भारत में
बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए लगभग तीन दशक से सक्रिय कैलाश सत्यार्थी को जब
शुक्रवार को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार देने का एलान हुआ तो अपनी पहली प्रतिक्रिया
में कैलाश सत्यार्थी ने यह सम्मान भारत की सवा सौ करोड़ जनता को समर्पित करते हुए बाल
शोषण के खिलाफ अपने जंग को जारी रखने की बात कही । लंबे समय से भारत में अपने संगठन
बचपन बचाओ आंदोलन के माध्यम से बाल मजदूरों और बाल श्रमिकों के हितों की रक्षा में
जुटे कैलाश सत्यार्थी बारत के दूसरे ऐसे शख्स हैं जिन्हें शांति के लिए विश्व का सबसे
बड़ा सम्मान नोबल पुरस्कार से नवाजा जाएगा । इसके पहले ये सम्मान मदर टेरेसा को दिया
जा चुका है । कैलाश सत्यार्थी को तालिबान से लोहा लेनेवाली बहादुर पाकिस्तानी लड़की
मलाला युसुफजई के साथ साझा पुरस्कार दिया जाएगा । ओस्लो में शांति के लिए जब नोबेल
पुरस्कार का एलान किया गया तो स्वीडिश अकादमी ने कैलाश सत्यार्थी के प्रशस्ति में कहा
कि कैलाश सत्यार्थी ने महात्मा गांधी की परंपरा को बरकरार रखा और बाल शोषण के खिलाफ
अनेक प्रकार के आंदोलनों की अगुवाई की । नोबेल समिति की प्रशस्ति में महात्मा गांधी
का नाम लिया जाना कई संदेश छोड़ता है । अपने सौ साल से ज्यादा के इतिहास में नोबले
सम्मान ने गांधी जी को सम्मानित नहीं करके जो भूल की है यह उसका एक प्रायश्चित है ।
महात्मा गांधी को नोबेले नहीं दिए जाने पर अनेकों बार विश्व की कई मशहूर हस्तियों ने
सवाल खड़े किए हैं । अब महात्मा गांधी की परंपरा के वाहक को सम्माननित करके स्वीडिश
अकादमी ने बापू को पुरस्कार से उपर का दर्जा दे दिया है । कैलाश सत्यार्थी शांति के
लिए इस नोबेल पुरस्कार को पाकिस्तान की बहादुर बच्ची मलाला के साथ साझा करेंगे । बच्चों
के लिए काम करनेवाला और तालिबान से लोहा लेने वाली एक बच्ची, अद्भुत संयोग लगता है
लेकिन नोबेल पुरस्कार समिति ने बहुत सोच समझकर यह चयन किया है । नोबेल समिति के मुताबिक-
एक हिंदू और एक मुस्लिम, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी के शिक्षा और आतंकवाद के खिलाफ
संघर्ष को एक साझा संघर्ष मानते हुए इसको अहमित दिए जाने का फैसला हुआ । इस एक वाक्य
में नोबेल पुरस्कार समिति की मंशा साफ झलकती है । एक भारतीय और एक पाकिस्तानी कहने
तक तो उचित था लेकिन पुरस्कार विजेताओं को उनके धर्म या विश्वास के साथ खड़ा करना उचित
नहीं लगता है । कैलाश सत्यार्थी को हिंदू और मलाला को मुसलमान बताने के नोबेल समति
के बयान पर सवाल खड़े हो रहे हैं । सवाल तो यह भू पूछा जा रहा है कि क्या इसके पहले
के शांति पुरस्कार पानेवालों के धर्म के बारे में नोबेल समिति ने कभी कुछ कहा । इसका
दूसरा पक्ष यह है कि भारत और पाकिस्तान में जारी तनातनी के बीच नोबेल पुरस्कार समिति
दोनों देशों को एक संदेश देना चाह रही है लेकिन फिर भी इस संदेश के लिए पुरस्कृत लोगों
को हिंदू और मुसलमान बताना गलत है । इतना अवश्य है कि नोबेल पुरस्कार ने दोनों देशों
को एक अवसर दिया है साझा खुशी का । मलाला युसुफजई ने तो पुरस्कार के बाद अपने संदेश
में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से
