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Tuesday, December 27, 2016

भ्रम और उलझन के भंवर में कांग्रेस

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस वक्त उस दौर से गुजर रही है जहां नेतृत्व को लेकर नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में एक भ्रम और उलझन लक्षित किया जा सकता है । सोनिया गांधी की बीमारी और राहुल गांधी को आगे बढ़ाने की रणनीति के तहत कांग्रेस अध्यक्षा ने खुद को नेपथ्य में रखा था । उनके नेपथ्य में रहने की वजह से पुरानी पीढ़ी के नेता स्वत: परिधि पर चले गए थे और राहुल गांधी के आसपास के नेता पार्टी के केंद्र में दिखाई देने लगे थे । यह संसद और उसके बाहर दोनों जगह पर साफ तौर पर देखा जा सकता था । सोनिया के नेपथ्य में जाने के बावजूद उनके इर्दगिर्द के नेता भले ही पृष्ठभूमि में चले गए हों लेकिन उनकी ताकत कम नहीं हुई थी । ये जरूर हुआ कि राहुल गांधी के नजदीकी नेताओं का भाव बढ़ गया । इस परिस्थिति में नियमित अंतराल के बाद राहुल गांधी की पार्टी की कमान संभालने की खबरें आती रहती हैं । इस परिस्थिति में पार्टी के फैसलों और नेताओं के बयान में एकरूपता नहीं दिखाई देती है । उदाहरण के तौर पर अगर हम हाल के बयानों और घटनाओं को देखें तो यह साफ दृष्टिगोचर होता है । हाल ही में जब थल सेनाध्यक्ष के तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत की नियुक्ति की गई तो उस मुद्दे पर भी कांग्रेस नेताओं के अलग अलग सुर सुनाई दिए थे । कांग्रेस के प्रवक्ता और पूर्व सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री मनी। तिवारी ने सरकार पर आरोप लगाया था कि लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को सेनाध्यक्ष नियुक्त करने में राजनीति की गई थी । उनके बयान के पहले कांग्रेस के महाराष्ट्र इकाई के सचिव शहजाद पूनावाला ने प्रधानमंत्री पर इल नियुक्ति में मुसलमान लेफ्टिनेंट जनरल की अनदेखी का आरोप लगाया था । मनीष तिवारी ने शहजाद के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था । मनीष तिवारी के बयान के बाद सत्यव्रत चतुर्वेदी ने बयान दिया कि सेना की नियुक्तियों पर राजनीति नहीं करनी चाहिए । अब तीन नेताओं के अलग अलग बयान ने पार्टी में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी । कार्यकर्ताओं के बीच जो संदेश गया वो भी भ्रमित करनेवाला था ।
इसी तरह से पिछले दिनों राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के किसानों की समस्या को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने पहुंच गए । उनके साथ कई युवा नेता थे, कहा तो यहां तक गया कि लोकसभा में पार्टी की संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अंतिम वक्त में इस मुलाकात की जानकारी दी गई और उनको आने को कहा गया । वो भागे भागे वहां पहुंचे थे । राहुल गांधी से प्रधानमंत्री की इस मुलाकात की रूपरेखा उनके एक युवा सांसद साथी ने तैयार की थी और वरिष्ठ नेताओं को इसकी जानकारी मुलाकात का वक्त मिलने के बाद दी गई । अब इस मुलाकात को लेकर भी पार्टी में अलग अलग राय सामने आ रही है । कुछ नेताओं का मानना है कि राहुल गांधी जब नोटबंदी का विरोध कर रहे थे और धीरे-धीरे अन्य विपक्षी दलों के नेता उनके साथ आते दिख रहे थे वैसे में प्रधानमंत्री से सिर्फ अपनी पार्टी के नेताओं से मिल आना विपक्षी एकता के प्रयासों को झटका दे गया । इस बात में दम भी है क्योंकि उसके बाद एक बार फिर से विपक्षी दल अलग अलग राह पर चलते नजर आने लगे । पार्टी के हलकों में तो दबी जुबान में ये आरोप भी लग रहे हैं कि जिस युवा नेता ने ये मुलाकात तय करवाई या इसकी योजना बनाई उनके भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री से अच्छे संबंध हैं और ये भारतीय जनता पार्टी की एक सियासी चाल थी विपक्ष के आसन्न एका को रोकने की ।

दरअसल अगर हम देखें तो दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के बाद ही राहुल गांधी को कमान सौपने की मांग के बाद से यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है । इस भ्रम ने दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डुबोई थी । सात आठ साल से यह स्थित बनी हुई है और पिछले आम चुनाव में पार्टी की हार के बाद यह और बढ़ गया है । प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश में रणनीति बनाने के काम को लेकर भी भ्रम बना रहा । शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश का चेहरा बनाने और फिर उनको किनारा कर देने का फैसला भी एक तरह से भ्रमित फैसले की परिणति ही कही जा सकती है । इसी तरह से अगर हम देखें तो राज बब्बर को यूपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद अब अखिलेश यादव के साथ गठबंधन की बात की जा रही है । रणनीतिकार ये भूल गए कि अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल को राज बब्बर ने हराया था और ये फांस अब भी अखिलेश के दिल में है । अगर यूपी में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में गठबंधन होता है तो राज बब्बर का हाशिए पर जाना लगभग तय माना जाना चाहिए । अब एक बार फिर एक फैसले हुआ है जिससे कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के समर्थकों के बीच रस्साकशी सामने आ सकती है । नोटबंदी पर देशव्यापी विरोध की रणनीति तय करने के लिए सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की अगुवाई में कमेटी बनाई गई है जिसके संयोजक राहुल के सिपहसालार रणदीप सिंह सुरजेवाला हैं । नोटबंदी पर विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक सोनिया ने बुलाई । इस तरह के फैसलों का असर संगठन पर पड़ता है जो दिख भी रहा है ।  
(नेशनलिस्ट आनलाइन- 27.12.2016)

1 comment:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-12-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2571 में दिया जाएगा ।
धन्यवाद