ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब राजस्थान के स्कूल के पाठ्यक्रम की किताब
से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत की मजबूत बुनियाद रखनेवाले जवाहरलाल
नेहरू को हटा दिया गया । वहां बीजेपी की सरकार है । इस फैसले पर देशव्यापी बहस चल
ही रही थी कि त्रिपुरा सरकार के स्कूली किताबों से स्वतंत्रता संग्राम और महात्मा
गांधी समेत सभी आजादी के सेनानियों को निकाल बाहर किया । गांधी की जगह कार्ल
मार्क्स, एडॉल्फ हिटलर, सोवियत क्रांति, फ्रेंच क्रांति, क्रिकेट का इतिहास आदि को
जगह दी गई । गांधी को त्रिपुरा की स्कूली किताबों में जगह तो मिली लेकिन क्रिकेट
पर उनके रुख को लेकर ना कि स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका पर । गांधी को
हटाकर मार्क्स को जगह देनेवाले राज्य त्रिपुरा में सीपीएम की सरकार है । ये दो उदाहरण
इस वजह से दिए जा रहे हैं कि दोनों ताजा है जबकि इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं कि
जब जब सरकारें बदली हैं तो इतिहास की पुस्तकों से छेड़छाड़ की गई है । सवाल यह उठ
खड़ा होता है कि सरकार बदलने से शिक्षा पद्धति या शिक्षा सामग्री क्यों बदल जाती
है । कारण यह है कि हर राजनीतिक दल अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों को प्रमुखता
देना चाहता है और विरोधी विचारधारा के साहित्य और उससे जुड़े लोगों को हाशिए पर
रखना चाहता है । यह सही है कि शिक्षा राज्य सरकारों का विषय है लेकिन ऐसा क्यों
होता है कि एक राज्य के लिए गांधी या नेहरू महत्वपूर्ण हैं तो दूसरे राज्य के लिए
पंडित दीनदयाल उपाध्याय या तीसरे राज्य के लिए मार्क्स । अपनी विचारधारा को बढ़ावा
देने के लिए किया जाता है लेकिन शासक दल यह नहीं समझते हैं कि ऐसा करके वो के छात्रों
के पीढ़ियों के बीच मानसिक उलझन पैदा कर देते हैं । एक पीढ़ी कुछ और जानती समझती
है और दूसरी पीढ़ी कुछ और । स्कूली शिक्षा व्यक्तित्व विकास की बुनियाद है और
राष्ट्र का विकास भी इसपर बहुत हद तक निर्भर करता है । जब हम उस बुनियाद से
छेड़छाड़ करते हैं या इनको उलझाते हैं तो कहीं ना कहीं हम राष्ट्र के विकास में भी
उलझन पैदा करते हैं और उसको कमजोर भी करते हैं । अब एक राज्य का छात्र बड़ा होकर
गांधी के स्वतंत्रता संग्राम में अप्रतिम योगदान को जानेगा तो दूसरे राज्य का
छात्र गांधी को क्रिकेट पर उनके विचारों को लेकर जानेगा । यह हास्यास्पद तो है ही
लोकतंत्र के संघीय ढांचे के लिए खतरनाक भी हैं ।
एक अहम वजह जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह है भारतीय इतिहास
लेखन पद्धति की कमजोरियां । भारत में इतिहास लेखऩ या तो औपनिवेशिक मानसिकता के साथ
किया गया या फिर विचारधारा विशेष के आलोक में । औपनिवेशिक मानसिकता से लिखे गए
इतिहास का उदाहरण विंसेंट स्मिथ की किताब – अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया और ऑक्सफोर्ड
हिस्ट्री ऑफ इंडिया है । बाद में कई इतिहासकारों ने इसी को आधार बनाकर इतिहास लेखन
किया । औपवनिवेशिक इतिहास लेखन पद्धति के बाद मार्क्सवादी पद्धति के इतिहासकार हुए
जिन्होंने एक खास विचारधारा के आधार पर इतिहास लेखन किया जिसमें कई आवश्यक तत्व
छूटते चले गए, जाने-अनजाने या जानबूझकर कहना मुश्किल है । एक खास विचारधारा की
अवधारणा के आलोक और आधार पर लिखा गया इतिहास एकहरा होता चला गया और इसने स्कूली
किताबों में छेड़छाड़ के लिए जमीन छोड़ दी। अठारह सौ इकतासील में मशहूर अमेरिकी लेखक और
अंतर्ज्ञानवाद के प्रवर्तक वॉल्डो इमरसन ने लिखा था कि सही मायने में इतिहास
जीवनियों से बनता है । उन्नीसवीं शताब्दी में इमरसन ने अमेरिकी इतिहास लेखन और
इंटलैक्चुअल और अध्यात्मवाद के प्रतिकार में ये टिप्पणी की थी । अब अगर हम इस
टिप्पणी को भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखते हैं तो ये सही प्रतीत नहीं
होता है । भारतीय इतिहासकारों ने जीवनियों को एक स्वतंत्र विधा के तौर पर तो देखा,
लेकिन गंभीर सामाजिक इतिहास लेखन में उसको स्त्रोत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया ।
भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा पर अगर नजर डालते हैं तो यहां जीवनी के बहाने से
इतिहास अनुपस्थित है। इसका नतीजा यह हुआ कि जिस भी विचारधारा की सरकार आती रही वो
अपने अर्धज्ञान के आधार पर अपने नेताओं को बढ़ावा देती है । फ्योदोर दस्तावस्की ने
कहा भी था कि – ‘अर्धज्ञान एक अतुलनीय निरंकुश सत्ता है जिसके
अपने पुरोहित और अपने गुलाम होते हैं, जिसकी अभूतपूर्व श्रद्धा से पूजा की जाती है
और जिसके समक्ष स्वयं विज्ञान सिहरता और चापलूसी करता है ।‘
मानव संसाधन विकास मंत्रालय नई शिक्षा नीति को पेश करने जा रही है । उसको
इस बात का ध्यान रखना चाहिए और बगैर देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाए शिक्षा
और पाठ्यक्रम में इस तरह से सुधार किए जाने चाहिए कि सरकारे बदलें तो वो मनचाहे
तरीके से किताबों में बदलाव नहीं कर सके । समय के साथ पाठ्यक्रमों में बदलाव
आवश्यक है लेकिन उस बदलाव का वैज्ञानिक आधार होना चाहिए । समकालीन समय को देखते
हुए छात्रों को अद्यतन जानकारी देने के लिए बदलाव होने ही चाहिए । अगर इतिहास की
कोई नई अवधारणा सामने आती है तो उससे भी छात्रों को अवगत कराना चाहिए लेकिन सिर्फ राजनीति
दलों की विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए पाठ्यक्रमों में बदलाव ना केवल आपत्तिजनक
है बल्कि देश के लिए खतरनाक भी । नई शिक्षा नीति में अगर इस प्रवृत्ति को रोकने का उपाय ढूंढ
सकती है तो ये एक सार्थक कदम होगा ।