मशहूर व्यंग्यकार और हिंदी साहित्य जगत के अपने तरह के अनूठे रचनाकार हरिशंकर परसाईं
ने साहित्य और नंबर दो का कारोबार में लिखा है – ‘मैं भी सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर लिया । पहले
अपना कमाया पैसा भी अपना नहीं लगता था । अब सिर्फ दूसरों का खाया पैसा ही अपना कमाया
लगता है । सारे मूल्यों में क्रांति हो गई । पहले समारोहों में फूल माला पहनते खुशी
होती थी । अब वह गर्दन में लटका फालतू बोझ मालूम होती है । सांस्कृतिक क्रांति ने फूलों
की सुगंध छीन ली है और मैं माला पहनते हिसाब लगाता रहता हूं कि अगर हर फूल की जहग नोट
होता तो रहर वक्त कितने रुपए मेरे गले में लिपटे होते । मैं माला से उस लिफाफे की रकम
का अंदाज लगाता रहता हूं जो कि बाद में दिया जाएगा । मुझे गुलाब की माला पहनाओ, चाहे
गेंदे की, चाहे भटकटैया की – सब एक ही हैं । फूल की
पंखुड़ी सिक्के का एहसास देती है । बीच में मूल्यों का विघटन हो गया था. अब वे सिक्के
से जुड़ गए हैं । अपना मूल्यहीनता का युग समाप्त। जिनका चल रहा है वो इस पुरानी बीमारी
का इलाज कराएं । साहित्य में अच्छे अच्छे अनुभवी हकीम मौजूद हैं ।‘ बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग
द्वारा आयोजित अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह के बारे में जानकर परसाईं जी की उक्त पंक्तियां
शिद्दत से याद आईं । बिहार में मूल्यहीनता का युग समाप्त हो चुका है । वहां साहित्य
के एक से एक अच्छे और अनुभवी हकीमों ने मूल्यहीनता का एक ऐसा वातावरण बना दिया है कि
फूल की पंखुड़ी सिक्कों से जुड़ती चली जा रही हैं । बिहार में साहित्य कला और संस्कृति
के क्षेत्र में पिछले दिनों जिस तरह से विवाद और गिरावट आई है उससे कम से कम इस धारणा
की पुष्टि अवश्य होती है । हालिया उदाहरण है अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह के आयोजन
का । पच्चीस से लेकर सत्ताइस अप्रैल तक चलनेवाले तीन दिनों के इस कथा समारोह में लेखकों
के चयन को लेकर साहित्यक हकीमों ने जबरदस्त खेल खेला । इस आयोजन के लिए जिम्मेदार लोगों
में बिहार में जेडीयू कोटे से विधान परिषद के सदस्य रामबचन राय, एक जमाने में क्रांति
की कविता लिखने वाले आलोक धन्वा, हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित उषा किरण खान के
अलावा सूबे के सांस्कृतिक कार्य निदेशालय के निदेशक, संगीत नाटक अकादमी बिहार के सचिव
और संस्कृति विभाग के सहायक निदेशक को जिम्मा सौंपा गया । सबसे पहली गड़बड़ी इसके सहभागियों
के चयन को लेकर हुई । आयोजन समिति के दो सदस्यों ने अपने रिश्तेदारों को प्रतिभागी
बना दिया । रामबचन राय की पत्नी इंदु मौआर को बतौर कहानीकार प्रतिभागी बना दिया गया
और उषाकिरण खान की बेटी कनुप्रिया को अपनी मां द्वारा लिखित रचना पर नाटक के मंचन की
जिम्मेदारी दी गई । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नैतिकता की दुहाई देते नहीं थकते
लेकिन इतने बड़े आयोजन में नैतिकता की धज्जियां उड़ी और उनका पूरा अमला खामोशी के साथ
देखता रहा । बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष और क्रांतिवीर आलोक धन्वा ने इसका
बचाव करते हुए कहा मार्ग्रेट थैचर का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने
बेटे को लाइसेंस दिया था क्योंकि वो योग्य था । यहां आलोक धन्वा पता नहीं क्यों ब्रिटेन
चले गए बल्कि उनको तो इंदिरा गांधी और संजय गांधी का उदाहरण देना चाहिए था क्योंकि
जिस क्रांति की विचारधारा के वो समर्थक हुआ करते थे उसने इमरजेंसी में इंदिका गांधी
का समर्थन किया था । इंदु मौआर के चयन को वो नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह के उदाहरण
से भी सही ठहराने की कोशिश करते हैं लेकिन आलोक धन्वा यह भूल जाते हैं कि इंदु मौआर
जी की कहानीकार के रूप में हिंदी के वृहत्तर जगत से परिचय होना शेष है । इसके अलावा
की इस समारोह के चयन पर सवाल खड़े हुए । एक और राजनेता पद्माशा को भी कथाकार बना दिया
गया । उसी तरह से हिंदी के मशहूर कथाकार और साहित्यक पत्रिका तद्भव के यशस्वी संपादक
अखिलेश को समीक्षक बनाकर आमंत्रित किया गया । यह एक कथाकार का अपमान और चयन समिति के
सदस्यों की अज्ञानता भी है क्योंकि अखिलेश को डॉ खगेन्द्र ठाकुर, रविभूषण, चकुण कुमार
जैसे आलोचकों के साथ रखा गया है । हलांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह किसी तरह से ‘एडजस्ट’ करने का मामला भी है । दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार इन दिनों सियासी उलझनों में फंसे हैं और साहित्य कला संस्कृति के उन्होंने आलोक
