साहित्य में इस बात पर बहुधा चिंता प्रकट की जाती है कि युवा साहित्य
की ओर नहीं आ रहे हैं । युवाओं को जोड़ने की भाषा को समकालीन साहित्यकार विकसित
नहीं कर पा रहे हैं । युवाओं की चाहतों और ख्वाहिशों को कहानी और उपन्यास में जगह
नहीं मिल पा रही है । इस बात को लेकर भी साहित्य जगत में खूब मंथन होता है कि
युवाओं को साहित्य की ओर कैसे लाया जाए । यह बात भी कई बार की जाती है कि साहित्यक
पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता आदि छपने पर सिर्फ बुजुर्ग लेखकों की ही
प्रतिक्रिया मिलती है । अपना अनुभव भी कुछ इसके ही आसपास का है । ऐसा बहुत कम होता
है कि कोई कम उम्र का पाठक की ओर से ऐसी प्रतिक्रियया या सूचना हीमिलती हो कि उन्होंने
अमुक लेख या अमुक रचना हंस या पाखी में पढ़ी । टेलीविजन की तरह पत्रिकाओं में इस
तरह की कोई तकनीक विकसित नहीं हो पाई है जिससे पता लग जाए कि किस आयु वर्ग के पाठक
कौन सी पत्रिका या अखबार पढ़ते हैं । सर्वे आदि से इसका अनुमान लगाया जाता है ।
साहित्यक पत्रिकाओं के लिए तो ये अनुमान भी नहीं लगाया जाता है । ये पता लगाना
लगभग असंभव है कि कौन सी साहित्यक पत्रिका किस आयुवर्ग के पाठक पढ़ते हैं । पाठकों की मिलने वाली प्रतिक्रिया से और
गोष्ठियों आदि में उपस्थित श्रोताओं की उम्र से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है
। कितना सही या कितना गलत होगा ये कहना मुश्किल है ।
इतना तय है कि साठ और सत्तर के दशक में युवाओं में साहित्य को लेकर जो
क्रेज था उसकी कमी आज दिखाई देती है । हिंदी साहित्य में इस कमी को कैसे दूर किया
जाए इसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए । इसकी अगर हम पड़ताल करें तो यह पाते हैं
कि दशकों से हिंदी में यह परंपरा चल रही थी कि कविता कहानी और उपन्यास के अलावा
साहित्येतर विषयों पर लेखन नहीं हो रहा था । नतीजा हम सबके सामने हैं हिंदी
साहित्य से कई विधाएं लगभग गायब होती चली गईं और पाठक वही वही पढ़कर उबते चले गए ।
युवाओं में बेहद लोकप्रिय फिल्म और संगीत पर लिखनेवालों को हेय दृष्टि से देखने या
फिर बुर्जुआ विचाधारा के पोषक माने जाने की वजह से नए लेखकों ने फिल्म पर संजीदगी
से नहीं लिखा । इस वजह से भी पाठक तो खोते ही चले गए, युवा भी हिंदी साहित्य से दूर
होकर अंग्रेजी की ओर बढ़ चला। कहानी और उपन्यास में एक खास किस्म की विचारधारा और
यथार्थ को बढ़ावा देने की कोशिश ने भी युवाओं को साहित्य से दूर किया । इस शताब्दी
की शुरुआत में ही कई युवा लेखकों ने इस ठस सिद्धांत पर अपनी रचनाओं के माध्यम से
हमला किया लेकिन फिर भी बहुतायत में लेखक में उसी लीक पर चलते रहे । नतीजा युवा
पाठक दूर होते चले गए ।
साहित्य संस्कृति के मामले में बिहार की भूमि उर्वरा रही है । पाठकों
के मामले में भी बिहार को अव्वल स्थान हासिल है । पत्र-पत्रिकाएं सबसे ज्यादा
बिहार में ही बिकती हैं चाहे वो अखबार हो या पाक्षिक पत्रिका या फिर साहित्यक लघु
पत्रिकाएं । इन सबके पाठक सबके सबसे ज्यादा पाठक बिहार में ही हैं । इसी बिहार की
धरती पर एक ऐसी शुरुआत हुई है जिसने युवाओं के साहित्य से दूर होते जाने की बात को
थोड़ा ही सही निगेट किया है । बिहार में एक स्थान है बड़हिया, समृद्ध किसानों से
लेकर काश्तकारों और जमींदारों का वहां बोलबाला रहा है । बड़हिया के लोग बिहार में
अपनी दबंगई की वजह से जाने जाते हैं । एक बार अटल बिहारी वाजपेयी वहां चुनावी सभा
में गए थे तो उन्होंने बड़हिया को अपने ही अंदाज में व्याख्यायित किया था । अटल
बिहारी वाजपेयी ने अपने उम्दा भाषण में कहा था कि बड़ा है जहां के लोगों का हिया बड़ा
है वही है बड़हिया । हिया यानि दिल । यानि जहां के लोगों का दिल बड़ा है वही
बड़हिया है ।
अभी उसी बड़े दिलवाले जगह बड़हिया में करीब सौ युवाओं ने एक अनूठी पहल
की है । बड़हिया के ये सौ युवा नौकरी आदि की तलाश में अपने गांव से बाहर रहते हैं
लेकिन बार बार लौट कर अपनी जड़ों की तरफ लौटते हैं । युवाओं के इस समूह ने बड़हिया
ने साहित्य को लेकर एक बड़ा फैसला किया । उन्होंने तय किया कि बड़हिया में पैदा
हुए मशहूर मगही कवि मथुरा प्रसाद नवीन की एक प्रतिमा वहां लगाई जाएगी । इस दौर में
