उन्नीस सौ सत्तावन में नयी कहानी पर टिप्पणी करते हुए
हरिशंकर परसाईं ने कहा था- ‘जहां तक कहानी के शिल्प और तंत्र का प्रश्न है, यह समान्यत: स्वीकार किया जाता है कि हम आगे बढ़े हैं । नये जीवन
की विविधताओं को, मार्मिक प्रसंगों को, सूक्ष्मतम समस्याओं को चित्रित करने के लिए
कहानी के शिल्प ने विविध रूप अपनाये हैं । हमसे पहले की कहानी का एक पूर्व निर्धारित
चौखटा था, छन्दशास्त्र की तरह उसके भी पैटर्न तय थे । पर जैसे नवीन अभिव्यक्ति के आवेग
से कविता में परंपरागत छन्द-बन्धन टूटे, वैसे ही अभिव्यक्ति की मांग करते हुए नये जीवन
प्रसंगों, नये यथार्थ ने, कहानी को इस चौखटे से निकाला । आज जीवन का कोई भी खण्ड, मार्मिक
क्षण, अपने में अर्थपूर्ण कोई भी घटना या प्रसंग कहानी के तंत्र में बंध सकता है ।
जीवन के अंश को अंकित करनेवाली हर गद्य रचना, जिसमें कथा का तत्व हो, आज कहानी कहलाती है । ...सामाजिक जीवन की वर्तमान जटिलता, उसके अंतर्विरोध,
उसकी नयी समस्याएं अभिव्यक्त करने के लिए कहानी ने विभिन्न नवीन निर्वाह-पद्धतियां
अपनायी हैं ।‘ कथाकार और चित्रकात्र प्रभु जोशी का कहानी संग्रह
पढ़ते हुए अनायास ही स्मृति में हरिशंकर परसाईं की उक्त उक्ति कौंध गई । अपने इस कहानी
संग्रह में प्रभु जोशी ने कहानी के परंपरागत चौखटे को ध्वस्त किया है । जीवन के अंश
को अंकित करनेवाली घटनाओं को उसकी जटिलताओं और अंतर्रविरोधों को एक साथ प्रभु जोशी
ने उठाया है । इन सबके होने के बावजूद इसमें कथा तत्व है, लिहाजा ये कहानी हैं । पितृऋण
कहानी संग्रह की कहानियां उन्नीस सौ तेहत्तर से लेकर उन्नीस सौ सतहत्तर तक की आठ कहानियां
संग्रहीत हैं । इन कहानियों के पहले लेखक का आत्मकथ्य है । प्रभु जोशी का यह आत्मकथ्य
सारिका के मशहूर स्तंभ गर्दिश के दिन के लिए लिखा गया था । प्रभु जोशी का यह जो आत्मकथ्य
है वह उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि बता देता है । प्रभु जोशी का किसी भी बात को कहने
का अंदाज निराला है । यह अंदाज उनकी कहानियों में बार बार आता है जो पाठकों को कभी
हंसाता है, कभी उदास कर जाता है, कभी उसको विस्मित या चकित भी कर देता है, तो कभी गंभीर
मंथन के लिए विवश कर देता है । जैसे आत्मकथ्य में अपने जन्म का वर्णन करते हैं – ‘उस रात मां का चैन छिना था, मां बताया करती है, पहले ऐन सुबेरे से हथौड़े मार दर्द
सिर में हुआ । शाम को धंसती कटार की तरह पेट में । और अंत में पौ फटने के पहले कोई
चार बजे ग्रामीण दाई ने दरांती की दरकार की और मां के पेट में चीरा लगाने के बाद मुझे
पैर खींचकर बाहर निकाला था । शायद यह सिलसिला उसी दिन के बाद से शुरू हो गया कि सुरक्षा
की कोशिश में ढूंढ ली गई हर जगह से, मैं टांग खींचकर ही बाहर निकाला जाता रहा हूं ।‘ किसी भी घटना को बताने के बाद उसके साथ जोचिप्पणी चिपकाते
हैं प्रभु जोशी वह उनके कथा कौशल या यों कहें कि कहने के अंदाज को बेमिसाल बनाता है
। अपनी कहानी मोड़ पर में वो लिखते हैं- स्वयं को भले घर का लड़का सिद्ध करने के लिए
हमेशा मैंने झुक कर रूपायन बाबू के बाकायदा चरण स्पर्श भी कर लिये थे । इस कार्रवाई
को मैंने चापलूसी के खाने से निकालकर, भविष्य के श्वसुर के सम्मान में डाल दिया था
। यह मेरी समझ की सांस्कृतिक दूर दृष्टि थी । अब यह जो सांस्कृतिक दूर दृष्टि वाली
टिप्पणी है वह इस पूरे प्रसंग को यकायक उंचा उटा देता है ।
पितृऋण इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी कही जा सकती है
