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Saturday, February 10, 2024

संकल्प-सिद्धि से वैचारिक स्वतंत्रता


पिछले दस वर्षं के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  के बारे में ये धारणा बनी है कि राजनीति और इससे अलग हटकर वो अपने गैरपारंपरिक निर्णयों और तौर तरीकों से चौंकाते हैं। राजनीति से अलग हटकर जब वो निर्णय लेते हैं तो उनका सोच वहां तक जाता है जहां जाने में उनके पूर्ववर्ती कतराते थे। स्वागत के लिए फूल की जगह पुस्तक या फिर हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय की आवश्यकता जैसे विचार लोगों को चौंकाते हैं। लाल किले की प्राचीर से शौचालय की बात जब की गई तो कई लोगों ने इसकी आलोचवना की। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने संकल्प से सिद्धि की बात की थी। 1942 के संकल्पों को वर्ष 2022 तक पूरा करने की बात की थी। तब कई लोगों ने लिखा था कि मोदी अपने दूसरे कार्यकाल को लेकर इतने आशान्वित कैसे हो सकते हैं। लेकिन मतदाताओं ने उनको दूसरा कार्यकाल भी दिया और तीसरे की राह भी आसान लग रही है। पहले कार्यकाल में ही प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबी भारत छोड़ो, भ्रष्टाचार भारत छोड़ो, आतंकवाद भारत छोड़ो और जातिवाद भारत छोड़ो जैसा नारा दिया था। आज जो लोग जाति गणना की बात कर रहे हैं या प्रधानमंत्री की जाति को जन्म से जोड़कर विवाद खड़ा करने की जुगत में हैं उनको प्रधानमंत्री मोदी के पिछले बयानों को देखना चाहिए। 1942 को संकल्प वर्ष मानते हुए उन्होंने आजादी के पचहत्तरवें साल यानि 2022 को सिद्धि का वर्ष बताया था। जो संकल्प थे उसमें से कई पूरे होने लगे हैं। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, भारतीयता और रामत्व स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं। सिद्धि के दौर में प्रधानमंत्री ने जो पांच प्रण किए थे उनपर भी कार्य हो रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के कानूनों में सुधार और बदलाव कर दिए गए हैं। गुलामी के कई चिन्ह समाप्त किए गए हैं और कुछ किए जा रहे हैं। 

अगर साहित्य और शिक्षा की बात करें तो 1942 में तब के साहित्यकारों के सामने एक ही लक्ष्य था स्वाधीनता। उनकी रचनाओं के केंद्र में लोक की यही चिंता प्रतिबिंबित होती थी, लोक की यही आकांक्षा भी रहती थी। इस चिंता का प्रकटीकरण उनकी रचनाओं में होता था। 1947 में देश को स्वाधीनता मिली। हमारी आकांक्षाएं और उम्मीदें सातवें आसमान पर जा पहुंची। आजादी के बाद के करीब दो दशक तक पूरा देश स्वतंत्रता और जवाहरलाल नेहरू के रोमांटिसिज्म में रहा। उसके बाद का कालखंड मोहभंग का रहा। पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध ने देश को कई स्तरों पर कमजोर किया। 1970 के बाद से एक खास विचारधारा को बल मिलना शुरू हो गया। भारतीय संस्कृति, साहित्य और ज्ञान परंपरा के पास जो विश्व दृष्टि थी उसको मार्क्सवाद के प्रचार प्रसार के जरिए विस्थापित करने की जोरदार कोशिशें शुरू हुईं। भौतिकता-आधुनिकता,धार्मिकता-आध्यात्मिकता वाली ज्ञान परंपरा को विस्थापित कर आयातित विचार के आधार पर साहित्य रचा जाने लगा। उस दौर में ही रामधारी सिंह दिनकर को कहना पड़ा- ‘जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं,...जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है। किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है। वह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है।‘ दिनकर को ये इस वजह से कहना पड़ा क्योंकि हम भाषा और रचनात्मक दोनों स्तर पर अपनी परंपरा को भुलाकर दूसरे देश या कहें कि दूसरे विचारधारा की मानसिक गुलामी के लिए अपनी एक पूरी पीढ़ी को तैयार करने में लगे थे। जो संकल्प हमारे समाज ने 1942 में लिय़ा था- अंग्रेजो भारत छोड़ो, वो संकल्प पांच साल बाद साकार हो गया लेकिन उसके दो दशक के बाद हमने वैचारिक रूप से विदेशी विचारधारा की दासता स्वीकार करनी शुरू कर दी थी। उस विचारधारा के प्रभाव में अपनी गौरवशाली, समृद्ध ज्ञान परंपरा को बाधित किया। 

