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Saturday, July 17, 2021

लापरवाहियों से खंडित होता इतिहास


मेरे एक मित्र हैं, संजीव सिन्हा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं। दो दिन पहले उन्होंने चहकते हुए फोन किया, भाई साहब, नामवर सिंह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक थे, क्या आपको मालूम है? जब संघ पर प्रतिबंध लगा था तो वो जेल भी गए थे। मैंने अनभिज्ञता प्रकट की तो उन्होंने पूरा प्रकरण बताया। दरअसल हुआ ये है कि नामवर सिंह की एक जीवनी प्रकाशित हुई है, नाम है ‘अनल पाखी’। इस जीवनी को लिखा है अंकित नरवाल ने। इस पुस्तक में हिंदी के शिक्षक-लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के हवाले से नामवर सिंह को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का अपने जिले का संस्थापक बताया गया है। दरअसल 2017 में नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी की एक बातचीत प्रकाशित हुई थी जो बाद में 2019 में एक पुस्तक में संकलित हुई। पुस्तक का नाम है ‘आमने-सामने’। प्रकाशक हैं राजकमल प्रकाशन। इस पुस्तक का संकलन-संपादन किया है नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह ने। इसका प्रकाशन जुलाई 2019 में हुआ था। हम इस विषय़ पर आगे बात करें इसके पहले साक्षात्कार का वो अंश देख लेते हैं जिसके आधार पर जीवनीकार से भूल हुई है। विश्वनाथ त्रिपाठी का प्रश्न है, आप पहले आरएसएस में थे, फिर वामपंथी कैसे हो गए? नामवर सिंह का उत्तर है, ‘मैं कोई किताब या मार्क्स को पढ़कर प्रगतिशील नहीं हुआ। लेकिन हां, मैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अपने जिले के संस्थापकों में से हूं। गांधी की हत्या के बाद तीन महीने जेल में भी था, पुणे से मुझे लखनऊ सेंट्रल जेल भेजा गया। जब छूटा तो अटल जी मेरे सम्मान में जेल के द्वार  पर खड़े थे। मैंने उनको कविताएं भी सुनाई थीं। आरएसएस में था जरूर लेकिन मुसलमान और वामपंथियों से मेरी दोस्ती थी।...संघ हिंदू संगठन है और वहां भी पैसे वालों का दबदबा है। जात-पात छूआछूत जैसी विसंगतियां देखने को मिलीं। इसी वर्गभेद की वजह से मैं वामपंथ में चला गया।‘ 

इन बातों के सामने आने के बाद विश्वनाथ त्रिपाठी की तरफ से किसी और ने सफाई पेश की। सफाई में कहा गया कि ‘नामवर जी आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी विचारधारा के सक्रिय विरोधी रहे थे। नामवर सिंह मार्क्सवादी थे, प्रगतिशील लेखक संघ और सीपीआई से संबद्ध थे। सीपीआई के उम्मीदवार के तौर पर चंदौली से लोकसभा चुनाव भी लड़े थे।‘  विश्वनाथ त्रिपाठी के भक्त और कम्युनिस्ट लेखक इस अभियान में लग गए हैं कि उनको इससे बरी कर दिया जाए। चाहे कितना भी बड़ा अभियान चला लें,इस साहित्यिक अपराध को ढंकने की कितनी भी कोशिश की जाए, लेकिन ये अक्षम्य है। चार साल पहले एक साक्षात्कार छपा,फिर दो साल पहले वो बातचीत एक पुस्तक में संकलित हुई, लेकिन विश्वनाथ जी दोनों को ही देख नहीं पाए। क्या ये मान लिया जाए कि हिंदी का ये लेखक अपना लिखा नहीं पढ़ते हैं या अपने कृतित्व को लेकर बेहद असावधान हैं। इस जीवनी के प्रकाशक भी पूरे मामले को ढंकने की कोशिश कर रहे हैं और इस पुस्तक की बची हुई प्रतियों पर चिट लगाकर भूल सुधार की डुगडुगी बजा रहे हैं। अगले संस्करण में उस अंश को हटाने की घोषणा भी की गई है। सवाल फिर वही उठता है कि जो प्रतियां बिक गईं या जो पाठकों तक पहुंच गईं या जो बातें इंटरनेट मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हो गईं उनका परिमार्जन कैसे हो पाएगा। हो भी पाएगा या नहीं।  