धन्वा, रामबचन राय और ऊषाकिरण खान के हवाले कर दिया है । कथा समारोह में कथाकारों और
समीक्षकों के चयन में गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदारी तय हो पाएगी इसमें संदेह है ।
इसी तरह से अगर देखें तो पहले राजभाषा पुरस्कारों को लेकर विवाद हुआ था । उस विवाद
की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि अब वहां कला पुरस्कारों के चयन को लेकर सवाल खड़े
हो गए । कला पुरस्कार के लिए चयनित वरिष्ठ कथाकार और रंगसमीक्षक ह्रषिकेश सुलभ ने एलान
के बाद पुरस्कार ठुकरा दिया । सुलभ के पुरस्कार ठुकराने के बाद चयन पर ही सवाल खड़े
होने लगे । संस्कृतिकर्मियों ने इस पुरस्कार के एलान के बाद इसके खिलाफ हस्ताक्षर अभियान
चलाया हुआ है । बिहार के रंगकर्मी कला पुरस्कारों में हुई धांधली के आरोपों की जांच
की मांग भी कर रहे हैं । कला पुरस्कारों की चयन समिति में भी आलोक धन्वा, ऊषाकिरण खान
हैं । उनके अलावा परवेज अख्तर और आनदी बादल हैं । कला पुरस्कारों के चयन पर उठे विवादों
की पृष्ठभूमि बहुत दिलचस्प है । निर्णायक मंडल ने नियमों को शिथिल करते हुए रेवड़ियां
बांटने का फैसला लिया । बिहार के कला पुरस्कारों के चयन का नियम यह है कि रंगकर्मी
या कलाकार अपने बयोडाटा के साथ आवेदन करते हैं और उस आवेदन के साथ वो अनुशंसाएं भी
नत्थी करते हैं । कला पुरस्कार के चयन समिति के सदस्य उन आवेदनों पर विचार करते हैं
और फिर उसमें से नामों को चुना जाता है । इस बार इन नियमों को दरकिनार कर पुरस्कार
देने की बातें सामने आई हैं । कला पुरस्कार ठुकराते हुए ह्रषिकेश सुलभ ने लिखा कि – बिहार में कला संस्कृति और राजभाषा विभागों के पुरस्कार का बंटवारा दिनों दिन
अश्लील होता जा रहा है । बिहार में सरकारें हमेशा संस्कृति और साहित्य को लेकर असंवेदनशील
रही हैं । सरकार को चाहिए कि वो रेवड़ियां बांटना बंद करे । सुलभ ने आगे लिखा- मैंने
ना तो इस पुरस्कार के लिए आवेदन किया था और ना ही अपना बॉयोडाटा भेजा था । सरकार को
पुरस्कार घोषित करने से पहले मुझसे स्वीकृति लेनी चाहिए थी ।‘ बहुत संभव है कि चयन समिति को योग्य लोगों
के आवेदन नहीं मिले हों लेकिन क्या पुरस्कार देना इतना जरूरी था । इसी तरह की एक और
गड़बड़ी रंगकर्मी अनीश अंकुर के साथ भी की गई । उनके नाम का भी एलान जूनियर पुरस्कार
के लिए कर दिया गया जबकि उनकी उम्र आर्हता से ज्यादा है । यह कलाकारों का अपमान भी
है । चयन समिति के सदस्य पुरस्कारों को अपनी जमींदारी की तरह चलाते प्रतीत होते हैं
और पुरस्कारों को खैरात की तरह बांटते । यह सामंती मानसिकता है । फिल्मों की समीक्षा
पर दिए जानेवाले राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भी आवेदन मंगाए जाते हैं । वहां कभी ऐसा
नहीं होता है कि नियमों में ढील देकर किसी को पुरस्कृत कर दिया जाए । अगर श्याम बेनेगल
ने भी आवेदन नहीं किया हो तो उनको पुरस्कार नहीं दिया जाता है । फिर बिहार के कला पुरस्कारों
में नियमों को शिथिल कर लेखकों कलाकारों को अपमानित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी है
। हो सकता है कि नियमों में यह प्रावधान हो कि स्तरीय आवेदन नहीं मिलने पर निर्णायक
समिति की अनुशंसा को मानते हुए पुरस्कारों के नामों का एलान हो । अगर ऐसा है तो यह बात तो साफ होनी चाहिए कि जिन्होंने आवेदन किया
था उनके नाम स्तरीय नहीं थे । किस आधार पर उनके आवेदन को खारिज किया गया । सामने तो
वो परिस्थितियां भी आनीं चाहिए जिसमें निर्णायक मंडल के चारो सदस्य में से किसने किसके
नाम की सिफारिश की और कमेटी उस पर एकमत हो गई ।
दरअसल बिहार के वर्तमान साहित्यक परिदृश्य में सरकारी विभागों में जबरदस्त अराजकता
है । मुख्यमंत्री की प्राथमिकता सूची में साहित्य संस्कृति आती नहीं क्योंकि इनका कोई
वोट बैंक होता नहीं है । लेकिन नीतीश कुमार जैसे समझदार नेता शायद यह भूल गए हैं कि
इन चीजों से परसेप्शन बनता है । परसेप्शन के इस दौड़ में वो पिछड़ते नजर आ रहे हैं
क्योंकि साहित्य और संस्कृति की कमान उन्होंने जिन दो तीन नामों के हाथ में सौप रखी
है वो अपनी भूमिका के विर्वहन में लगातार फेल होते नजर आ रहे हैं और चुनावों की आहट
ने उनको बेलगाम भी कर दिया है । बिहार के इन साहित्यक हकीमों को इस बात का अंदाज है
कि नीतीश कुमार इन दिनों अपनी खोई सियासी जमीन वापस हासिल करने में जुटे हैं लिहाजा
ये हकीम अपनी मनमानी कर नीतीश का नुकसान पहुंचाने में जुटे हुए हैं ।
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