अपील की है कि वो दोनों पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान मौजूद रहें । अगर यह होता है
तो दोनों देशों के बीच के रिश्तों में आई हालिया खटास को कम करने का एक अवसर तो होगा
ही ।
इन बहसों
से अलग हटकर अगर हम विचार करें तो कैलाश सत्यार्थी को नोबेल भारत के लिए गौरव का क्षण
है । 11 जनवरी उन्नीस सौ चौवल को जन्मे कैलाश सत्यार्थी ने अपने आंदोलन के जरिए अबतक
लगभग अस्सी हजार बच्चों को बाल मजदूरी से मुक्त करवाकर शिक्षा से जोड़ा है । कैलाश
सत्यार्थी ने उन्नीस सौ अस्सी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की नौकरी छोड़कर बच्चों के
अधिकारों के लिए काम करना शुरू किया । उन्नीस सौ चौरानवे में उन्होंने रगमार्क की स्थापना
की । यह दक्षिण एशिया में एक तरह का बालश्रम मुक्त का सोशल सर्टिफिकेट है जो अब गुड
वेव के रूप में जाना जाता है । कैलाश सत्यार्थी ने जब बाल श्रमिकों को मुक्त करवाने
का अभियान छेड़ा था तो वो उन फैक्ट्रियों में छापा मारा करते थे । इस काम में उन्होंने
कई बार अपनी जान जोखिम में डाली थी । इस पूरे आंदोलन के दौर में कैलाश सत्यार्थी ने
अपने दो साथियों को खोया भी है । उन्हें फैक्ट्री मालिकों और यहां तक कि पुलिसवालों
का भी विरोध झेलना पड़ा था । उस दौर में कैलाश सत्यार्थी ने मीडिया को अपना साथी बनाया
था । लंबे समय तक कैलाश सत्यार्थी की यह कहकर आलोचना की जाती रही कि वो बच्चों को तो
मुक्त करवा देते हैं लेकिन उसके बाद गरीब बच्चों के सामने खाने के लाले पड़ जाते हैं
। कैलाश किसी भी तरह की आलोचना से नहीं डिगे और अपने काम को मिशन समझकर उसमें डटे रहे
। बनारस के भदोई से लेकर झारखंड के सुदूर आदिवासी कस्बों में कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों
को मुक्त करवाकर उनके शिक्षा की व्यवस्था की । कैलाश सत्यार्थी मानते हैं कि जिलस काम
को उन्होंने विदिशा के एक छोटे से घर से शुरू किया था अब वो विश्व भर में फैल गया है
। वो सम्राट अशोक के बच्चों, महेन्द्र और संघमित्रा की तरह पूरे विश्व में शांति का
के लिए काम करना चाहते हैं । इसी तरह से सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार जीतनेवाली
मलाला ने भी शिक्षा के अधिकार के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी । पाकिस्तानी तालिबानियों
ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी थी लेकिन वो अपने अधिकारों के लिए संघर्ष से नहीं
डिगी । नतीजा यह हुआ कि तालिबानियों ने उनके सर में गोली मार दी । आज जिस मलाला को
पाकिस्तान सरकार अपने देश के लिए गौरव करार दे रही है उसके हमलावरों को इतने साल बीत
जाने के बाद भी सजा नहीं हो पाई है । कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबेल के लिए शांति्
पुरस्कार देकर स्वीडिश अकादमी ने उपमहाद्वीप में शांति के बीज बोने की कोशिश की है
। कितना फलित होता है यह देखनेवाली बात होगी ।
जिस तरह से
शांति के लिए नोबेल पुरस्कार अनपेक्षित तौर पर कैलाश सत्यार्थी को मिला उसी तरह से
साहित्य के लिए भी इस बार फ्रांस के लेखक पैट्रिक मोदियानो को जब दिया गया तो पूरा
साहित्य जगत हैरत में पड़ गया । पुरस्कार के एलान के बाद पैट्रिक मोदियानो ने भीमाना कि उन्हें इस बात की उम्मीद