जीवनीकार अंकित नरवाल से गलती ये हुई कि उन्होंने इस तथ्य की पुष्टि के लिए विश्वनाथ त्रिपाठी से स्पष्ट रूप से इस मुद्दे पर बात नहीं की और प्रकाशित बातचीत को सही मान लिया। बहुधा लेखक ऐसा करते हैं। अंकित ने दावा किया है कि ‘इसके संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी जी से मेरी बातचीत हुई थी। उनसे पूरी तरह यह पांडुलिपि तैयार होने से पहले और बाद में भी घंटों-घंटो बातचीत होती थी। उन्होंने अपनी बातचीत में हमेशा यह दोहराया है कि उन्होंने नामवर जी के बारे में जो इधर-उधर संस्मरण लिखे हैं, वह सभी प्रामाणिक तथ्य हैं। उनके साथ हुए साक्षात्कारों के संबंध में भी उनकी यही दृढ़ता बनी रहती थी। अब जब यह मामला तूल पकड़ गया है, तो उन्होंने अपने उस साक्षात्कार से किनारा कर लिया है।‘ लगता है कि अंकित नरवाल, विश्वनाथ जी के अतीत में कहने-पलटने की आदत से परिचित नहीं रहे होंगे। त्रिपाठी जी बहुधा पल्ला झाड़ते रहे हैं और किसी न किसी बहाने की ओट लेते रहते हैं। अपनी पुस्तक ‘व्योमकेश दरवेश’ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के हिंदी भाषा के संयोजक रहते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार से संबंधित एक प्रसंग लिखा। उस प्रसंग की सत्यता के बारे में जब इस स्तंभ में सवाल उठाया गया तो उन्होंने अगले संस्करण में उस पूरे प्रसंग को ही पुस्तक से हटा दिया। इसी तरह से एक साहित्यिक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में जब कुछ आपत्तिजनक बातें उनके हवाले से छपीं तो उससे किनारा कर लिया और ठीकरा बातचीत करनेवालों पर फोड़ दिया। मैत्रेयी पुष्पा से संबंधित एक साहित्यिक पत्रिका में अश्लील टिप्पणी करने के बाद उनको फोन करके हाथ-पांव जोड़े थे।

नामवर जी से जुड़े इस प्रसंग पर उठे विवाद से कई बड़े प्रश्न खड़े हो रहे हैं। ये प्रश्न लेखकों की साख, प्रकाशकों की विश्वसनीयता और पुस्तकों के संपादकों की गंभीरता को लेकर भी खड़े होते हैं। कोई भी लेखक क्यों नहीं तथ्यों की पड़ताल के लिए प्राथमिक स्त्रोत तक जाने की कोशिश करता है, क्यों वो सेकेंडरी सोर्स पर आश्रित रहता है। इसी तरह से प्रकाशकों की किसी पुस्तक को लेकर क्या कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? क्या आधार प्रकाशन और इसके स्वामी देश निर्मोही का दायित्व नहीं था कि वो नामवर सिंह की जीवनी में प्रकाशित हो रहे तथ्यों के बारे में जांच पड़ताल करते। क्या आधार प्रकाशन सिर्फ प्रिंटर हैं कि जो भी आया छापा और उसको बाजार में भेज दिया। जब उसपर आपत्ति आई तो अगले संस्करण में सुधार की बात कहकर किनारे हो गए। इस पूरे प्रसंग से एक बार फिर से प्रिंटर और प्रकाशक की भमिका पर विचार करने का आधार हिंदी साहित्य जगत के सामने है। देश निर्मोही स्वयं प्रगतिशीलता का डंडा-झंडा लेकर चलते रहते हैं लेकिन उनको भी नामवर सिंह के बारे में इस तथ्य की पड़ताल की जरूरत नहीं लगी। राजकमल प्रकाशन से नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह के संपादन में आमने सामने छपी, उसमें भी विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर का लिया साक्षात्कार छपा लेकिन न तो उनके पुत्र ने इसको जांचने की जहमत उठाई और न ही प्रकाशक के स्तर पर इसकी कोशिश हुई। अब प्रकाशक ने पुस्तक में संशोधन की बात की है।

