हिंदी कविता के महानतम हस्ताक्षरों में से एक गजानन माधव
मुक्तिबोध के ऩिधन के पचास साल इसी सितंबर में पूरे हो रहे हैं । सितंबर उन्नीस सौ
पैंसठ के नया ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा
था – ‘अप्रिय’ सत्य की रक्षा का काव्य रचनेवाले कवि मुक्तिबोध को अपने
जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी । श्रीकांत
वर्मा ने अपने उसी लेख में आगे मुक्तिबोध के कवित्व के वैशिष्ट्य को व्याखायित भी किया
था । कालांतर में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध निराला के बाद
हिंदी के सबसे बड़े कवि के तौर पर ना केवल स्थापित हुए बल्कि आलोचकों ने उनकी कविताओं
की नई नई व्याखाएं कर उनको हिंदी कविता की दुनिया में शीर्ष पर बैठा दिया । आलोचकों
में मुक्तिबोध की कविताओं का सिरा पकड़ने को लेकर घमासान भी हुआ । डॉ रामविलास शर्मा
ने उन्नीस सौ अठहत्तर में प्रकाशित अपनी किताब- नई कविता और अस्तित्ववाद में मुक्तिबोध
की कविताओं का विस्तार से मूल्यांकन किया था । अपनी किताब में रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध
की कविताओं को अस्तित्ववाद और रहस्यवाद से प्रभावित साबित करने में कोई कोर कसर नहीं
छोड़ी । डॉ शर्मा ने तो मुक्तिबोध को सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से ग्रस्त बता दिया
था । नामवर सिंह ने डॉ रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध को लेकर स्थापना का जबरदस्त विरोध
किया । इन दो आलोचकों के बीच इस बात को लेकर लंबे समय तक बहस हुई कि कि मुक्तिबोध की
रचनाओं में संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष है या फिर पूरे मध्यवर्ग का संघर्ष
है । कालांतर में अन्य आलोचकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं पर सवाल उठाए । मुक्तिबोध
पर रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल उनके संकीर्णतावादी मार्क्सवादी
होने का परिणाम करार देते हैं और कहते हैं कि मुक्तिबोध ना केवल मानसिक रोगी नहीं थे
बल्कि अपने युग के सर्वाधिक सुगठित व्यक्तित्ववाले रचनाकार थे । हिंदी साहित्य में
मुक्तिबोध के कम्युनिस्ट होने या नहीं होने को लेकर भी लंबा विवाद चला । मुक्तिबोध
कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे यह नेमिचंद्र जैन को उज्जैन से 12 मार्च 1943 को लिखे
पत्र से साफ है । उस पत्र में उन्होंने लिखा था कि –मैं पुन: पार्टी का सदस्य बना लिया गया हूं । मुझे कुछ निश्चित कार्य
दिए गए हैं जिन्हें करना मेरे लिए खुशी की बात है । लेकिन उनकी रचनाओं का निकट से अध्ययन
करने के बाद यह साफ होता है कि मार्क्सवाद में उनकी आस्था अवश्य थी लेकिन वो उसको अपने
गले में गिरमलहार बनाकर नहीं लटकाए चलते थे ।
लीलाधर मंडलोई के संपादन में नया ज्ञानोदय ने सितंबर का अंक
मुक्तिबोध पर एकाग्र किया है । इस अंक में मुक्तिबोध की कुछ अप्रकाशित रचनाओं के अलावा
शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा अशोक वाजपेयी समेत कई लेखकों के लेख प्रकाशित हैं
। इस अंक से नई पीढ़ी को मुक्तिबोध के बारे में जानने की मदद मिलेगी । श्रीकांत वर्मा
ने उन्नीस सौ पैंसठ में आशंका जताई थी कि मुक्तिबोध को शायद कभी लोकप्रियता नहीं मिलेगी
। अब यह ठीक से नहीं पता कि श्रीकांत वर्मा का लोकप्रियता से क्या आशय था लेकिन पिछले
पचास साल से तो मुक्तिबोध की कविताओं ने हिंदी साहित्य को झकझोर कर रखा हुआ है। उनकी
रचनाएं आलोचकों को लगातार चुनौती दे रही जिससे आलोचक मुठभेड़ भी कर रहे हैं । उनकी
मशहूर कविता अंधेर में और चांद का मुंह टेढा है को लेकर अब भी आलोचकों में व्याख्यायित
करने की होड़ सी लगी है । गजानन माधव मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्य तिथिपर उनको नमन
No comments:
Post a Comment