दीवाली बीतने के बाद माना जाता है कि त्योहार
का मौसम खत्म हो गया है लेकिन यह अजब संयोग है कि दीवाली के बाद हिंदी साहित्य में
पुरस्कारों का मौसम शुरू हो जाता है । साहित्य अकादमी समेत कई अहम पुरस्कारों की प्रक्रिया
शुरू होती है । साहित्य अकादमी के लिए युवा पुरस्कार के लिए नाम मांगे जा रहे हैं तो
केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कारों के आवेदन की तिथि बस अभी अभी गुजरी है । इसके
अलावा कई पुरस्कार जो पहले घोषित किए जा चुके हैं उनके अर्पण समारोह आयोजित होने शुरू
होंगे । इस मौसम में धवलकेशी साहित्यकारों से लेकर बिल्कुल टटके लेखकों तक को पुरस्कृत
किया जा रहा है । अशोक वाजपेयी से लेकर अर्चना राजहंस तक को पुरस्कृत किया जाएगा ।
पुरस्कारों के इस मौसम में देश के अलावा विदेशों में भी पुरस्कारों की बरसात हो रही
है । स्थापित लेखकों को उनकी किताबें छपवाने के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं । दरअसल
हिंदी में इस वक्त पुरस्कारों की साख पर बड़ा सवालिया निशान है । ऐसे ऐसे लेखक पुरस्कृत
हो रहे हैं जिनके लेखन से वृहद हिंदी समुदाय अबतक परिचित भी नहीं है । उनको निराला
से लेकर प्रेमचंद तक के नाम पर स्थापित पुरस्कार दिए जा रहे हैं और उन्हें उनती परंपरा
का बताया जा रहा है । जिस लेखक को उसके मुहल्ले के लोग नहीं जानते उनको मशहूर लेखक
कहा जा रहा है । पुरस्कृत लेखकों की प्रशस्ति में शब्दों का भयानक अवमूल्यन दिखने को
मिल रहा है । कोई विचारक हुआ जा रहा है तो कोई चिंतक । इन भारी भरकम विशेषणों के बोझ
तले दबे ये हिंदी के पुरस्कार लेखकों के लिए हितकर नहीं हैं । पिछले वर्ष लमही सम्मान
के लेकर उठा अनावश्यक विवाद अब भी साहित्य प्रेमियों के जेहन में हैं ।
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की इस दयनीय
स्थिति के लिए खुद हिंदी के लेखक औपर उनकी पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार हैं । इस वक्त
अगर हम देखें तो एक अनुमान के मुताबिक हिंदी में कहानी कविता उपन्यास आदि को मिलाकर
तकरीबन पचास छोटे बड़े पुरस्कार दिए जाते हैं । इसके अलावा अनेक राज्य सरकारें भी थोक
भाव से पुरस्कार बांटती हैं । कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट
के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के
पुरस्कारों के लिए आवेदन करते हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जो पुरस्कार का कारोबार करनेवालों
के लिए एक सुनहरा अवसर मुहैया करवाती है । हिंदी में ज्यादातर पुरस्कारों की राशि इक्कीस
सौ से लेकर इक्यावन सौ तक है । कइयों में तो सिर्फ शॉल श्रीफल से भी काम चल जा रहा
है । हिंदी में कई पुरस्कारों की आड़ में ‘खेल’ भी होते हैं जो साहित्य जगत के लिए शर्मनाक है । दरअसल हिंदी
के लेखकों में प्रसिद्ध होने की हड़बड़ाहट पुरस्कारों के इस कारोबार को खाद पानी मुहैया
करवाती है । नई पीढ़ी के लेखकों में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है
- जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी
कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस
प्रवृत्ति को बांपते हुए पुरस्कारों के कारोबारी अपनी बिसात बिछाते हैं । हिंदी में
पुरस्कारों के इस कारोबार पर बड़े लेखकों की चुप्पी साहित्य के लिए अच्छा नहीं है ।
हिंदी के हित में यह अच्छा होगा कि लेखकगण पुरस्कृत होने की जद्दोजहद में वक्त जाया
नहीं करके अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काम करें ।
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