अठारह जून सोमवार की दोपहर मित्र संजय कुंदन का एसएमएस आया – कथाकार अरुण प्रकाश का निधन । सहसा यकीन नहीं हुआ फौरन पलटकर उनको फोन किया तो पता चला कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पास पटेल चेस्ट अस्पताल में अरुण प्रकाश जी ने अंतिम सांसें लीं । अरुण प्रकाश जी लंबे समय से बीमार थे और दमे की वजह से कई वर्षों से बार आना जाना भी नहीं हो पा रहा था । उन्हें सांस में तकलीफ की वजह से बहुधा ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती थी । वो घर पर ही हमेशा ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ ही रहा करते थे । अरुण प्रकाश से मेरा परिचय नब्बे के आखिरी दशक में हुआ था । तब मैं दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक के लिए कथाकारों से बातचीत के आधार पर एक स्तंभ- मेरे पात्र- लिखा करता था । पहली बार अरुण प्रकाश जी से फोन पर बात हुई । मैंने फोन करने का उद्देश्य बताया । दिल्ली के साहित्य अकादमी के दफ्तर में मिलना तय हुआ । वहां उनसे उनके पात्रों पर बातचीत हुई जो उस वक्त प्रमुखता से छपी थी । अरुण जी बेहद खुश हुए थे । तबतक अरुण जी कई शानदार कहानियां लिखकर हिंदी साहित्य के आकाश पर छा चुके थे । उसके बाद बातों और मुलाकातों का सिलसिला चल निकला । गोष्ठियों के अलावा भी हमलोगों की कई मुलाकातें हुई । अरुण जी बिहार के बेगूसराय जिले के रहनेवाले थे और मेरा बचपन भी मुंगेर अंचल में बीता था । जिला बनने से पहले बेगूसराय भी मुंगेर जिले का ही हिस्सा होता था । लिहाजा दोनों इलाके की बोली एक ही थी । दो तीन मुलाकातों के बाद अरुण जी से मेरी बातचीत अंगिका में होने लगी थी जो हमारे इलाके की बोली थी । वो बातचीत के क्रम में पट्ठा शब्द का खूब इस्तेमाल करते थे । मिलते ही बोलते थे - और पट्ठा की हाल छै । ठीक छियै के जवाब के बाद ही बात आगे बढ़ती थी ।
अरुण प्रकाश बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने कहानियों के अलावा फिल्मों के लिए भी जमकर लेखन किया । उनहोंने कई आलोचनात्मक लेख भी लिखे । अखबारों में भी नौकरी की । बाद के दिनों में अरुण प्रकाश साहित्य अकादमी की हिंदी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक बने । अरुण प्रकाश को कमलेश्वर बेहद पसंद करते थे । वो दौर साहित्य अकादमी में गोपीचंद नारंग और कमलेश्वर की जुगलबंदी का था । एक दिन मैं और मेरे मित्र जयप्रकाश पांडे उनसे मिलने साहित्य अकादमी के दफ्तर में पहुंचे । अरुण जी संपादक की कुर्सी पर विराजमान थे, बीड़ी पी रहे थे । बातचीत हुई । लेकिन उस वक्त अरुण जी हमसे बेहद अनमने ढंग से मिले । पता नहीं क्यों मुझे लगा कि हमारे वहां आने से वो खुश नहीं हुए थे । मुझे लगा कि ये वो अरुण प्रकाश नहीं हैं । संबंधों की गर्माहट और अपनापन के बीच संपादक की कुर्सी आ चुकी थी । मैंने जब उनसे अंगिका में बोलना शुरू किया तो वो विशुद्ध हिंदी में बात करने लगे । मुझे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है । काफी देर सोचा लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका । साहित्य अकादमी से बाहर निकने के बाद मन टूट चुका था । पांच साल के उनके संपादकी के दौरान हमारा उनसे मिलना नहीं हो पाया । बाहर भी मेल मुलाकात कम हो गया था, फोन पर भी बातें कम होते होते बंद हो गई । गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक गोष्ठी में दो हजार चार में मेरी अरुण जी से अंतिम मुलाकात हुई थी। उसके बाद उनसे मुलाकात नहीं हो पाई।
