हिंदी साहित्य का इतिहास जितना पुराना है लगभग उतना
ही पुराना साहित्य में वाद विवाद और संवाद की परंपरा है । वाद विवाद और संवाद की इस
गंभीर परंपरा में साहित्यक विदूषकों की अपनी अलग ही परंपरा और पहचान रही है । दिल्ली
की साहित्यक राजधानी में तब्दील होने के पहले साहित्य में अलग अलग शहरों का अपना अलग
अलग महत्व था । पटना, वाराणसी, इलाहाबाद, कलकत्ता, हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में बड़े
साहित्यकारों की मौजूदगी साहितय् के परिदृश्य को आश्वस्त करती रहती थी । इन साहित्यकारों
के बीच एक जीवंत संवाद हुआ करता था और एक दूसरे की स्वस्थ आलोचना भी । दिनकर की रचना
उर्वशी पर लंबा विवाद हुआ था, जिसने उस वक्त के साहित्यक परिदृश्य को झकझोर कर रख दिया
था । उर्वशी पर उठे विवाद के बीच भी कई हल्की और व्यक्तिगत टिप्पणियां हुई थी जिसे
उस विदूषकों की टिप्पणियां कहकर हिंदी जगत ने खारिज कर दिया । हिंदी में विवादों की
लंबी परंपरा के बीच साहित्यक विदूषकों का अपना एक अलग स्थान है । वो रचना से अधिक रचनाकारों
के बारे में अपने पूर्वग्रहों के आधार पर टिप्पणी करते चलते थे । वर्तमान साहित्य के
जनवरी 2001 के अंक में जब राजेन्द्र यादव का विवादास्पद लेख – होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ –छपा था तब भी हिंदी साहित्य ने इन विदूषकों ने अपने
होने का एहसास करवाया था । उस वक्त भी उनके लिखे पर उनका मजाक उड़ा था । दरअसल विदूषकों
की यह प्रजाति अपनी अज्ञानता और मूढ़ता में कुछ ऐसी बातें कह जाते हैं जो उनके पूर्वग्रह
को उजागर और कुंठा को सार्वजनिक कर देते हैं । होना सोना के बाद वर्तमान साहित्य के
ही मई 2001 अंक में कवि उपेन्द्र कुमार की एक कहानी झूठ का मूठ छपी थी । इस कहानी में
तलवार को एक रूपक के तौर पर उठाया गया था । इस कहानी में तलवार को एक प्रतीक के तौर
पर जातीय दंभ से जोड़कर देखनेवाले साहित्यकारों ने चुप्पी साध ली थी, लेकिन कई विदूषकों
ने खूब हल्ला गुल्ला मचाया था और अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी ।
कालांतर में जब साहित्यक विवाद कम हुए तो इन विदूषकों
की प्रजाति के सामने अपने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया । मार्क जुकरबर्ग का लाख लाख
शुक्र कि उन्होंने फेसबुक का प्लेटफॉर्म पेश किया और इन साहित्यक विदूषकों को मंच मिल
गया । फेसबुक के मंच पर लिखने की अराजक आजादी ने इन साहित्यक विदूषकों के हौसले बुलंद
कर दिए । अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे ये विदूषक जोर शोर से अपनी अज्ञानता और
कुंठा का प्रदर्शन करने लगे । साहित्य विदूषकों की इस गौरवशाली परंपरा में इन दिनों
कुछ पत्रकार और समीक्षकनुमा लेखक भी शामिल हो गए हैं । तकरीबन एक दशक पहले तक साहित्यक
विदूषकों का भी एक स्तर होता था वो रचना पढ़ते थे और फिर उसके आधार पर रचनाकारों पर
टिप्पणी करते थे । इन दिनों विदूषकों ने पढ़ना छोड़ दिया है आजकल वो लिफाफा देखकर खत
का मजमून भांपने लगे हैं । नतीजा यह हो रहा है कि लिफाफे के आधार पर ये विदूषक जो टिप्पणी
करते हैं उससे इनका ही मजाक उड़ता है । किसी प्रवृत्ति पर लिखे लेख को किताब की समीक्षा
बताकर ये घरने की कोशिश करते हैं और खुद को एक्सपोज कर डालते हैं । एक और बार बात हुई
है कि इन दिनों साहित्यक विदूषकों की कुंठा इतनी बढ़ गई है कि वो भाषा की मर्यादा भी
भूल गए हैं । विदूषकों की इस मनोरंजक उपस्थिति के बीच भी साहित्य में संवेदना बची हुई
है, कही विवेक भी । हिंदी भाषी समाज पहले भी और अब भी इन विदूषकों को पहचानता है और
हास्य के इन इन बुलबुलों को देखता निकल जाता है ।
1 comment:
इस पर एक बड़ा लेख लिखा जा सकता है। अच्छा विषय चुना आपने।
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