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Sunday, December 7, 2014

साहित्य पर मेहरबान सरकार

अभी हाल ही में बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग से सौजन्य दो दिनों का भारतीय कविता समारोह आयोजित किया गया । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम, मराठी, बांग्ला, तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवियों ने शिरकत की । शिरकत करनेवालों ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि केदारानाथ सिंह, हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि थे । इस जानकारी को साक्षा करने का उद्देश्य सूचना देना मात्र नहीं है बल्कि इसके माध्यम से यह जानने की कोशिश है कि क्या हमारी सरकारें साहित्यको लेकर सहृद्य हो गई हैं । बिहार में हुए इस कविता समारोह में सरकार ने कवियों को हवाई यात्रा के अलावा पांच सितारा होटलों में रुकवाया साथ ही पांच दस मिनट के कविता पाठ के लिए पच्चीस हजार रुपए का मानदेय भी दिया । यह एक सुखद संकेत है कि हमारी सरकारें रचनाकारों को आर्थिक सम्मान भी देने लगी है । इसी तरह से दिसबंर के मध्य में छत्तीसगढ़ की सरकार भी रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन करने जा रही है । बिहार में तीन दिन के भारतीय कविता समारोह की तुलना में रायपुर के साहित्य महोत्सव का फलक काफी बड़ा है । पटना में जहां काव्य पाठ हुआ वहीं रायपुर में काव्यपाठ के अलावा साहित्य की विभिन्न विधाओं और पत्रकारिता पर कई सत्र आयोजित हैं । रायपुर साहित्य महोत्सव के विज्ञापन और होर्डिंग पूरे देश भर में लगाए गए हैं । इन दोनों समारहों में एक बात जो कॉमन दिखाई दे रही है वो ये है कि यहां स्थानीय भाषा को भी प्रमुखता दी जा रही है । जैसे पटना के भारतीय कविता महोत्सव में अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा बिहार की लोकभाषाओं के कवि भी आमंत्रित किए गए थे । उन्होंने मैथिली, अंगिका, वज्जिका और मगही में काव्यपाठ किया । इसी तरह से रायपुर में छत्तीसगढ़ी पर भी कई सत्र आयोजित हैं । इस तरह से अगर हम देखें तो यह राज्य सरकारों की स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है ।

बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि हिंदी में सरकारी आयोजनों या नेताओं के साथ मंच साक्षा करने पर लेखक एक दूसरे की लानत मलामत किया करते थे । नेताओं के साथ मंच साक्षा करनेवालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । हिंदी में इस तरह का वातावरण तैयार कर दिया गया था कि सरकारी आयोजनों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । वह दौर था जब देश में विचारधारा वाले साहित्य और साहित्यकार की तूती बोलती थी । उस दौर ने हिंदी साहित्य का जितना भला किया उससे ज्यादा उसका नुकसान किया । इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने साहित्य संस्कृति को वामपंथी विचारधारा वाले लेखकों के हवाले कर दिया । अब इन वामपंथी विचारकों ने इस तरह का ताना-बाना बुना कि सामान्य लेखकों को सरकार से दूर कर दिया । सरकार किनके पैसे पर चलती है । वह आम जनता का पैसा होता है । हमारे अपने पैसे पर आयोजित होनेवाले समारोहों से लेखकों को काट देने का एक षडयंत्र रचा गया । उसके तहत यह बात फैलाई गई कि सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले कवि-लेखक दरबारी हैं । जबकु उक्त विचारधाऱा के षोषक शीर्ष लेखक सरकारों से फायदा लेते रहे । तमामा कमेटियों में नामित होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे । विचारधाऱा के प्रभाव के कम होने के बाद अब येसारूी बातें सामने आने लगी हैं । अब यह वक्त आ गया है कि सत्तर के दशक के बाद देश में जिस तरह से साहित्य संस्कृति को लेकर खेल खेला गया उसपर गंभीरता से विचार हो कि उस खेल से कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान हुआ ।     

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