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Sunday, July 31, 2016

नामवर के बहाने सियासत क्यों ?

हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह नब्बे साल के हो गए और दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में दिनभर एक समारोह का आयोजन किया गया । इस समारोह में गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के अलावा पूरे देशभर के कई अहम साहित्यकारों ने शिरकत की । इंदिरा गांधी कला केंद्र द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम को लेकर प्रगतिशील लेखकों के पेट में दर्द शुरू हो गया था । साहित्य में वामपंथ का डंडा-झंडा उठाने वाले साहित्यकारों ने नामवर जी से अनुरोध करना शुरू कर दिया कि वो इस कार्यक्रम में नहीं जाएं क्योंकि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोदी की गोद में जाकर बैठ जाने जैसा होगा । प्रगतिशीलता के नाम पर दुकानदारी चलानेवाले कुछ लेखकों ने उनके घर जाकर धरना आदि की धमकी भी दी । नामवर जी टस से मस नहीं हुए।  तय वक्त पर कार्यक्रम में गए, दिनभर वहां बैठे रहे । कार्यक्रम संपन्न हो गया । उनपर भाषण आदि हुए और किताबों-पत्रिकाओं का विमोचन भी हुआ । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह ने बहुवचन पत्रिका का नामवर सिंह पर केंद्रित अंक का संपादन किया जो इस मौके पर जारी किया गया ।नामवर सिंह पर केंद्रित ये अंक बेहतरीन है और कई ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखकों ने नामवर जी पर इसमें लेख आदि लिखे हैं । राजनाथ सिंह और महेश शर्मा के अलावा कई घोर प्रगतिवादियों ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत की । लेकिन जब नामवर सिंह के बोलने की बारी आई तो उन्होंने अपना अंदाज नहीं छोड़ा । नब्बे की उम्र में उनका यही अंदाज उनको नामवर बनाता है । नामवर सिंह ने बगैर राजनाथ सिंह और महेश शर्मा का नाम लिए मंच को संबोधित किया । साथ ही  भी कह डाला कि यहां हुई बातों को सुनने के बाद उनकी इच्छा सौ साल जीने की है ताकि वो इनकी छाती पर मूंग दल सकें । अब इस कथन के निहितार्थ को पकड़ने और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है । कई लोग अपने अपने तरीके से इसको व्याख्यायित करते हुए नामवर सिंह को संघी करार दे रहे हैं । लेकिन नामवर सिंह का अपना तरीका है और वो उसी हिसाब से चलते हैं और हर मंच पर साहस के साथ अपनी बात कह भी देते हैं ।
इसी तरह का वाकया है जब हरिवंश राय बच्चन की किताबों का विमोचन हो रहा था । तत्कालीन इंदिरा गांधी मंच पर मौजूद थीं । नामवर जी भी मंच पर थे और जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने इंदिरा गांधी का नोटिस ही नहीं लिया । उन्होंने बोलना शुरू किया- आदरणीय बच्चन जी और सभागार में उपस्थित साहित्य प्रेमियो । मंच पर प्रधानमंत्री बैठी हों और उनका नोटिस नहीं लेना साहस का काम है । ये वाकया आज से करीब पैंतीस साल पहले का है लेकिन पैंतीस साल बीत जाने के बाद और नब्बे की उम्र पार करने के बाद भी वही साहस । मुझे तो हिंदी के अन्य प्रगतिशील लेखकों में इस तरह का साहस नजर नहीं आता है । स्नॉबरी अवश्य दिखाई देती है जहां सार्वजनिक रूप से नैतिकता की बड़ी बड़ी बातें करनेवाले लोग पर्दे के पीछे नेताओं की खुशामद में लगे रहते हैं । पद और कमेटियों में नामांकित होने की जुगत में दिखते हैं ।  
नामवर सिंह के नब्बे साल के होने पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के आयोजन में उपस्थित होने के बाद प्रगतिशील लेखक संघ ने एलान किया और कहा कि वो अपने को नामवर सिंह से अलग करते हैं । प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जावेद अली ने एक बयान जारी कर नामवर सिंह के कृत्यों से प्रलेस को अलग कर लिया । उस बयान में ये कहा गया है कि दो हजार बारह में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नामवर सिंह संघ के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए । प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ने कहा है कि उनके संगठन के पास नामवर सिंह को रोकने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वो संगठन को नामवर सिंह से अलग तो कर ही सकते हैं । अब यहां ये देखना आवश्यक है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने नामवर सिंह के लिए क्या किया । हिंदी पट्टी में प्रगतिशील लेखक संघ को मजबूत करने का काम नामवर सिंह ने अवश्य किया । सीपीआई के इस बौद्धिक प्रकोष्ठ को हिंदी के लेखकों के बीच लोकप्रिय बनाने में नामवर सिंह की भूमिका को नजरअंदाज किया जा रहा है । दरअसल प्रगतिशील लेखक संघ का यही चाल और चरित्र रहा है, चेहरा भले ही अलग रहा हो । दूसरी बात ये कि प्रगतिशील लेखक संघ अब भी नामवर सिंह के बहाने से ही अपनी सार्थकता सिद्ध करने में लगा है । अरे दोस्तो प्रगतिशील लेखक संघ को पूछता और जानता कौन है जो वो नामवर सिंह से खुद को अलग करने का एलान कर रहा है । अब तो नामवर सिंह के सहारे से राजनीति करना बंद कर दो । अली जावेद भले ही प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव हों लेकिन वामपंथी राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रतीत होते हैं । तभी तो उन्होंने एक नॉन इश्यू को मुद्दा बनाकर अपने संगठन को खड़ा करने की कोशिश की । हलांकि इस काम में कथित प्रगतिशीलों को महारथ हासिल है । 
इसी तरह से खबर ये भी आई कि कुछ वामपंथी लेखकों ने नामवर सिंह को वहां जाने से रोकने के लिए बकायदा फोन किया और इशारों इशारों में उनके घर के बाहर धरना देने की धमकी भी दी । ये लोग शायद ये भूल गए कि नामवर किस मिट्टी के बने हैं । मिट्टी पुरानी भले ही हो गई है कमजोर नहीं हुई है कि इस तरह की धमकियों के आगे झुक जाए । दरअसल ये वही जमात है जो कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी के वक्त सक्रिय दिखाई दे रही थी और अब नीतीश कुमार के लेखकों से मिलने के कार्यक्रम की जमीन तैयार करने में लगी है । इन लेखकों को ये समझना चाहिए नामवर सिंह के बाहने से वो जो राजनीति करना चाहते हैं वो पहले ही दिन से एक्सपोज्ड है । राजनीति करना बुरी बात नहीं है और पढ़े लिखे प्रोफेसरों का राजनीति में स्वागत भी किया जाना चाहिए। लेकिन जब ऐसे लोग खुद के लेखक होने की आड़ में राजनीति के खेल को अंजाम देते हैं तो बहुधा लेखक नाम की संस्था को अविश्वास के दायरे में खड़ा कर देते हैं । लेखकों की नैतिकता की आड़ में राजनीति के इन प्यादों की चालें बेहद खतरनाक होती है और भोली भाली जनता उनके झांसे में फंस जाती है । जनता को ये नहीं पता चल पाता है कि वो अपने राजनितिक आकाओं के कहने पर इस तरह के प्रपंच रचते हैं, कभी असहिष्णुता के नाम पर , कभी अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे में होने की बात उठाकर तो कभी साहित्य सांस्कृतिक संस्थाओं पर भगवा कब्जा की बातें फैला कर । दरअसल होता यह है कि जबतक इनको लाभ मिलता रहता है तो ये खामोश रहते हैं लेकिन जैसे ही दूसरों को तवज्जो मिलने लगती है तो ये तिलमिलाने लगते हैं । इसका एक उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार का साहित्यक आयोजन- रायपुर साहित्य महोत्सव था। उस आयोजन में जिन प्रगतिशील लेखकों को नहीं बुलाया गया था उन्होंने बहुत छाती कूटी थी और साथी लेखकों को सवालों के कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें की गई थीं । तब ये लगा था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आयोजन में ये लेखक शिरकत नहीं करेंगे ।

