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Saturday, January 20, 2024

अकारण विवाद,आधारहीन तर्क


अयोध्याजी में श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में एक दिन शेष है। राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के पहले कुछ भगवाधारियों ने प्राण प्रतिष्ठा के समय को लेकर प्रश्न उठाए तो कुछ ने अर्धनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए। इन भगवाधारियों की आलोचना की आड़ में एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हुआ और इनको बड़ा संत महात्मा और सनातन का ज्ञाता मानते हुए सरकार और प्रधानमंत्री की आलोचना आरंभ कर दी। इससे जनमानस में ये शंका हुई कि आलोचना योजनाबद्ध ढंग से आरंभ किया गया। सनातन या हिंदू धर्म में हर किसी को प्रश्न करने का अधिकार है। ये एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमें अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने भगवान चुनने तक की स्वतंत्रता है। आप चाहें जिस भगवान की पूजा करें, जिसके भक्त बनना चाहें उसके बनें। हिंदू धर्म समग्रता में एक भगवान और एक किताब वाले धर्मों से अलग है। अगर उत्तर आधुनिक शब्दावली में कहें तो हिंदू धर्म पूरी दुनिया का एकमात्र लोकतांत्रिक धर्म है। लोकतंत्र में नागरिकों को जितना अधिकार है उससे अधिक अधिकार हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को देता है। इसलिए इन भगवाधारियों के प्रश्नों का कोई विरोध नहीं है। लेकिन जिस प्रकार से सरकार विरोधी इकोसिस्टम ने इस विरोध को प्रतिकार का स्वरूप दिया उसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए। प्रश्न और प्रतिकार के अंतर को समझना होगा। राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर प्रश्न उठाते हैं तो एक संवाद का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में संवाद का अपना एक महत्व रहा है और रहेगा। प्रश्न से आगे जाकर जब प्रतिकार आरंभ होता है तो तो वो आस्था का प्रतिकार होता है। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का जो संघर्ष रहा है वो इसी आस्था के प्रतिकार से जुड़ा रहा। श्रीरामजन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में भी इस आस्था का सम्मान किया गया। यह बात इकोसिस्टम से जुड़े लोगों को समझ नहीं आ रही है। केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करने की उसकी जो योजना है उसमें वो आस्था पर प्रहार करके उसको खंडित करने का प्रयत्न करते नजर आने लगे हैं। मोदी विरोध से राम विरोध तक पहुंच गए हैं। यहीं पर उनका अज्ञान और भारतीय जनमानस को समझने की कमजोरी उजागर होती है। 

श्रीराम से जुड़े दो ग्रंथ वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस को महत्वपूर्ण माना जाता है। तुलसी के श्रीरामचरितमानस की व्याप्ति किसी भी धर्मग्रंथ से कम नहीं है। उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में इन दो ग्रंथों में वर्णित प्रसंगों पर दृष्टि डालते हैं। सबसे पहले मुहुर्त की बात करते हैं और देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने मुहुर्त के बारे में क्या कहा है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के चतुर्थ सर्ग में मुहुर्त की चर्चा है। जब श्रीराम वानर सेना के साथ समुद्र तट पर पहुंचते हैं और हनुमान उनको लंकापुरी का वर्णन सुनाते हैं। उस वर्णन को सुनकर श्रीराम कहते हैं कि हनुमन! मैं तुमसे सच कहता हूं-तुमने उस भयानक राक्षस की जिस लंकापुरी का वर्णन किया है उसे मैं शीघ्र नष्ट कर डालूंगा। हनुमान से बात समाप्त करने के बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, अस्मिन् मुहुर्ते सुग्रीव प्रयाणमभिरोचय/ युक्तो मुहूर्ते विजये प्राप्तो मध्यं दिवाकर:। अर्थ ये हुआ कि – सुग्रीव! तुम इसी मुहुर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सूर्यदेव दिन के मध्य भाग में जा पहुंचे हैं, इसलिए इस विजय नामक मुहुर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी। श्रीराम जिस विजय मुहुर्त की बात कर रहे हैं उसके बारे में व्याख्या ये है कि दिन में दोपहरी के समय अभिजित मुहूर्त होता है इसी को विजय मुहूर्त भी कहते हैं । लंका प्रस्थान के लिए श्रीराम ने स्वयं दोपहर के इस मुहुर्त को चुना था तो श्रीरामजन्मभूमि पर बने मंदिर में भव्य समारोह के लिए इस मुहुर्त पर प्रश्न उठाना उचित नहीं प्रतीत होता है। ज्योतिष रत्नाकर में इस मुहूर्त में दक्षिणयात्रा निषिद्ध है लेकिन यहां तो किसी प्रकार की यात्रा की ही नहीं जा रही है। श्रीराम ने जब लंका विजय के प्रस्थान के लिए अभिजित मुहूर्त चुना था तो उससे अधिक पवित्र और सटीक मुहूर्त क्या हो सकता है। 

