पिछले सात साल से साहित्य
का कैलेंडर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन से शुरू होता है । इस साल भी साहित्यक
आयोजनों में सबसे पहला आयोजन जयपुर साहित्य महोत्सव ही रहा । जयपुर के दिग्गी पैसेल होटल परिसर में सत्रह से पच्चीस जनवरी
तक पांच दिनों तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित था । जनवरी की हा़ड़ कंपा देनेवाली
सर्द सुबह में तत्कालीन राज्यपाल मारग्रेट अल्वा और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य
सेन ने इसकी औपचारिक शुरुआत की थी । जयपुर के इस साहित्योत्सव में अब विमर्श कम भीड़
ज्यादा होने लगी है । पिछले दो सालों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल विवादों की वजह से
चर्चा में रहा । पिछले साल समाजशास्त्री आशीष नंदी ने के पिछड़ों पर दिए गए बयान और
आशुतोष के प्रतिवाद ने पूरे देश में एक विवाद खड़ा कर दिया था । आशीष नंदी ने कहा था
कि – इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट कमन फ्राम दे ओबीसी एंड शेड्यूल कास्ट एंड
नाऊ इंक्रीजिंगली शेड्यूल ट्राइब्स । आशीष नंदी के उस बयान का उस वक्त पत्रकार रहे
और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने जमकर प्रतिवाद किया था । कुछ नेता भी इस विवाद
में कूद पड़े थे और आयोजकों और आशीष नंदी पर केस मुकदमे भी हुए थे, वारंट जारी हुआ
था । बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुलझा तबतक लिटरेचर फेस्टिवल हर
किसी की जुबां पर था । आशीष नंदी के बयान पर उठे विवाद के पहले पहले भारतीय मूल के
लेखक सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर अच्छा खासा विवाद हुआ था । कुछ कट्टरपंथी संगठनों
ने सलमान के जयपुर साहित्य महोत्सव में आने का विरोध किया था । उनकी दलील थी कि सलमान
ने अपनी किताब- सैटेनिक वर्सेस में अपमानजन बातें लिखी हैं जिनसे उनकी धार्मिक भावनाएं
आहत हुई थी । उस वक्त उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले थे लिहाजा सियासी दलों
ने भी इस विवाद को जमकर हवा दी और नतीजा यह हुआ कि सलमान रश्दी को आखिरकार भारत आने
की मंजूरी नहीं मिली । इस वर्ष कोई विवाद नहीं हुआ । हलांकि इस साल फ्रीडम जैसा उपन्यास
लिखकर दुनियाभर में शोहरत पा चुके अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन ने यह कहकर आयोजकों
को सकते में डाल दिया कि- जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसी जगहें सच्चे लेखकों के लिए खतरनाक
है, वे ऐसी जगहों से बीमार और लाचार होकर घर लौटते हैं । इसके पहले नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित अमर्त्य सेन ने आम आदमी पार्टी के उभार को भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती
के तौर पर पेश किया । वहीं अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नेत्रहीन लेखक वेद
मेहता ने मोदी पर निशाना साधा था और कहा था कि अगर वो देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो भारत
जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए खतरनाक होगा । अस्सी वर्षीय मेहता ने अपने विचारों
और वक्तव्य से स्पंदन पैदा करने की कोशिश की लेकिन उनके विचारों में मौजूद पूर्वग्रह
साफ झलक रहा था लिहाजा लोगों ने उनको गंभीरता से नहीं लिया ।
दूसरा बड़ा आयोजन दिल्ली में हुआ विश्व पुस्तक मेला रहा । विश्व पुस्तक मेले के दौरान
नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचवन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां
और संवाद हुए थे । पुस्तक मेला में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों
का सिर्फ जमावड़ा ही नहीं था बल्कि उन्होंने पाठकों के साथ अपने विचार भी साझा किए
। हिंदी महोत्सव तक आयोजित किए गए । पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस बार
मेला का चरित्र बदलने की भरसक कोशिश की । कुछ हद तक उसको बदलने में उनको सफलता भी मिली
। पुस्तक मेला के इस बदले हुए स्वरूप को देखकर मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि
ये मेला पुस्तकों के अलावा साहित्योत्सव के लिए भी मंच प्रदान कर रहा था । यह पुस्तक मेला लेखकों के महात्वाकांक्षाओं का उत्सव
