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Sunday, December 21, 2014

हाय हुसैन हम ना हुए !

छत्तीसगढ़ सरकार ने तीन दिनों का रायपुर साहित्य महोत्सव आयोजित किया था । यह एक सरकारी आयोजन था । इस आयोजन में हिंदी के वरिष्ठ कवियों और लेखकों की भागीदारी रही । इनमें विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना , अशोक वाजपेयी, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर ह्रषिकेश सुलभ जैसे दिग्गज लेखक शामिल हुई । इन वरिष्ठ लेखकों के अलावा पत्रकारिता के अच्युतानंद मिश्र और रमेश नैयर जैसे वरिष्ठ स्तंभ ने भी इस साहित्योत्सव में शिरकत की । वरिष्ठ लेखकों के अलावा साहित्य के समकालीन कथाकार कवियों ने भी अपनी उस्थिति से इस साहित्योत्सव को जीवंत बना दिया । इन दिनों साहित्य में जिस एक प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा है वह यह है कि सभी तरह के आयोजनों की समीक्षा फेसबुक पर होती है । लिहाजा रायपुर साहित्य महोत्सव के आयोजन के पहले उसके दौरान और उसके बाद इसको लेकर पक्ष विपक्ष में विमर्श प्रारंभ हो गया । विरोध में यह तर्क दिया जाने लगा कि चूंकि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के खिलाफ सख्ती से पेश आ रही है लिहाजा उसके आयोजन में जनपक्षधरता की पैरोकारी करनेवाले और वाम दलों में अपनी आस्था का सार्वजनित प्रदर्शन करनेवालों के शिरकत नहीं करनी चाहिए । जैसा कि आमतौर पर फेसबुक पर होता है कि वहां विमर्श के दौरान हर तरह की मर्यादा का उल्लंघन होता है । इस बार भी हुआ । हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल और कोलकाता के लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी के बीच हुई तीखी बहस गाली गलौच तक पहुंच गई । व्यक्तिगत हमले हुए । इसके अलावा साहित्य जगत में जुगनू की तरह चमकनेवाले कुछ लेखक कवि और कुछ छद्म लेखक भी फेसबुक पर रायपुर साहित्य महोत्सव में शामिल होनेवाले लेखकों को घेरने में जुटे । वहां मैत्रेयी पुष्पा और अन्य लोगों को सफाई देना पड़ा । फेसबुक के विमर्श की अराजकता एक बार फिर उजागर हो गई । लोगों ने एक दूसरे पर लाभ लोभ लेने का सस्ता और घटिया आरोप जड़ा ।  
दरअसल रायपुर साहित्य महोत्सव का विरोध करनेवालों में ज्यादातर लोग हाय हुसैन हम ना हुए सिंड्रोम के शिकार नजर आए । ज्यादातर फेसबुकिया साहित्यकारों की पीड़ा यह थी कि उनको वहां आमंत्रित क्यों नहीं किया गया । उनकी यह पीड़ा बार बार झलक रही थी । हिंदी के एक कवि ने अपने ना बुलाने के दर्द को अपनी कविता के माध्यम से सार्वजनिक कर दिया । छत्तीसगढ़ सरकार पर आरोप लगानेवाले लेखकों को यह नहीं मालूम था कि साहित्य महोत्सव के दौरान मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में की अर्धसती पूरे होने पर एक पूरा का पूरा सत्र रखा गया था जिसमें इस कविता और मुक्तिबोध की जनपक्षधरता पर जमकर विमर्श हुआ । कवि नरेश सक्सेना, प्रभात त्रिपाठी और लीलाधर मंडलोई ने इस कविता को नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम किया था । नरेश सक्सेना ने तो इस कविता पर बोलते हुए एक नई स्थापना दी । उनका कहना था कि अंधेर में के प्रकाशन के बाद कविता की धुरी उत्तर प्रदेश से हटकर मध्य प्रदेश पहुंच गई । उन्होंने अपनी इस स्थापना के पीछे कवियों की पूरी सीची गिनाई । उनका तर्क था कि अंधेर में की ताकत ने कवियों को ताकतवर बनाया । विरोध करनेवालों को यह तक नहीं मालूम कि एक सत्र- प्रतिरोध का साहित्य में हिंदी की वरिष्ठ लेखिका रमणिका गुप्ता ने तो आदिवासियों के मुद्दे पर छत्तीसगढ़ सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को कठघरे में खड़ा कर दिया था । इस साहिय्य महोत्सव में इस तरह के कई सत्र आयोजित किए गए थे जिनमें सत्ता पर जमकर हमले हुए । दूसरा आरोप यह लगाया गया कि इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भागीदारी रही । दरअसल मार्क्स के अंधानुयायियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वो संघ से बुरी तरह से आक्रांत रहते हैं । उन्हें जब किसी भी शख्स या आयोजन को डिफेम करना होता है तो वो संघ का सहारा लेते हैं । वामपंथियों का संघ पर अफवाह तंत्र में मजबूत होने का आरोप रहता है लेकिन वामपंथियों से बेहतर अफवाहतंत्र देश में किसी का नहीं है । क्योंकि वो अफवाह उड़ाने और उसको वैधता प्रदान करने के लिए विचारधारा का जमकर इस्तेमाल करते हैं और हर चीज को जनपक्षधरता से जोड़ देते हैं । इस पूरे कार्यक्रम के दौरान कहीं भी संघ का कोई पदाधिकारी नजर नहीं आया । किसी भी सत्र और वक्ताओं को सुनने के बाद यह नहीं लगा कि संघ इस कार्यक्रम के पीछे हैं । साहित्य से जुड़े हर व्यक्ति को इस तरह के आयोजनों की सराहना करनी चाहिए । साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर सरकारों में अगर अनुराग का भाव पैदा होता है तो यह एक अच्छी शुरुआत है । क्योंकि आयोजन में जो धन लगता है वह हम टैक्स देनेवालों का ही है । जनपक्षधरता की बात करनेवालों को जनता के पैसों पर होनेवाले आयोजनों का विरोध करते देखकर मुझे सलमान खान की फिल्म का एक डॉयलॉग याद आता है- तुम करो तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला ।