। इसमें कथा तत्व के साथ साथ एक मध्यवर्गीय परिवार की कशमकश की दास्तान भी है । पिता
के साथ बनारस जाने का वर्णन और यात्रा के दौरान पिता के साथ अपनी पहचान छुपाने का प्रसंग
इस कहानी को भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत के आसपास ले जाकर खड़ी कर देती है ।
चीफ का दावत में भी एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के सड़के का चीफ उसके घर आ रहा होता
है । घर को साफ सुथरा करने के क्रम में वो अपनी मां को भी छिपा देता है । वहां बिडंबवा
यह होती है कि चीफ की नजर उसकी मां पर पड़ जाती है । इसी तरह से प्रभु जोशी की इस कहानी
में एक गरीब परिवार का बेटा अपने पिता की त्वचा रोग की वजह से उसको ट्रेन में अपमानित
होते देखता रहता है, फिर भी उसके बचाव में नहीं उतरता है, अपमानित होने के लिए छोड़
देता है । ट्रेन में जब टीटीई अपमानजनक भाषा में उनसे टिकट मांगता है तो उसको रोग पिता
को सार्वजनिक रूप से पिता कहकर संबोधित करने में हिचक होती है । अंग्रेजी में टीटीई
को बताता है कि उसने बुजुर्ग को टिकट दिलवाया है क्योंकि उसके पास टिकट नहीं थे । एक
प्रसंग में वह ठंड से ठिठुरते पिता को अपना कंबल इस वजह से नहीं देता है कि महंगा लाल
इमली का कंबल खराब हो जाएगा । लेकिन टीटीई के इस अपमानजनक प्रसंग के बाद सोचता है कि
अगर पिताजी को अपना एक्सट्रा कंबल ओढ़ने को दे देता तो इस अप्रिय प्रसंग से बचा जा
सकता था । पिता के व्यवहार से बेटे को लगता है कि
वो ‘अनपढ़ होने के बावजूद
मूर्ख नहीं हैं ।‘ यह कहानी मध्यमवर्गीय परिवार के संपन्न
होने के बाद अपनी पुरानी पहचान से पीछा छुड़ाने की दास्तां है । इसका अंत बेहद मार्मिक
है ।
इसी तरह से इस संग्रह की कहानी किरिच भी एक अद्भुत प्रेम कहानी है ।जहां लड़का
और लड़की के बीच के प्रेम को संवाद के जरिए कभी मूर्त किया गया है तो कभी प्रतीकों
में उसको कहानीकार ने पेश किया है । हाल के दिनों में कहानी बहुत तेजी से और अनेक दिशाओं
फैल रही है । प्रसिद्धि के भागदौड़ में थोक के भाव से फॉर्मूलाबद्ध और रुटीन कहानियां
लिखी जा रही हैं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई कहानीकारों को लेकर हो हल्ला
मचा लेकिन वो साहित्य के बियावान में खो गए । दरअसल कविता की तरह इन दिनों ज्यादातर
कहानियां भी मांग पर लिखी जा रही हैं । जिस तरह की कहानियां प्रभु जोशी सत्तर के दशक
में लिख रहे थे उस तरह की कहानियां अब देखने को नहीं मिल रही हैं । प्रभु जोशी के इस
संग्रह में फलसफा भी है, शिल्प भी है, अनुभव भी है, संवेदना भी है और किस्सागोई तो
है ही । प्रभु जोशी की कहानियों की भाषा बहुत
सुंदर है लेकिन संवाद में जानबूझकर डाले गए अंग्रेजी के वाक्य कभी कभार गैर जरूरी लगते
हैं । प्रभु जोशी की कहानियों में बेवजह भी अंग्रेजी के शब्द आते हैं । जैसे पितृऋण
में एक्सट्रा कंबल की जगह अतिरिक्त कंबल से काम चल जाता । ये बातें मैं इसलिए रेखांकित
कर रहा हूं कि कहानीकार की भाषा बेहतरीन है और उसमें अंग्रेजी के शब्द बहुधा खटकते
हैं । संवाद में अंग्रेजी के वाक्य अटपटे नहीं लगते है बल्कि वो प्रसंग और स्थितियों
को सामान्य बनाते हैं । कुळ मिलाकर अगर हम देखें तो प्रभु जोशी का यह समीक्ष्य संग्रह
पितृऋण नए पाठकों को हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार से परिचय करवाता है ।
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