भारतीय जनता पार्टी की
मुंबई में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पहले, उस दौरान और उसके बाद जमकर ड्रामा
हुआ । कार्यकारिणी की बैठक के पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के वहां
पहुंचने को लेकर लगातार सस्पेंस बना रहा । अटकलबाजियों और कयासों के बीच मोदी खेमे
से ये प्रचारित करके पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया कि नरेन्द्र मोदी बैठक में
शामिल नहीं होंगे । मोदी की नाराजगी उनके पूर्व सहयोगी संजय जोशी को पार्टी में
लगातार मिल रही अहमियत को लेकर थी । मोदी खेमा ने गडकरी तक साफ संदेश भिजवा दिया कि
या तो संजय जोशी या फिर नरेन्द्र मोदी । इस संदेश के बाद गडकरी मोदी के अर्दब में आ
गए और आनन फानन में संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा हो गया । सुबह
जोशी का इस्तीफा हुआ और उसके चंद घंटों बाद ही नरेन्द्र मोदी विजेता के भाव से
सम्मेलन स्थल पर पहुंचे । मोदी ने जिस तरह से संजय जोशी के मसले पर पार्टी आलाकमान
को झुकाया उसके बाद उनको कुछ लोग पार्टी से बड़े नेता के तौर पर देखने लगे । कुछ का
कहना था कि संघ ने मोदी के सामने घुटने टेक दिए । कईयों ने ये कहकर संतोष जताया कि
कार्यकर्ताओं के बीच संजय जोशी का सम्मान इस वजह से बढ़ गया कि उन्होंने संगठन के
लिए त्याग किया । इस शोर के बीच जो एक बात उभर कर सामने आई वो यह कि बीजेपी जैसी
कैडर आधारित पार्टी में जहां संगठन सर्वोपरि हुआ करता था वहां अब संगठन पर व्यक्ति
हावी होने लगे हैं । माधव सदाशिव गोलवलकर ने विचार नवनीत में लिखा है - कोई भी व्यक्ति चाहे वो
कितना भी महान क्यों ना हो, राष्ट्र के लिए आदर्श नहीं बन सकता । राष्ट्र जीवन की
अनंतता की तुलना में व्यक्ति का जीवन बहुत क्षणभंगुर है । लेकिन बीजेपी के नेताओं
को अब गोलवलकर, सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतों की फिक्र कहां है ।
मोदी-जोशी के इस प्रकरण
में मोदी की आलोचना करनेवाले बहुधा यह भूल जाते हैं कि पार्टी नेतृत्व को ठेंगे पर
रखकर अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति के जनक वरिष्ठ नेता अरुण जेटली हैं । बात सिर्फ
तीन साल पुरानी है । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी अध्यक्ष रहे
राजनाथ सिंह ने प्रमोद महाजन के करीबी रहे कारोबारी सुधांशु मित्तल को पू्र्वोत्तर
राज्यों का सहप्रभारी बना दिया । राजनाथ सिंह के इस कदम से खफा अरुण जेटली ने उन सब
बैठकों के बहिष्कार का फैसला ले लिया जिनकी अध्यक्षता पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह
कर रहे थे । लिहाजा चुनाव के ठीक पहले जब उम्मीदवारों के बारे में अंतिम फैसले पर
माथापच्ची हो रही थी उस वक्त बीजेपी अंतर्कलह में उलझ गई । उस दौरान अरुण जेटली
लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के चुनाव प्रभारी थे । जिस दिन उन्होंने सीईसी की बैठक
का बहिष्कार किया उस दिन बिहार की सीटों के तालमेल के लिए बैठक होने वाली थी ।
नीतीश कुमार से जेटली की कमेस्ट्री बेहतर थी । बीजेडी से पार्टी का गठबंधन टूटा था
और बीजेपी नीतीश से कोई पंगा नहीं ले सकती थी । मौका देख जेटली ने पार्टी पर दबाव
बनाया कि सुधांशु मित्तल को हटाए बगैर वो राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली बैठकों में
नहीं जाएंगें । संघ से जुडे सुरेश सोनी ने जेटली को मनाने की लाख कोशिशें की लेकिन
वो नहीं माने । लालकृष्ण आडवाणी ने भी बीच का रास्ता निकालने की असफल कोशिश की थी ।
अरुण जेटली झुकने को तैयार नहीं थे और राजनाथ भी सुंधाशु को हटाने को राजी नहीं थे
। उस वक्त इस तरह की खबरें भी आई थी राजनाथ सिंह ने सुधांशु मित्तल को नियुक्त करने
से पहले सुषमा स्वराज की सहमति ली थी । लेकिन अरुण जेटली को अपनी अहमियत का अहसास
था लिहाजा वो अड़े रहे और बाद में आरएसएस से जुड़े पार्टी के वरिष्ठ नेता रामलाल और