दरअसल ये पूरा मामला ही लापरवाहियों से भरा हुआ है। इससे हिंदी साहित्य और प्रकाशन जगत में व्याप्त अगंभीरता सामने आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिनको हम बड़े साहित्यकार या बड़े प्रकाशक मानते हैं उनको अपनी साख की कोई चिंता नहीं । एक और बात जो प्रमुखता से उभर कर सामने आई है कि खुद को प्रगतिशील कहनेवाले कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लेखक अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों की भूल गलतियों के लिए उनको कठघरे में खड़ा नहीं करते। कम्युनिस्ट लेखक ये काम बहुत ही संगठित तरीके से करते हैं। पूरा माहौल बनाते हैं कि उनकी विचारधारा के लेखक की गलती नहीं है वो तो परिस्थितियों के शिकार हो गए हैं आदि आदि। अब वक्त आ गया है कि साहित्य में वामपंथ की गलतियों और उनको ढ़कने और छुपाने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जाए। साहित्य में सत्य का अनुकरण हो और झूठ और मिथ्या की इस विचारधारा के बचे खुचे ध्वजवाहकों को आईना दिखाया जाए।

6 comments:

रश्मि की कलम से said...

नामवर सिंह जी ने एक लंबा जीवन जिया है। वे विभिन्न लोगों और संगठनों से जुड़े। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ना इसी का एक हिस्सा रहा होगा। अपने साक्षात्कार में वे स्वयं कह रहे हैं कि जब उन्हें संघ के भीतर भी कुछ कमियां नजर आईं तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। यहां सारी बात कहकर मुकर जाने की है, जो कि नहीं होनी चाहिए थी। सत्य तो 3 लोग ही जानते होंगे- स्वर्गीय नामवर सिंह जी, विश्वनाथ त्रिपाठी जी और नामवर जी के जिले के वे लोग जो उस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे!

सारंग उपाध्‍याय said...

छपने छपाने और पल में लोकप्रिय होने के चक्कर में रायता फैल गया। जीवनी लिखना गम्भीर कार्य है, और जिस सतही तरीके से इसे लिखने की प्रक्रिया सामने आई है वह निराशाजनक है. कमाल यह भी है कि यदि ये अपने कहे लिखे से मुकरने का दौर है तो फिर तत्कालीन प्रतिक्रिया क्या महत्वहीन नहीं हो गई?? यानी आज किसी से किसी विषय पर प्रतिक्रिया ली और 5 साल बाद किसी सन्दर्भ में उसे देखें तो पहले जाकर पूछा जाए आपने जो कहा था क्या वह सही है? यदि नहीं है तो फिर वह क्या था जो उस समय कहा था? और अब आप क्या हैं जो उससे मुकर रहे हैं? ☺️शानदार लिखा है आपने।

शिवम कुमार पाण्डेय said...

"अब वक्त आ गया है कि साहित्य में वामपंथ की गलतियों और उनको ढ़कने और छुपाने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जाए।"
बिलकुल सही कहा आपने।

kuldeep thakur said...

जय मां हाटेशवरी.......
आपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 20/ 07/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।

kuldeep thakur said...

जय मां हाटेशवरी.......
आपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 20/ 07/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।

Amrita Tanmay said...

सार्थक प्रस्तुति ।