दरअसल हाल के दिनों में यह देखने को मिल रहा है कि राज्य सरकारें साहित्य आयोजनों में रुचि लेने लगी हैं । अभी हाल ही में बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग से सौजन्य दो दिनों का भारतीय कविता समारोह आयोजित किया गया । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम, मराठी, बांग्ला, तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवियों ने शिरकत की । शिरकत करनेवालों ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि केदारानाथ सिंह, हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि थे । इस जानकारी को साक्षा करने का उद्देश्य सूचना देना मात्र नहीं है बल्कि यह बताना है कि सरकारें साहित्य को लेकर सहृद्य हो गई हैं । बिहार में हुए इस कविता समारोह में सरकार ने कवियों को हवाई यात्रा के अलावा पांच सितारा होटलों में रुकवाया साथ ही पांच दस मिनट के कविता पाठ के लिए पच्चीस हजार रुपए का मानदेय भी दिया । यह एक सुखद संकेत है कि हमारी सरकारें रचनाकारों को आर्थिक सम्मान भी देने लगी है । बिहार में तीन दिन के भारतीय कविता समारोह की तुलना में रायपुर के साहित्य महोत्सव का फलक काफी बड़ा था । पटना में जहां काव्य पाठ हुआ वहीं रायपुर में काव्यपाठ के अलावा साहित्य की विभिन्न विधाओं और पत्रकारिता पर कई सत्र आयोजित थे । रायपुर साहित्य महोत्सव के विज्ञापन और होर्डिंग पूरे देश भर में लगाए गए थे । इन दोनों समारहों में एक बात जो कॉमन दिखाई दे रही है वो ये है कि यहां स्थानीय भाषा को भी प्रमुखता दी जा रही है । जैसे पटना के भारतीय कविता महोत्सव में अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा बिहार की लोकभाषाओं के कवि भी आमंत्रित किए गए थे । उन्होंने मैथिली, अंगिका, वज्जिका और मगही में काव्यपाठ किया । इसी तरह से रायपुर में छत्तीसगढ़ी पर भी कई सत्र आयोजित हैं । इस तरह से अगर हम देखें तो यह राज्य सरकारों की स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है ।
बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि हिंदी में सरकारी आयोजनों या नेताओं के साथ मंच साक्षा करने पर लेखक एक दूसरे की लानत मलामत किया करते थे । नेताओं के साथ मंच साक्षा करनेवालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । हिंदी में इस तरह का वातावरण तैयार कर दिया गया था कि सरकारी आयोजनों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । जब भारत भवन में अशोक वाजपेयी ने अर्जुन सिंह की सरपरस्ती में लेखकों को जोड़ने का काम शुरू किया था तब भी उली तरह का दुष्प्रचार किया गया था । वह दौर था जब देश में विचारधारा वाले साहित्य और साहित्यकार की तूती बोलती थी । उस दौर ने हिंदी साहित्य का जितना भला किया उससे ज्यादा उसका नुकसान किया । इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने साहित्य संस्कृति को वामपंथी विचारधारा वाले लेखकों के हवाले कर दिया । अब इन वामपंथी विचारकों ने इस तरह का ताना-बाना बुना कि सामान्य लेखकों को सरकार से दूर कर दिया । सरकार किनके पैसे पर चलती है । वह आम जनता का पैसा होता है । हमारे अपने पैसे पर आयोजित होनेवाले समारोहों से लेखकों को काट देने का एक षडयंत्र रचा गया । उसके तहत यह बात फैलाई गई कि सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले कवि-लेखक दरबारी हैं । जबकि उक्त विचारधाऱा के पोषक शीर्ष लेखक सरकारों से फायदा लेते रहे । तमाम कमेटियों में नामित होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे । विचारधाऱा के प्रभाव के कम होने के बाद अब ये सारी बातें सामने आने लगी हैं । ये उसी तरह के लोग हैं जो सरकारें चाहें किसी की भी रही हों साहित्यक संस्थाओं पर उनका ही कब्जा रहता आया है । हर सरकारी शिष्टमंडल में कुछ नाम घूमंफिर आते जाते रहे हैं । अब यह वक्त आ गया है कि सत्तर के दशक के बाद देश में जिस तरह से साहित्य संस्कृति को लेकर खेल खेला गया उसपर गंभीरता से विचार हो कि उस खेल से कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान हुआ 

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