लालकृष्ण आडवाणी की पहले के बाद जेटली-राजनाथ के बीच की बर्फ पिघली । सुंधाशु
मित्तल सिर्फ नाम के बने रहे, बैठकों और कार्यक्रमों से दूर । इस तरह बीजेपी में
पहली बार किसी नेता ने अध्यक्ष को झुकने पर या फिर उनके निर्णय को बदलने पर मजबूर
किया । अरुण जेटली ने पार्टी में जिस प्रवृत्ति की नींव डाली उसपर चंद महीनों बाज ही वुसंधरा राजे ने इमारत खड़ी कर ली । राजस्थान के चुनावों में पार्टी की हार के बाद राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को घेरने के लिए प्रदेश अध्यक्ष से इस्तीफा दिलवाकर उनपर नेता विपक्ष का पद छोड़ने का दबाव बनाया । लेकिन राजनाथ सिंह को ये दांव उल्टा ही पड़ गया । वसुंधरा ने राजनाथ का फरमान मानने से इंकार कर दिया और खुलेआम अपने समर्थकों से ये संदेश दिलवाया कि लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की हार हुई है लिहाजा राजनाथ सिंह को भी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए । हफ्तों तक दोनों के बीच रस्साकशी चलती रही । पार्टी और अध्यक्ष दोनों की फजीहत के बाद वसुंधरा ने नेता विपक्ष का पद तो छोड़ा लेकिन अपनी तमाम शर्तों को मनवाने के बाद ।
एक बार फिर संगठन पर व्यक्ति हावी हुआ । पार्टी विद अ डिफरेंस और अनुशासित पार्टी पर सवाल उठे। वसुंधरा ने राजस्थान में नेता विपक्ष के पद पर किसी की नियुक्ति नहीं होने दी और जब राजनाथ सिंह के बाद नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तो वो फिर से राजस्थान में नेता विपक्ष बनीं । लेकिन वसुंधरा एक बार फिर से संगठन पर हावी हो गई । कुछ दिनों पहले अध्यक्ष नितिन गडकरी से हरी झंडी मिलने के बाद संघ से जुड़े राजस्थान के नेता गुलाब चंद कटारिया ने प्रदेश भर में यात्रा का ऐलान किया । ये ऐलान वसुंधरा को रास नहीं आया और एक बार फिर से विधायकों के इस्तीफों की झड़ी लगवाकर वसुंधरा ने पार्टी को झुकने पर मजबूर कर दिया गया । यही हाल कर्नाटक का भी है जहां लगभग बागी हो चुके येदुरप्पा जब चाहे तक संगठन को ब्लैकमेल कर केंद्रीय नेतृत्व को घुटनों पर ला देते हैं । येदुरप्पा पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम हैं, बाबजूद इसके उनके सामने बीजेपी आलाकमान की बेबसी दयनीयता के स्तर पर पहुंच जाती है । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उमा भारती को पार्टी में तभी शामिल होने दिया गया जब आलाकमान ने ये भरोसा दिया कि वो मध्य प्रदेश से बाहर रहेंगी । दरअसल अरुण जेटली ने पार्टी नेताओं को जो राह दिखाई उसके बाद से बीजेपी के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है ।
संजय जोशी को पार्टी कार्यकारिणी से बाहर निकलवाने के लिए नरेन्द्र मोदी की लानत मलामत करनेवाले अरुण जेटली और राजनाथ सिंह के झगड़े को भूल जाते हैं । अरुण जेटली को इस बात का श्रेय जाता है कि संगठन पर व्यक्ति के हावी होने की राह के अन्वेषक वही बने । दरअसल बीजेपी में कई नेताओं को इस बात का अंहकार हो गया है वो पार्टी के लिए अनिवार्य हो गए हैं । अनिवार्यता के इस दंभ में उन्हें लगने लगा है कि वो पार्टी और संगठन से बड़े हो गए हैं, लिहाजा वो मनमानी पर उतारू हैं । बीजेपी नेताओं के बढ़ते अहंकार पर गुरूजी गोलवलकर ने बेहद सटीक टिप्पणी की थी- जब कार्य बढता है तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करते हुए प्रभावी होने लगता है, तब लोग स्वभावत: ही कार्यकर्ताओं की प्रशंसा करना आरंभ कर देते हैं ।कार्यकर्ता के लिए वही खतरे का स्थान है । उसमें अपनी योग्यता और प्रभाव की चेतना जागृत होती है और उसमें एक प्रकार का मिथ्याभिमान उत्पन्न हो जाता है । गोलवलकर ने जिस मिथ्याभिमान की बात की है उसके शिकार हुए बीजेपी नेताओं को अपने पूजनीयों का भी ख्याल नहीं ।
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