नहीं थी कि साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार उनको मिलेगा। हलांकि पिछले कई दिनों से सट्टा
बाजार में पैट्रिक मोडियानो का भाव लगातार बढ़ते जा रहा था । इसकी वजह उनके लेखन से
वैश्विक पाठकों का कम परिचित होना है । पैट्रिक मोदियानो की ज्यादातर रचनाएं फ्रेंच
में हैं । पुरस्कार के एलान के पहले नोबेल पुरस्कार देनेवाली संस्था उनसे संपर्क कायम
करने में नाकाम रही थी और उनकी बेटी को इसकी सूचना दी गई थी। पैट्रिक मोदियानो मीडिया
से भी काफी दूर रहते हैं । स्वीडिश अकादमी के सचिव पीटर इंगलैंड ने जब पैट्रिक मोदियानो
के नाम का एलान किया तो उन्होंने भी ये माना कि ‘हलांकि पैट्रिक मोदियानो की बाल साहित्य समेत करीब बीस किताबें प्रकाशित
हैं,जिनमें से कई तो अनुदित हैं । फ्रांस में वो एक जाना-माना नाम हैं जबकि अन्य जगह
पर उनकी कोई खास पहचान नहीं है ।‘ लेकिन यह भी एक एक तथ्य है कि फ्रांस में पैट्रिक मोदियानो काफी लोकप्रिय हैं
। उनकी किताबों का फ्रेंच पाठकों को इंतजार रहता है । इस बार इस बात के कयास लगाए जा
रहे थे कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के लेखक फिलिप रॉथ को मिलेगा । अमेरिकी
आलोचकों को इस बात का मलाल है कि स्वीडिश अकादमी अमेरिका के लेखकों को लेकर पूर्वग्रह
से ग्रस्त रहती है । अबतक दिए गए एक सौ ग्यारह पुरस्कारों में से चौदह बार फ्रेंच साहित्यकारों
को ये पुरस्कार मिल चुका है ।
पैट्रिक मोदियानो स्कूल ड्रॉप आउट हैं और उन्होंने अपनी
जिंदगी में बहुत पहले लिखना शुरू कर दिया था । उनका जन्म द्वितीय विश्वयुद्द के बाद
हुआ लेकिन उनके लेखन मे विश्वयुद्द के दौर की स्मृतियों की छाप किसी ना किसी रूप में
मौजूद रहती है । यहूदी इतावली मूल के पिता और बेल्जियन अभिनेत्री मां की संतान पैट्रिक
इन दिनों पेरिस के एक उपनगर में रहते हैं और दो हफ्ते पहले ही उनकी नई कृति ‘सो दैट यू डोंट देट लॉस्ट इन द नेबरहुड’ प्रकाशित हुई है जिसे आत्मकथात्मक उपन्यास कहा जा रहा
है । पुरस्कार समिति ने पैट्रिक मोदियानो की प्रशस्ति में उन्हें युद्ध से जुड़ी यादों
और उसका लोगों के मन मस्तिश्क पर पड़नेवाले प्रभावों के चित्रण को बेजोड़ करार दियया
है । उनहत्तर साल के पैट्रिक मोदियानो का पहला उपन्यास तेईस साल की उम्र में छप गया
था । उन्नीस सौ अठहत्तर में पहले ये फ्रेंच में छपा और दो साल बाद उन्नीस सौ अस्सी
में “मिसिंग पर्सन’ के नाम से अंग्रेजी में अनुदित हुआ । उनके इस उपन्यास
ने खूब शोहरत बटोरी थी । इसके अलावा ‘ट्रेस ऑफ मलाइस’ और ‘हनीमून’ उनकी दो और मशहूर किताबें
हैं । उपन्यास और बाल साहित्य के अलावा मोदियानो की फिल्मों में भी गहरी रुचि है ।
उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा लिखी और विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म फेस्टिवल की जूरी में
रहे । पैट्रिक मोदियानो का ज्यादातर लेखन संस्मरणात्मक है । पैट्रिक मोदियानो ने अपने
इस पुरस्कार को अपने नाती को समर्पित किया है जो स्वीडन का ही रहनेवाला है । इससे यह
प्रतीत होता है कि मोदियानो बेहद पारिवारिक शख्सियत हैं जिनके लेखन में भी यह झलकता
है ।
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