अपने गांव के लोगों के विरोध से परेशान होकर तमिल लेखक प्रो पेरुमल
मुरुगन ने पिछले साल लिखना छोड़ने का एलान कर दिया था । उस वक्त मीडिया में इस बात
को लेकर व्यापक चर्चा हुई थी । इसको समाज में बढ़ती असहिष्णुता के तौर पर भी देखा
और कहा गया था । जैसा कि बहुधा ये होता है कि उत्साह के तर्क हमेशा सीमाओं का
अतिक्रमण करते हैं और ऐसे ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल हो जाता है कि वहां से वापस
लौटने की गुंजाइश नहीं बनती है । मुरुगन के लेखन छोड़ने के एलान के वक्त भी कुछ
ऐसा ही हुआ था । तब कई उत्साही लेखकों प्रोफेसर मुरुगन के इस कदम को एक लेखक की
मौत तक करार दिया था । अब वही उत्साही लेखक खामोश हैं क्योंकि मुरुगन ने फिर से
लिखना शुरू करने का एलान कर दिया है । दरअसल ये पूरा विवाद पिछले साल आई प्रोफेसर
मुरुगन की किताब को लेकर उठा था । उनका उपन्यास मधोरुबगन जब छपा था तो उसकी थोड़ी
सुगबुगाहट शुरू हुई थी लेकिन जब वो अंग्रेजी में वन पार्ट वूमन के नाम से छपा तो
विरोध की चिंगारी ज्वाला में तब्दील में हो गई । इस उपन्यास में प्रोफेसर मुरुगन
ने तमिल समाज में व्याप्त लैंगिंक और सामाजिक असामनता को कसौटी पर कसा गया था । उपन्यास
के प्रकाशन के चार साल के बाद हुए विरोध की ध्वजा तमिल लेखक मुरुगन के गांव
तिरुचेनगोडे के लोगों ने ही उठाई थी । जैसे जैसे विरोध बढ़ता गया वैसे वैसे मुरुगन
पर दबाव भी बढ़ा और इसी दबाव की वजह से पीस कमेटी की एक बैठक में उन्हें बिना शर्त
माफीनामा लिखना पड़ा था और उसके बाद उन्होंने लिखना बंद करने का एलान किया था । उसके
बाद ये मामला मद्रास हाईकोर्ट में गया और कुछ संगठनों ने याचिका डालकर इस किताब पर
पाबंदी लगाने की मांग की । संतोष की बात ये है कि मद्रास हाईकोर्टके चीफ जस्टिस
संजय किशन कौल ने याचिका को खारिज करते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की । अदालत
ने साफ कह दिया कि किसी भी संगठन या संगठनों को
को स्वंयभू सेंसरशिप की इजाजत नहीं दी जा सकती है । विद्वान न्यायधीश संजयकिशन
कौल ने याचिका खारिज करते हुए करीब एक सौ साठ पन्नों का फैसला दिया । उनका ये
फैसला ऐतिहासिक कहा जा सकता है । ये इस मायने में ऐतिहासिक है कि किताबों पर
पाबंदी लगाने की मांगों के बीच इसको नजीर के तौर पर देखा जा सकता है । फैसले में
लेखकीय स्वतंत्रता को कायम रखने पर जोर देते हुए कहा गया है कि अगर कोई किसी किताब
से इत्तफाक नहीं रखता है या उसमें लिखे हुए शब्दों से उसकी भावनाएं आहत होती हैं
तो वो उसको अलग रख दे । फैसले में साफ कहा गया है कि कोई भी चीज जो पहले स्वीकार्य
ना हो वो बाद में स्वीकार की जा सकती है । न्यायाधीश ने इस संबंध में लेडी
चैटर्लीज लवर का उदाहरण भी दिया । उन्होंने टिप्पणी की कि- किसी किताब को पढ़ने या
ना पढ़ने का विकल्प पाठकों के पास होता है । अगर कोई किताब पसंद नहीं हो तो उसे
फेंक दीजिए । किसी किताब को पढ़ेन की कोई मजबूरी नहीं है ।
अदालत ने अपने फैसले में अश्लीलता पर भी टिप्पणी की और कहा कि अगर
किसी किताब में इरोटिका को उभारा गया है तो क्या गलत है । हमारे देश में इस तरह की
परंपरा रही है । इस फैसले में लेखकों की अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को परिभाषित
किया गया है । बावजूद इसके हमारे देश में जबतक आईपीसी की धारा 295 ए है तबतक लोगों
की भावनाएं आहत होती रहेंगी । इस फैसले में अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध
प्रदर्शनों की समस्या को हल करने के लिए सरकार के स्तर पर भी विशेषज्ञों की कमेटी
का सुझाव ऐसा है जिसपर व्यापक बहस की जरूरत है । क्योंकि लेखकीय स्वतंत्रता की भी
एक सीमा तो होती ही है ।
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'जाने-अनजाने आतंकवाद का समर्थन - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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