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Saturday, October 19, 2019

कोसने की नहीं, लिखने की जरूरत


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री ने इतिहास लेखन पर बेहद सटीक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि इस सभागार में सभी विद्वान बैठे हैं। बालमुकुंद जी भी बैठे हैं जो इतिहास संकलन के लिए प्रयास कर रहे हैं। मेरा सबसे आग्रह है कि भारतीय इतिहास का भारतीय दृष्टि से पुनर्लेखन बहुत जरूरी है। मगर इसमें हमें किसी को दोष देने की जरूरत नहीं है। किसी का दोष है, तो हमारा खुद का दोष है कि हमने इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा। इतने सारे बड़े-बड़े साम्राज्य हुए, विजयनगर साम्राज्य, हम संदर्भग्रंथ आज तक नहीं बना पाए, मौर्य साम्राज्य हम संदर्भ ग्रंथ नहीं बना पाए, गुप्त साम्राज्य का बड़ा काल खंड, हम संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए, मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास लेकिन हम संदर्भ ग्रंथ नहीं बना पाए, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन हम संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए, शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक एक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी हमने इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को हमने संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया। शायद वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास न बन पाता, उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। वीर सावरकर ने ही सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया वर्ना आज भी हमारे बच्चे उसको विप्लव के नाम से जानते। ये परिवर्तन जो करना है, मैं मानता हूं कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकानीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। हमने हमारी दृष्टि को बदलना पड़ेगा। हमने हमारी मेहनत करने की दिशा को केंद्रित करनी पड़ेगी।‘  केंद्रीय गृह मंत्री ने बेहद सटीक बात कही कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी। राजनीति के क्षेत्र में ये काम करके उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है, भारत और भारतीयता को आगे रखते हुए देश के राजनीतिक परिदृश्य और विमर्श दोनों को बदल दिया, और वो शैक्षणिक जगत से ऐसी ही अपेक्षा कर रहे हैं। इसलिए जब वो दोष देने की बजाए दृष्टि बदलने और मेहनत की दिशा को केंद्रित करने की सलाह देते हैं तो अचानक से बौद्धिक जगत के समक्ष कई चुनौतियां पेश कर देत हैं।
प्रख्यात इतिहासकार पणिक्कर ने पेरू और स्पेन के संदर्भ में एक उदाहरण दिया था। शीशे के किसी गिलास में साफ पानी लो, उसमे दो बूंद स्याही डालकर उसको घोल दो। कुछ समय के बाद लगेगा कि पानी नीला हो गया। प्रबल संस्कृति ने अबल संस्कृति को अपने जैसा बना लिया। फिर गिलास को वैसे ही रहने दो। कुछ देर बाद पता चलेगा कि पानी नीला नहीं है, साफ है पर ठीक पहले जैसा साफ नहीं, इतना कम बदला हुआ है कि उसे साफ कह सकते हैं। नीला रंग तलहटी में बैठ गया है। उन्होंने निष्कर्ष के तौर पर कहा था कि आखिरकार स्थानीय संस्कृति ही प्रबल सिद्ध होती है। पाणिक्कर के इस उदाहरण को अगर इतिहास लेखन के उदाहरण के तौर पर देखें तो यह समझ आता है कि भारतीय इतिहास में भी अगर आयातित विचारधारा रूपी स्याही मिलाकर उसको साफ नहीं रहने दिया गया तो कोई हर्ज नहीं था लेकिन इतिहास के गिलास के शांत रहने दिया जाता ताकि लाल रंग तलहटी में बैठ सके। गिलास को लगातार हिलाया गया ताकि स्थानीय संस्कृति साफ दिखाई नहीं दे सके और बाहर से मिलाया गया रंग ही प्रबल दिखे। भारतीय इतिहास में हमेशा से दो बूंद स्याही मिलाई गई। ये परंपरा जेम्स मिल से शुरू होकर आधुनिक युग के कई इतिहासकारों में दिखाई देती है, दामोदर धर्मानंद कोसंबी से लेकर रोमिला थापर तक में। आधुनिक युग के ज्यादातर इतिहासकारों ने भी मार्क्सवादी औजारों के