साहित्य में आधुनिकता के नाम पर भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ानेवाले लेखकों को दकियानूसी और पिछड़ा कहकर अपमानित किया गया। लेखन के केंद्र में नैतिकता, अध्यात्म और सौन्दर्यबोध को निगेट करने की संगठित कोशिशें हुईं। भारतीय जनमानस के विश्वास को खंडित करने जैसी रचनाएं लिखी गईं। खंडनवादी लेखन को वैज्ञनिकता का आधार भी प्रदान किया गया लेकिन ऐसा करनेवाले यह भूल गए कि भारत में लोक की आस्था को खंडित करना आसान नहीं है। ईश्वर को नकारने की कोशिशें हुईं। नीत्से की उस प्रसिद्ध घोषणा का सहारा लिया गया जिसमें उसने ईश्वर की मृत्यु की बात की थी । ऐसा प्रचारित करनेवाले लोग लगातार इस बात को छिपाते रहे कि नीत्शे ने इस घोषणा के साथ और क्या कहा था। नीत्शे ने कहा था कि ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है । इस घटना की बराबरी मनुष्य जाति में तभी संभव है जब एक एक शख्स स्वयं ईश्वर बन जाए। हिंदी साहित्य अपनी चेतना से प्रेरित होने की बजाए रूसी चेतना से प्रेरित होने लगी। मार्क्सवाद को अंतराष्ट्रीय अवधारणा कहकर हिंदी पर लाद दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारे साहित्य में एक खास किस्म का बनावटीपन आ गया, जो बार बार लिखे जाने की वजह से नकली भी लगने लगा। अज्ञेय या निर्मल वर्मा जैसे लेखक या विद्यानिवास मिश्र या कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकारों को साहित्य के केंद्र में आने से रोकने की कोशिश होती रही। रोका भी गया। यह अनायास नहीं है आज कुबेर नाथ राय जैसे लेखकों की रचनाएं मिलने में कठिनाई होती है। अंतराष्ट्रीयता के नाम पर मार्क्सवाद की अनुचित उपासना ने हमारी राष्ट्रीय चेतना का नुकसान किया। जो संकल्प भारत छोडो आंदोलन के वक्त साहित्य में चलकर आया था वो सिद्धि तक पहुंचने के रास्ते से भटक गया । लोक और जन की बात करनेवाले लोक और जन से ही दूर होते चले गए। वैचारिक स्वार्थसिद्धि के चलते राष्ट्र-सिद्धि नेपथ्य में चला गया। साहित्य को इसका बड़ा नुकसान हुआ, साहित्य की विविधता खत्म हो गई, चिंतवन पद्धति का विकास अवरुद्ध हो गया, साहित्येतर विधाएं मृतप्राय हो गईं। 

संकल्प सिद्धि के वर्ष तक भी साहित्य में बहुत सुधार नहीं दिखा लेकिन स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर साहित्य में भी भारतीयता के स्वर मजबूत होते दिखे। अपने देश के गौरवगान को गाने में अब लेखकों को कठिनाई नहीं हो रही है। मार्क्सवादी प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता हुआ दिखा लेकिन विश्वविद्यालयों में और अन्य संस्थाओं में वर्षों से कुंडली मारकर बैठे लोग भले ही सरकार के रुख को देखकर चुप हो गए हैं लेकिन अवसर आने पर अपने विचारों को आगे बढ़ाते ही हैं। विचारों को आगे बढाना बुरी बात नहीं है। लेकिन विचार को धारा बनाकर उसमें ही बहने का आग्रह गलत वातावरण का निर्माण करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन ने भी इस राह को आसान किया। शोध को बढ़ाना देने के लिए भी सरकार ने अपने स्तर पर निर्णय लिया है। आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्थाएं ईमानदारी से अपने प्रकल्प से जुड़ें। साहित्यकारों और लेखकों को पाठकों के हितों का ध्यान रखना चाहिए। विचारधारा का नहीं। विचारों की स्वतंत्रता हो लेकिन धारा बनाने की कोशिश पर लगाम लगे।  


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