अरुण जी से गांव दियार की बातों के अलावा साहित्य की राजनीति पर भी बातें होती थी । उनकी बातों से हमेशा ये दर्द झलकता था कि हिंदी साहित्य के कर्ताधर्ताओं ने उनको वो जगह नहीं दी जिसके वो हकदार थे । एक कहानीकार के तौर पर उनको लगता था कि वो अपने दौर के श्रेष्ठ कहानीकार थे । उदय प्रकाश को लेकर उनके मन में एक ग्रंथि थी । उन्हें लगता था कि उदय प्रकाश से बेहतर कहानीकार होने के बावजूद आलोचकों ने उन्हें अपनी नजरों से ओझल करने की कोशिश की। मेरा मानना है कि अरुण प्रकाश हिंदी के बेहतरीन कहानीकारों में से एक थे । एक छोटे से उपन्यास कोंपल कथा के अलावा अरुण प्रकाश ने करीब चार दर्जन कहानियां लिखी । उनकी कहानियों के तकरीबन दो सौ पात्रों में से भैया एक्सप्रेस का विशुनदेव, जल प्रांतर की माई और पुजारी, बेला एक्का लौट रही हैं की बेला, कहानी नहीं की सवितरी, गजपुराण के किला बाबू, विषम राग की कम्मो, स्वप्नघर की अंजलि साठे को हिंदी की आनेवाली पीढियां याद रखेंगी और युवा कहानीकारों के लिए उस तरह के पात्रों को रचना एक चुनौती होगी।
अरुण प्रकाश पहले दिल्ली शालीमार गार्डन इलाके में रहते थे । कालांतर में वो मयूर विहार इलाके में रहने आ गए थे । उनके आसपास कई वरिष्ठ साहित्यकार रहते हैं । लेखक संगठनों के पदाधिकारी भी । लेकिन जब दिल्ली के लोदी रोड शवदाह गृह में अरुण प्रकाश का अंतिम संस्कार किया जा रहा था तो उनके पड़ोसी साहित्यकार और लेखक संगठनों के पदाधिकारी वहां नहीं पहुंच पाए । महानगरीय जीवन की आपाधापी में उन लेखकों को अरुण प्रकाश के अंतिम संस्कार में पहुंचने का वक्त नहीं मिल पाया । हां इतना अवश्य किया कि अरुण प्रकाश के निधन पर अखबारों के लिए बयान जारी कर दिया, लेखक संगठनों के नाम पर । अरुण प्रकाश के निधन से एक बार फिर से लेखक संगठनों के होने पर सवाल खड़े हो गए हैं । मैं कई बार इस बात को उठा चुका हूं । लेखक संगठन लेखकों की मौत के बाद एक शोक संदेश जारी कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं । बहुत हुआ तो एक शोकसभा की रस्म अदायगी भी कर लेते हैं । लेकिन सवाल यह है कि क्या लेखक संगठनों से जुड़े उनके पदाधिकारी लेखकों में मानवीय संवेदना बची है या फिर वो मशीनी तौर तरीके से काम करते हैं । क्या किसी भी लेखक संगठन ने ये जानने की कोशिश की कि अरुण प्रकाश के परिवार को किसी तरह की कोई जरूरत है । या फिर दिल्ली जैसे महानगर में जिस परिवार पर दुख का पहाड़ टूटा है उसको ये एहसास दिलाया गया कि पूरी लेखक बिरादरी दुख की इस घड़ी में उनके साथ है । कतई नहीं । तो फिर इन लेखक संगठनों का क्या औचित्य है । क्या ये लेखक संगठन चंद मठाधीशों के चंगुल में हैं जो अपने लाभ के लिए इस मंच का इस्तेमाल करते हैं । अब वक्त आ गया है कि हिंदी के युवा लेखकों को इन संगठनों पर काबिज बुढ़ाते लेखकों से ये सवाल पूछना चाहिए कि कब तक इस तरह से चलता रहेगा । या फिर जिस तरह से इन लेखक संगठनों के राजनीतिक आकाओं को जनता ने नकार दिया है उसी तरह से हिंदी के लेखक भी इन संगठनों को नकार दें । अब वक्त आ गया है कि हिंदी समाज लेखक संगठनों से हिसाब पूछेगा कि आखिर इनकी पॉलिटिक्स क्या है ।
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http://www.apnimaati.com/2012/06/sms.html
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