था, खासतौर पर वैसे लेखकों का जिन्हें लेखक होने का भ्रम है और वो सोशल मीडिया पर अपनी
रचनाओं की बाढ़ से पाठकों का आप्लावित करते रहते हैं । इस बार के पुस्तक मेले में फेसबुकिया
लेखकों का ही जोर था । हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इन लेखकों में वरिष्ठ साहित्यकारों
के साथ फोटो खिंचवाने और उसे फौरन फेसबुक पर पोस्ट करने की होड़ लगी थी ।
तीसरा बड़ा आयोजन साहित्य अकादमी ने मार्च में 10 से
15 तारीख तक आोजित किया था । यह अकादमी का सालाना जलसा होता है जिसमें अकादमी पुरस्कार
विजेताओं को पुरस्कृत किया जाता है । उनसे बातचीत होती है । इस बार पहली बार सभी भाषाओं
के अकादमी पुरस्कार विजेताओं और मीडिया से बातचीत रखी गई थी । इस बातचीत के दौरान भाषा
को लेकर कई तीखे सवाल जवाब हुए । साहित्य अकादमी ने ही भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय
के सहयोग से चार दिनों का विश्व कविता समारोह सबद का आयोजन किया था । इसमें कई देश
के कवियों ने कविता पाठ किया । इस आयोजन को लेकर जिस तरह का उत्साह दिखाई देना चाहिए
था वो दिल्ली में दिखा नहीं । जरूरत इस बात की है कि इस तरह के आयोजनों को देश के अन्य
हिस्सों में किया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं को लाभ मिल सके । रवीन्द्र कालिया
के ज्ञानपीठ से रिटायर होने के बाद हिंदी कवि लीलाधर मंडलोई को कमान सौंपी गई । लीलाधर
मंडलोई ने वाक के नाम से मासिक आयोजन की शुरुआत की । तीन जुलाई को वाक के कार्यक्रम
में नामवर सिंह के संवाद था जो काफी दिलचस्प रहा था ।
कथा मासिक हंस की सालाना गोष्ठी देशभर के साहित्यकारों
के लिए एक सालाना साहित्यक जलसे की तरह है । दो दशक से ज्यादा समय से आयोजित हो रही
यह गोष्ठी पहली बार राजेन्द्र यादवव की अनुपस्थिति में हुई । रादेन्द्र यादव के निधन
के बावजूद उनकी बेटी रचना यादव ने ना केवल हंस को संभाला बल्कि अच्छे से इस गोष्ठी
को भी आयोजित किया । इस साल गोष्ठी का विषय था- वैकल्पिक राजनीति की तलाश । पटना पुस्तक
मेला का आयोजन भी हिंदी साहित्य के लिहाज से अहम रहा । इसके कई सत्रों में जमकर संवाद
हुए । वरिष्ठ कथाकार भगवानदास मोरवाल के नए उपन्यास – नरक मसीहा-
का लोकार्पण वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल, समाजशास्त्री सैबल गुप्ता और उषाकिरण खान ने
किया। इस बीच दिल्ली में रजा फाउंडेशन ने मुक्तिबोध पर एक अहम आयोजन ग्यारह सितंबर
को किया । यह वर्ष मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अंधेरे में के प्रकाशन का पचासवां वर्ष
है । इल आयोजन में मुक्तिबोध की रचनात्मकता और उसके छोरों पर गंभीर चर्चा हुई । दिल्ली
में जनवादी लेखक संघ का राज्य सम्मेलन भी एक नवंबर को आयोजित किया गया था । बिहार सरकार
के संस्कृति मंत्रालय ने पटना में भारतीय कविता समारोह
आयोजित किया था । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम, मराठी, बांग्ला,
तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवियों ने शिरकत की । शिरकत करनेवालों
ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि केदारानाथ सिंह, हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक
वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि थे । महाराष्ट्र के रायगढ़ में
12-13 दिसबंर को महाराष्ट्र हिंदी परिषद का बाइसवां अधिवेशन आयोजित किया गया था । लेकिन
इस साल का सबसे ज्यादा चर्चित आयोजन रहा रायपुर साहित्य महोत्सव । छत्तीसगढ़ सरकार ने तीन दिनों का रायपुर साहित्य महोत्सव आयोजित किया था । यह एक
सरकारी आयोजन था । इस आयोजन में हिंदी के वरिष्ठ कवियों और लेखकों की भागीदारी रही
। इनमें विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना , अशोक वाजपेयी, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर
ह्रषिकेश सुलभ, विभा रानी, अराधना प्रधान, पंकज दूबे, प्रभात रंजन, परमिता सत्पथी जैसे
दिग्गज लेखक, रंगकर्मी शामिल हुए इन वरिष्ठ लेखकों के अलावा पत्रकारिता के अच्युतानंद
मिश्र और रमेश नैयर जैसे वरिष्ठ स्तंभ ने भी इस साहित्योत्सव में शिरकत की । इस आयोजन को लेकर कई वामपंथी
लेखकों ने आपत्ति जताई और सोशल मीडिया पर अब भी इसको लेकर पक्ष विपक्ष में जमकर लिखा
जा रहा है
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