जब नेताओं से लेकर संविधान निर्माता अंबेडकर तक की मूर्तियां लगाने का चलन है, मायावती
जैसी नेता खुद की मूर्तियां लगवा रही हैं वैसे माहौल में सौ युवाओं का एक समूह अगर
ये फैसला लेता है कि एक कवि की मूर्ति लगानी है तो यह एक सुखद आश्चर्य से भर देता
है । इन युवाओं ने ये तय किया कि मगही के महान कवि मथुरा प्रसाद नवीन की याद में
जो मूर्ति लगाई जाएगी वो जन सहयोग से लगाई जाएगी । इसके लिए उन युवाओं ने फैसला
किया कि बड़हिया के हर घर से एक एक रुपया चंदा लिया जाएगा । हर घर से एक रुपया
चंदा लेने के पीछे ती सोच ये थी कि यह लगे कि सबके सहयोग से ये मूर्ति लगाई जा रही
है । मुझे बताया गया कि जात-पात से उपर उठकर बड़हिया के ये उत्साही युवक हर घर में
गए और वहां से एक एक रुपया इकट्ठा किया । किसी ने एक की जगह दस दिए तो किसी ने
पांच तो किसी ने सौ । राशि जमा होने के बाद मथुरा प्रसाद नवीन की प्रतिमा समारोहपूर्वक
स्थापित कर दी गई । यह अपनी तरह का अनूठा प्रयास है । मथुरा प्रसाद नवीन मगही के
महान कवि हैं और उस अंचल में उनको मगही का कबीर भी कहा जाता है ।
मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन मथुरा प्रसाद नवीन हमारे आमंत्रण पर एक
बार जमालपुर आए थे । सर्दियों के दिन थे और वो सर पर चादर लपेटे हुए जब जमालपुर
रेलवे स्टेशन पर उतरे थे तो हमको लगा था कि कवि नहीं कोई किसान उतर रहा है । चादर
को गांती की तरह बांधकर ठंड से मुकाबला कर रहे मथुरा प्रसाद नवीन जब अगले दिन
कविता सुनाने लगे तो पूरा सभागार उनकी कविताओं पर मुग्ध था । करीब दो दशक पहले
सुनाई गई उनकी एक कविता अब भी मेरे स्मरण में है – शब्द शब्द में शोला भरके तोहरे
गीत सुनएबो हम, कसम खाहियो गंगाजी के कलम न कभी घुमैयबो हम, तोहरे खातिर सबकुछ
करबो, भुक्खल भी मुस्कयबो हम, अत्याचार मिटैबे खातिर सुक्खल चना चबैवो हम । अब इन पंक्तियों
में कवि जिस तरह से कहता है कि अत्याचार मिटाने की खातिर सूखा चना चबाने के लिए वो
तैयार है उससे उनके तेवरों का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
उन्नीस सौ अट्ठाइस में जन्मे मथुरा प्रसाद नवीन को अपने समय के सारे
बड़े साहित्यकारों का स्नेह प्राप्त था जिसमें निराला से लेकर दिनकर तक शामिल थे ।
नवीन जी ने मगही के अलावा हिंदी में भी कविताएं लिखी – लो लिख लो मेरी बातों को,
क्रांति के उत्पातों को /
हो गए मूर्ख विद्वान यहां , गंजे हो गए महान यहां/दलाल लगे कविता करने, कविराज गए जंगल चरने/तिकड़म के लाखों गेट यहां, मालिश का ऊंचा रेट
यहां/नेता से मुश्किल भेंट यहां, मंत्री का भारी पेट
यहां । अब इस कविता में कवि रेंज को देखिए, चार पंक्तियों में उन्होंने साहित्य से
लेकर समाज और राजनीति की विद्रूपताओं को बेनकाब कर दिया । कविता की उस वक्त की
स्थिति पर कैसा प्रहार है । अपने समय पर प्रहार का सहास दिखानेवाले इस कवि मथुरा
प्रसाद नवीन को हमारे हिंदी समाज ने लगभग भुला दिया है । बिहार में एक मगही अकादमी
हुआ करती थी,शायद अब भी हो लेकिन वो क्या करती है ये शायद पटना के साहित्यकारों को
भी ज्ञात नहीं है । जो इसके कर्ताधर्ता होंगे उनको सहूलियतें आदि मिल रही होंगी
लेकिन अपने कवियों और लेखकों की रचानओं को सहेजने और उसको विकसित करने का काम ये
अकादमियां नहीं कर पा रही हैं । संभव है कि इस कार्यक्रम में उनकी बागीदारी हो
लेकिन पहल युवाओं की है। साहित्य की इसी
उदासीनता पर मथुरा प्रसाद नवीन जी ने तल्ख टिप्पणी की है – ‘तुलसीदास तमाशा देखो, तिकड़म कैसन चल रहलो है/ पूजा पर बैठल बाबा जी खैनी-चूना मल्ल रहल हो ।‘ अब इस तरह की पंक्तियों को देखकर या पढ़कर बरबस
कबीर की याद आ जाती है । कबीर भी इसी फक्कड़पने के अंदाज में इपनी बात कहा करते थे
और समाज की विसंगतियों पर प्रहार करते चलते थे । कबीर की ही तरह मथुरा प्रसाद नवीन
को भी जिंदगी में अपमानित होना पड़ा था। उनको उनके जीवन काल में वो सम्मान नहीं
मिल पाया जिसके वो हकदार थे । मगही के इस
कबीर को जिस तरह से वहां के युवाओं ने अपनी अनूठी पहल से याद किया है वो साहित्यप्रेमियों
के लिए सुकून देनेवाला है और साहित्य अकादमियों को चुनैती भी ।
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