आधार पर ही भारतीय इतिहास को परखने और उससे निकले निष्कर्षों को ही स्थापित किया। भगवान सिंह ने इस ओर इशारा किया है। उनके दिए एक उदाहरण से इसको समझा जा सकता है। ऋगवेद में राजा शब्द का प्रयोग हुआ है। यह एक विकसित प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़ा पद है। परुंतु ऋगवेद का समाज तो कबीलाई था, यह पाश्चात्य डाक्ट्रिन का हिस्सा है। अत: इसमें राजा का प्रयोग सरदार के लिए किया गया होगा। अब ऐसे समाज को समाने रखकर वैदिक राजा और तंत्र को समझा और समझाया जाने लगा जिनमें लूट या किसी तरीके से जुटाया गया माल सरदार को सौंप दिया जाता है और वह उसी समुदाय में उसका न्यायोचित वितरण करता है। ऋगवेद के गहन अध्ययन से यह पता लगाने का प्रयत्न नहीं किया गया कि उसमें कबीले के सरदारों के लिए कोई शब्द आया है या नहीं या राजा का प्रयोग किन संदर्भों में किनके लिए किया गया है। ऋगवेद में सरदार के लिए वर्षिष्ठ का व्यवहार हुआ है न कि राजा का। बृबु को सरदारों का शिरोमणि या वर्षिष्ठों में मूर्धन्य बताया गया है ( अधि बृबु पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात, उरु: कक्षो न गांग्य:, 6.45.31) अर्थात सरदारों के बीच भी असाधारण प्रभाव रखने वालों के लिए राजा का प्रयोग नहीं होता था।इतिहास लेखन की जो प्रामाणिक पद्धति है उसमें सतर्कता और तटस्थता की अपेक्षा तो होती ही है। क्या हमारे देश में हुए इतिहास लेखन में ऐसा हुआ।
अमित शाह ने साफ तौर पर यही कहा कि दोष देने की बजाए दृष्टि बदलनी होगी। इतिहास लेखन में बदली हुई दृष्टि को देखने का प्रयास तो इतिहासकारों और उन संस्थाओं को ही करना होगा जो इस तरह के काम के लिए बनाए गए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा। सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। लेकिन इस अपेक्षा पर खरे उतरने की बजाए हो कुछ और रहा है। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। ये संस्थाएं इवेंट मैनजमेंट कंपनी बनती जा रही है। पिछले छह साल में इन संस्थाओं ने कितने ठोस काम किए हैं और कितने कार्यक्रम आयोजित किए हैं इसका अगर आकलन किया जाए तो चौंकानेवाले आंकड़े सामने आ सकते हैं। दिलचस्प भी।
मानव संसाधन मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली और स्वायत्त संस्थाओं में लगभग हर रोज कोई ना कोई कार्यक्रम हो रहा है, उनका खूब प्रचार प्रसार भी हो रहा है। लेकिन यह बात कभी भी निकल कर नहीं आती कि फलां संस्थान से जुड़े फलां लेखक ने भारतीय इतिहास पर नई दृष्टि से या वैकल्पिक दृष्टि से विचार करते हुए कोई पुस्तक लिखी। ऐसी पुस्तक जिसपर चर्चा हो, जिसको लेकर समाज में कोई विमर्श खड़ा हो सके। बैद्धिक जगत में किसी प्रकार का कोई उद्वेलन पैदा हो। स्थापित मान्यताओं को चुनौती देती हुए कितनी पुस्तकें आई हैं? अगर किसी लेखक ने या इतिहासकार ने इस तरह का कोई काम किया भी तो वो सामने क्यों नहीं आ पा रहा है। सरकारी संस्थाओं का एक दायित्व तो यह भी है कि इस तरह की पुस्तकों को सामने लाने का उपक्रम करे। ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद हो और उसकी इतनी व्याप्ति हो कि वृहत्तर भारतीय समाज में उस पुस्तक के माध्यम से एक नया विमर्श खड़ा हो। क्या ये मान लेना चाहिए कि इन संस्थाओं में अब भी वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों का ही बोलबाला है कि वो वैकल्पिक प्रयासों को सफल नहीं होने दे रहे हैं। या ये मानें कि जिनके पास वैकल्पिक विमर्श खड़ा करने की जिम्मेदारी है वो वामपंथी लेखकों और इतहासकारों को कोसने के काम में लगे हैं। अब जब देश के गृहमंत्री ने साफ तौर पर कहा है तो ये उम्मीद की जानी चाहिए कि इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ ऐसे काम की शुरुआत हो सकेगी जिसके माध्यम से अबतक छूटे या अधूरे कामों को पूरा किया जा सकेगा। नए विमर्श और नई खोज के आधार पर इतिहास लेखन में अबतक हुई गड़बड़ियों को सुधारा जा सकेगा।                

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