ।
इसके अलावा पिछले सौ दिन में सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए नया कानून बनाया और कोलेजियम सिस्टम को खत्म कर दिया । यह मोदी सरकार के अहम फैसलों में से एक है । कोलेजियम सिस्टम पर अपने पसंद के लोगों को जज नियुक्त करने के आरोप लगते थे जिसकीआड़ में सरकार ने यह कदम उठाया । अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति छह सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगी । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्टके ही दो वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और दो मशहूर न्यायविद या नागरिक इस कमीशन के सदस्य होंगे । नए कानून के मुताबिक कमीशन में दो न्यायविदों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता की तीन सदस्यीय कमेटी करेगी । कानून के मुताबिक अगर छह सदस्यीय कमीशन के दो सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उनका नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा । नियुक्ति के लिए कम से कम पांच सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है । अब पेंच यहीं से शुरू होता है । संविधान कहता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को वरीयता (प्राइमेसी) होगी । कल्पना कीजिए कि किसी भी जज की नियुक्ति के वक्त पांच सदस्य सहमत हैं और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश उससे असहमत हैं तो क्या होगा । क्या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को दर किनार करते हुए पांच सदस्यों की राय पर जज की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को संस्तुति कर दी जाएगी । अगर ऐसा होता है तो राष्ट्रपति के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा । राष्ट्रपति इस मसले को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत फिर से सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं । वहां जाकर एकबार फिर से मामला फंस सकता है । इस कानून में और भी कई झोल हैं और अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा । सरकार के लिए यह सरदर्द बन सकता है । इसके अलावा सालों पुराने योजना आयोग को खत्म करके नई संस्था बनाने का कदम भी बेहतर है ।  
सौ दिन के मोदी सरकार की से लोगों को काफी उम्मीदें हैं । सरकार काम करती हुई दिख रही है । यह आनेवाले दिनों में तय होगा कि जिन उम्मीदों पर मोदी सरकार को जनता ने चुना था उन अपेक्षाओं पर सरकार खड़ी उतर पाई है या नहीं लेकिन इसके लिए सौ दिन नाकाफी हैं ।

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