छत्तीसगढ़ सरकार के आयोजन के दो साल भी नहीं बीते हैं और इस वक्त झारखंड सरकार के सहयोग से साहित्य पर एक बड़ा आयोजन रांची विश्वविद्यालय कर रही है । कथा पावस नाम के इस आयोजन में आमंत्रित लेखकों की सूची से साफ है कि तमाम क्रांतिकारी, प्रगतिशील और खुद को उच्च नैतिक मानदंड पर रखकर अपनी मार्केटिंग करनेवाले तमाम लेखक वहां जुटे हुए हैं । उन्हें इस वक्त ये याद नहीं आ रहा है कि झारखंड में गौरक्षकों ने सरेआम हत्या की थी, झारखंड में पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, भारतीय जनता पार्टी सरकार गौ रक्षा के नाम पर गुंडों को शह दे रही है आदि आदि । कथा पावस में शिरकत करते वक्त तमाम क्रांतिकारी ये भूल जाते हैं क्योंकि उनकी भागीदारी है । अब अगर यहां उनको नहीं बुलाया जाता तो फिर इनका विलाप देखने योग्य होता । इसमें से कई लेखक तो वैसे भी हैं जिन्होंने रायपुर के आयोजन पर सवाल खड़े हुए लेख लिखे थे, फेसबुक पर टिप्पणी की थी । प्रगतिशीलता के इस छद्म खेल को देश की जनता समझती है इस वजह से ही उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गई है और विश्वसनीयता संदिग्ध । 

2 comments:

Unknown said...

पता नहीं, क्यों हिन्दी लेखकों ने लेखन छोड़ राजनीति शुरू कर दी? आज माइक्रो फ्रिक्संन को प्रेमचन्द से अग्रेजी लेखकों तक पहुंचाने कार्य किया।

प्रज्ञा पांडेय said...

बनावटी चेहरे उजागर हुए हैं जाने कितनी बार तो .