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Saturday, January 27, 2024

चरित्र और संवाद के माध्यम से राजनीति


फिल्मों के माध्यम से पहले भी और अब भी एक विचारधारा विशेष को प्रमोट करने की युक्ति चल रही है। उसका विस्तार भी हो रहा है। जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तो स्वाधीनता के बाद जब उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कर दिया था कि फिल्म इंडस्ट्री नए बने राष्ट्र की प्राथमिकता में नहीं है नेहरू के इस बान के बाद इंडस्ट्री से जुड़े लोग चिंतित हो गए थे। उस समय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों ने सरकार को प्रसन्न करने के लिए नेहरू की विचारधारा के अनुसार फिल्में बनाने का उपक्रम आरंभ किया था। नेहरू साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। फिल्मकारों को लगा कि अगर साम्यवादी विचारधारा की कहानियों पर फिल्में बनाई जाएं तो नेहरू खुश होंगे। उनको खुश करने के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने मार्क्स के बहुविध स्त्रोत से निर्माण के सिद्धांत को अपना लिया। इस प्रविधि में अलग अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ अलग अलग भाग का निर्माण करते हैं और उन सबको एक जगह जमा करके या जोड़ करके एक पूरी फिल्म बना ली जाती थी। परिणाम यह हुआ कि पूंजीवादी व्यवस्था से फिल्में बनने वाली फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया साम्यवादी रही। लेखन में भी साम्यवादी व्यवस्था धीरे धीरे हावी होने लगी। 

जब नेहरू से मोहभंग का युग आरंभ हुआ तो हिंदी फिल्मों में साम्यवादी और पूंजीवादी धारा दोनों दिखाई देने लगी। फिर इंदिरा गांधी का दौर आया। उस दौर में हिंदी फिल्मों में साम्यवादी व्यवस्था और मजबूत हुई। इस कालखंड में साम्यवादी व्यवस्था में एक और रसायन मिलाया गया वो था हिंदू मुस्लिम एकता का। हिंदू महिला को उसके पुत्र के मुस्लिम दोस्त का खून चढ़ाकर बचाने जैसे दृष्य फिल्मों का हिस्सा बनने लगे। देश के विभाजन के समय हिंदू मुसलमान के बीच जो एक खाई बनी थी उसको पाटने की आड़ ली गई। इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी लगाई और संविधान की प्रस्तावना में मनमाने तरीके से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जोड़ा गया। संविधान की प्रस्तावना में संशोधन का असर भी फिल्मों पर भी पड़ा। अब हिंदू मुसलमान दोस्ती की मिसाल देनेवाली कहानियों पर फिल्में बनने लगीं। संवाद में कथित गंगा-जमुनी तहजीब की झलक दिखाई जाने लगी। साझा संस्कृति की बात होने लगी। इसके बाद असल खेल आरंभ होता है वो है फिल्मों में सनातन या हिंदू धर्म को नीचा दिखाना और अन्य धर्मों को बेहतर दिखाने की प्रवृत्ति का आरंभ। नायक भगवान को कोसते नजर आने लगे। देश में जब आतंकवाद का दौर आया तो उसका असर फिल्मों पर भी दिखा। स्वाधीनता के बाद फिल्मों में साम्यवाद का प्रभाव था तो उस दौर की फिल्मों में नायकों के अपराधी बनने को जमींदारों या दबंगों के अत्याचार से जोड़कर दिखाया गया था। इसी तरह से मुसलमानों के आतंकवादी बनने को पुलिस प्रशासन की ज्यादतियों से जोड़ा जाने लगा। कश्मीर के आतंकवादियों को लेकर भी हिंदी के कई फिल्मकारों ने यही उक्ति अपनाई। चाहे वो आमिर खान और काजोल अभिनीत फिल्म फना हो या संजय दत्त और ह्रतिक रोशन की फिल्म मिशन कश्मीर हो। इस तरह की फिल्मों की सूची लंबी है, जहां हिंदी फिल्मकारों ने आतंकवादियों को लेकर रोमांटिसिज्म दिखता है। धीरे धीरे ये प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। 

जब ओवर द टाप (ओटटीटी) प्लेटफार्म प्रचलन में आए तो वहां दिखाई जानेवाली वेबसीरीज में भी इस तरह का रोमांटिसिज्म दिखा। संवाद में आतंकवादियों ने वो बातें कहीं जो विचारधारा विशेष की राजनीति के अनुकूल थीं। हाल ही में एक वेब सीरीज आई है जिसको मशहूर फिल्मकार रोहित शेट्टी ने बनाई है। सात भागों में बनी इस वेब सीरीज का नाम है द इंडियन पुलिस फोर्स। इसमें भी मुस्लिम आतंकवादियों को लेकर एक विशेष प्रकार का रोमांटिसिज्म दिखता है। इंडियन मुजाहिदीन के लिए काम करनेवाले आतंकवादी जरार का चित्रण मानवीय तरीके से किया गया है।वेबसीरीज में दिखाया जाता है कि आतंकवादी जरार का परिवार कानपुर का रहनेवाला है। दंगाइयों ने उसकी फैक्ट्री में जिंदा जला दिया। उसका चाचा भी उस आग में जिंदा जल गया। प्रतिशोध के लिए में वो आतंकवादी बनता है। ये चित्रण आतंक और आतंकवाद को जस्टिफाई करने जैसा है। 

