ऐसा नहीं हैं कि सिर्फ हिंदी साहित्य के सामने पाठकों
का संकट है या हिंदी साहित्य को युवा पाठक नहीं मिल रहे हैं । यही संकट भारतीय शास्त्रीय
संगीत और गजलों को लेकर भी है । भारत की युवा पीढ़ी शास्त्रीय गायन की गौरवशाली परंपरा
से या तो अनजान है या उनकी उस विधा में रुचि विकसित नहीं हो रही है । नई पी़ढ़ी अपने देश की गायकी और पुराने महान गायकों
के काम और नाम दोनों से लगभग अनभिज्ञ है, अनजान है । सात अक्तूबर को मलिका –ए-गजल बेगम अख्तर साहिबा की सौंवी सालगिरह है । उनके
सौ साल पूरे होने पर जिस तरह का जश्न और जलसा होना चाहिए था वो नदारद है । एक जमाना
था जब पूरे देश में ये मोहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया से लेकर मेरे हमनफस मेरे हमनवां
जैसे लफ्जों को बेगम अख्तर की आवाज गूंजा करती थी । इन शब्दों को जब बेगम अक्तर की
आवाज मिलती थी तो लोग उसमें डूब जाया करते थे । मोहब्बत के अंजाम पर रोनेवाले अब संगीत
और गजल के अंजाम पर रोने को मजबूर हैं । बेगम अख्तर जिन्हें मल्लिका ए गजल कहा जाता
था, आज उनके सौ साल पूरे होने पर छिटपुट समारोहों के अलावा याद करनेवाला कोई नहीं है
। बेगम अख्तर की उपस्थिति संगीत की दुनिया से भी नदारद है । आज से सौ साल पहले उत्तर
प्रदेश के फैजाबाद जिले में अख्तरी बाई का जन्म हुआ था । सात साल की उम्र से ही अख्तरी
बाई ने अपनी आवाज की जादू का जलवा बिखेरना शुरू कर दिया था । पहले चंदरबाई फिर पटना
के उस्ताद इमदाद खान से संगीत सीखने के बाद अख्तरी बाई ने पटियाला और कोलकाता में संगीत
को साधने का काम जारी रखा था । उम्र के बढ़ने के साथ साथ अख्तरी बाई की शोहरत भी बढ़ने
लगी थी । बेहतरीन उर्दू शायरी को अपनी आवाज देने की जिद ने उन्हें कड़ी मेहनत और घंटों
की रियाज के लिए प्रेरित किया था । नतीजा यह हुआ कि कठिन से कठिन उर्दू शायरी को भी
अख्तरी बेगम ने साध लिया । अपनी गायकी में भारतीय शास्त्रीय संगीत के इस्तेमाल से उन्होंने
गजल गायकी को एक नई ऊंचाई दी । एक जमाने में जो विशेषता अख्तरी बेगम की गायकी की विशेषता
थी वही अब उसकी लोकप्रियता में बाधा बनने लगी है । यह सही है कि वक्त के साथ पसंद और
स्टाइल दोनों बदलते हैं । आज की युवा पीढ़ी की रुचि गाने के बोल में कम उसके संगीत
में ज्यादा है । इन दिनों अगर हम फिल्मी संगीत को देखें तो धुनों को लेकर ज्यादा बात
होती है बोल या गीत पर कम काम हो रहा है । “मेरे फोटो को सीने से डाल चिपकाए लें सैंया फेविकोल से” और ‘मैं तो कब से हूं रेडी तैयार पटा ले सैंया मिस्ड कॉल से” की लोकप्रियता से साफ है कि गाने के बोल की महत्ता
कम हुई है । इसी तरह से हम देखें तो फिल्मी गानों में शास्त्रीय संगीत का इस्तेमाल
कम होने लगा है । नैन डॉ जइहैं तो मनवां मां कसक होइबे करी जैसा गाना गाने के लिए गायकों
को सिद्धहस्त होना पड़ता था और इस तरह के बोल कठिन रियाज की मांग भी करते थे । अब जबकि
माहौल में गीत पर संगीत हावी हो गया है तो उच्च कोटि की शायरी में जगल गानेवाली बेगम
अख्तर भी धीरे धीरे भुलाई जाने लगी ।
हिंदी साहित्य में पश्चिम की नकल में उत्तर आधुनिकता
का नारा भले ही ज्यादा नहीं चल पाया हो लेकिन जादुई यथार्थवाद का डंका तो खूब बजा था
। जादुई यथार्थवाद के नाम पर लिखी गई कहानियां पाठकों ने खूब पसंद भी की थी । इसी तरह
से पश्चिम से ली गई अवधारणा स्त्री विमर्श और दलित विमर्श भी हिंदी साहित्य में चला
। साहित्य की तर्ज पर ही संगीत में भी पश्चिमी संगीत और वहां के साजो समान का प्रभाव
पड़ा । पश्चिमी साजो सामान और उपकरणों के इस्तेमाल में अंधानुकरण ने परंपरागत भारतीय
संगीत को काफी नुकसान पहुंचाया है । पश्चिमी संगीत की वकालत करनेवालों ने भारतीय गीत-संगीत
के बारे में यह बात फैलाई कि भारतीय संगीत बेहद धीमा है । उन्होंने ही ये भ्रम फैलाया
कि युवा पीढ़ी रफ्तार चाहती है और चूंकि भारतीय संगीत धीमा है लिहाजा युवाओं के मन
को नहीं भा रही है । धीमा संगीत के दुश्प्रचार ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का काफी नुकसान
किया । बेगम अख्तर के जीवन के सौ साल में ही हमें उनकी गायकी को बचाने और उसे लोकप्रिय
बनाने के लिए प्रयास करना पड़ेगा । यह सही है कि एक विधा के तौर पर गजल उतना लोकप्रिय
नहीं रहा जितने कि फिल्मी गाने लेकिन फिर भी गजल के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग हुआ
करता था । अस्सी के दशक में पंकज उधास और टी सीरीज की जुगलबंदी ने गजल को खूब लोकप्रिय
बनाया । पंकज के गाए गजल हर गली मोहल्ले में बजे । लेकिन वह गजल विधा का निचला सिरा
था । गजल गायकी के उस अंदाज को फौरी लोकप्रियता तो हासिल हुई लेकिन फिर उतनी ही तेजी
से लोगों ने उसको भुला ही दिया । बेगम अख्तर के सौ साल पूरे होने पर इस बात पर गंभीरता
से विचार करना होगा कि खालिस उर्दू शायरी और गजल की शास्त्रीय विधा को कैसे बचाया जाए
। बेगम अख्तर भारतीय गायकी की धरोहर हैं और अपने धरोहरों को लेकर हमें संजीदा होना
पड़ेगा । संगीत की दुनिया के लोगों को इस काम में पहल करनी होगी । बेगम अख्तर के नाम
पर संगीत समारोह के आयोजनों से लेकर उनके अंदाज में गायकी करनेवालों की पहचना भी करनी
होगी । एक बार यह काम हो जाए तो फिर उसको लोकप्रिय बनाने के लिए संघर्ष करना होगा ।
हमारा यही प्रयास बेगम अख्तर के लिए हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
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