अब श्रीरामचरितमानस का वो प्रसंग देखते हैं जब श्रीराम समुद्र के किनारे शिव जी की पूजा करना चाहते हैं। यह प्रसंग भी लंका कांड का है। श्रीराम और उनकी सेना के सामने लंका जाने के लिए समुद्र को पार करने की समस्या थी। जामवंत ने नल नील को बुलाकर कहा कि मन में श्रीराम जी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, कुछ भी परिश्रम नहीं होगा। फिर उन्होंने वानरों के समूह से वृक्षों और पर्वतों के समूह को उखाड़ लाने को कहा, धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।सुनि कपि भालु चले करि हूहा।जय रघुबीर प्रताप समूहा।। वानर भालू अपना काम करके वृक्षों और पर्वतों के समूह ले आते हैं और नल नील उनको सेतु का आकार देने लगते हैं। सेतु की सुंदर रचना देखकर कृपा सिंधु श्रीराम कहते हैं- परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहीं बरनी।। करिहउं इहां संभु थापना। मोरो ह्रदयं परम कलपना।। श्रीराम को सुनकर सुग्रीव ने अपने दूत भेजे और ऋषियों को समुद्र तट पर बुलाया। फिर वहीं पर श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना करके उनकी पूजा अर्चना की। लंका कांड में तुलसीदास जी ने लिखा है- सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिवर सकल बोलि लै आए।। लिंग थापि विधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।। अगर इस प्रसंग को देखे तो भगवान की पूजा के लिए कहां किसी मंदिर या स्थान की आवश्यकता पड़ी। श्रीराम ने समुद्र किनारे शिवलिंग की स्थापना की और मुनियों की उपस्थिति में उनकी पूजा की। शिवलिंग भी पूजा के पहले ही बनाया गया। कथित शंकराचार्य आदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना इस आधार पर कर रहे हैं कि वो अर्धनिर्मित मंदिर में पूजा कर रहे हैं। आलोचना करनेवाले इन भगवाधारियों को रामायण और श्रीरामचरितमानस में वर्णित इन प्रसंगों को देखना चाहिए। कहां कोई मंदिर कहां कोई शिखर। बस सागर का किनारा, श्रेष्ठ मुनियों की उपस्थिति और भगवान शंकर के प्रति आस्था। शिवलिंग की स्थापना भी हुई और पूजा भी। निर्मित- अर्धनिर्मित की कोई बात ही नहीं है। जहां हमारे ग्रंथों में इस तरह की बातें हो वहां मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उठनेवाले प्रश्नों को इन प्रसंगो के आलोक में देखना चाहिए। प्रश्न करनेवालों को प्रभु श्रीराम के इस वचन का भी ध्यान रखना चहिए- होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।भगति मोरि तेहि संकर देहहि।। मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।। जो छल छोड़कर निष्काम होकर श्रीरामजी की सेवा करेंगे उन्हें शंकर जी मेरी भक्ति देंगे। श्रीराम के वचन सबको अच्छा लगा और शंकर जी की पूजा के पश्चात सभी ऋषि मुनि अपने अपने आश्रमों में लौट गए।

अयोध्या धाम में श्रीराम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रश्न खड़ा करनेवाले यहां तक कह रहे हैं कि संविधान की शपथ लेनेवाले प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा नहीं कर सकते। होता यह है कि जब विरोध के लिए विरोध करना हो तो ऐसे ऊलजलूल तर्क ढूंढे जाते हैं जो कई बार हास्यास्पद हो जाते हैं। संविधान की शपथ का तर्क भी ऐसा ही है। एक सज्जन ने तो यहां तक कह दिया कि नव्य मंदिर जन्म स्थान से तीन किलोमीटर दूर बन रहा है। आधारहीन, तथ्यहीन बयान। प्रश्न करनेवाले की मंशा और उसके ज्ञान पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। श्रीराम और उनका चरित इस देश के लोक मानस में अंकित है। उसका प्रतिकार देश की जनता को शायद ही मंजूर हो। सोमवार को दोपहर विजय या अभिजित मुहूर्त में नव्य मंदिर में प्रभु श्रीराम की मनोहारी मूर्ति की स्थापना हो रही है। उनके साथ पूर्व में स्थापित रामलला विराजमान भी होंगे। मंगल की कामना होनी चाहिए।  


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