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संवादों के माध्यम से भी उन स्थितियों को बल दिया जाता है जिसमें जरार जैसे लोग आतंकवादी बनते हैं। द इंडियन पुलिस फोर्स में एक मुसलमान पुलिस अफसर जब आतंकवादी जरार को पकड़ लेता है तो दोनों के बीच का संवाद उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। आतंकी जरार पुलिस अफसर कबीर से कहता है, एक बात बताइए कबीर साहब! अपनी कौम पर होते जुल्म को देखकर भी रात को आसानी से नींद आ जाती है आपको? कैसा लगता है खुदा से नाशुक्री करके, कैसा लगता है इन काफिरों का कुत्ता बनकर। इतना सुनकर कबीर उसके पास पहुंचता है और उससे कहता है कि इस्लाम तेरे ... का है, तू ठेकेदार है खुदा का। वो मेरा नहीं है, नफीसा का नहीं है जिसकी जिंदगी तुमलोगों ने बरबाद की । तुम लोग सिर्फ मजहब की आड़ में अपनी कमजोरी, नाकामी, फ्रस्टेसन गुस्सा निकालनेवाले लोग हो। सिर्फ अपना उल्लू सीधा करनेवाले खूनी। आतंकवादी। और कुछ नहीं। फिर रोष में जरार बोलता है कि आप सुनना चाहते हैं कि आतंकवादी कौन है। उसके बाद वो अपने बचपन की खौफनाक कहानी कहता है जिसमें कानपुर में उसके परिवार पर जुल्म होता है। गुड मुस्लिम- बैड मुस्लिम का संवाद चलता रहता है। इस सीरीज में कई जगह इस प्रकार के संवाद हैं। ये ठीक है कि सीरीज को समग्रता में देखें तो अच्छाई की बुराई पर जीत होती है। परंतु दर्शकों के मन में एक सवाल तो छोड़ ही देती है। अगर कानपुर कं दंगे में जरार की फैक्ट्री न जलाई जाती या उस दंगे में उसके चाचा को जिंदा न जला दिया गया होता तो वो आतंकवादी नहीं बनता। इसका ट्रीटमेंट उसी प्रकार है जब पहले की फिल्मों में दिखाया जाता था कि बीहड़ में कोई डकैत बनता था तो उसके पीछे दबंगों का जुल्म होता था।

प्रश्न सिर्फ द इंडियन पुलिस फोर्स की कहानी या संवाद का नहीं है बल्कि उस प्रवृत्ति का है जिसके अंतर्गत हिंदी फिल्मों की दुनिया से जुड़े लोग इस तरह की बातों को न केवल दिखाते हैं बल्कि प्रमुखता से उसको प्रचारित भी करते हैं। वेब सीरीज के माध्यम से ओटीटी पर चलनेवाली फिल्मों के माध्यम से जिस तरह की एजेंडा आधारित सामग्री दिखाई जाती है उसको लेकर समाज को ही विचार करना होगा। पिछले दिनों एक तमिल फिल्म आई थी अन्नपूर्णी। नेटफ्लिक्स पर प्रसारित इस फिल्म में दिखाया गया था एक ब्राह्मण लड़की देश का श्रेष्ठ शेफ बनना चाहती है। बताया गया कि इसके लिए उसको मांसाहारी खाना भी बनाना होगा। इसके संवाद में प्रभु श्रीराम को मांसाहारी बताया गया। हिंदू लड़की को नमाज पढ़ते हुए दिखाया गया। तर्क ये दिया गया कि उसने बिरयानी बनाना एक मुस्लिम महिला से सीखा था इसलिए आभार प्रकट करने के लिए उसने नमाज पढ़ी। ये फिल्म सिनेमाघरों में एक दिसंबर को रिलीज हुई और महीने भर बाद ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई। ओटीटी प्लेटफार्म पर आने के बाद इसके संवाद और दृष्य पर केस हुआ। केस के बाद इसके निर्माता कंपनी ने क्षमा मांगी और नेटफ्लिक्स से इसको हटाया गया। ये सब कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हुआ। पर इस फिल्म की टाइमिंग देखिए। अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी थी। कुछ राजनीतिक दल और साम्यवादी बौद्धिक इसका विरोध कर रहे थे। उसी समय पर राम को मांसाहारी बतानेवाली फिल्म ओटीटी पर रिलीज की गई। ओटीटी प्लेटफार्म की लोकप्रियता या व्याप्ति जैसी है उसको ध्यान में रखना होगा। मनोरंजन को लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन धर्म की आड़ में राजनीतिक खेल बंद होना चाहिए। 


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