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Saturday, July 23, 2016

अभिवयक्ति की आजादी के चौराहे

चंद दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट से प्रोफेसर पेरुमल मुरुगन के उपन्यास और उसके बाद उसके विरोध और लेखक के फेसबुक पर मरने के एलान के बाद की स्थितियों को लेकर दायर याचिका पर फैसला आया । मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस संजय किशन कौल के इस फैसले को अभिव्यक्ति की आजादी को मजबूती देनावाला करार दिया गया । मुझे लगता है कि इस फैसले को बगैर पूरा पढ़े अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने शोरगुल मचाना शुरू कर दिया । संजय किशन कौल इस तरह के फैसलों के लिए जाने जाते हैं । जब वो दिल्ली उच्च न्यायालय में थे तो उन्होंने एफ एम हुसैन के केस में इसी से मिलता जुलता फैसला दिया था । तब भी अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों ने ऐसा ही शोरगुल मचाया था । प्रो मुरुगन केस में मद्रास हाईकोर्ट ने अपने फैसले के एक सौ चौरासीवें पैरा में एक गाइडलाइन बनाने का सुझाव दिया गया है । इसके मुताबिक अब वक्त आ गया है कि सरकार इस तरह के मसले को सुलझाने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की जानी चाहिए । इस कमेटी में साहित्य और कला के क्षेत्र के महारथियों को सदस्य बनाने का सुझाव दिया गया है । कोर्ट के मुताबिक इस तरह के लोगों की कमेटी प्रो मुरुगन जैसे मसलों में बगैर किसी पूर्वग्रह के अपनी बात को कह सकती है या अपनी राय दे सकती है । कोर्ट ने साफ कहा है कि इस तरह से साहित्य और कला के विवादित मसलों को हम सुर्फ पुलिस और स्थानीय प्रशासन के भरोसे छोड़ नहीं सकते हैं । इसके अलावा लेखकों, कलाकारों को सुरक्षा से लेकर इस तरह के मसलों को सुलझाने के लिए अफसरों को नियमित अंतराल पर ट्रेनिंग ने की बात भी की गई है ।
अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार जो अदालत के इस फैसले से बेहद खुश हो रहे हैं उनको अदालत द्वारा सुझाई गई इस गाइडलाइन पर भी विचार करना चाहिए । सवाल यह है कि जब कानून में इस तरह के मसलों से निबटने के लिए तमाम तरह की धाराएं मौजूद हैं तो फिर एक और कमेटी क्यों । सवाल यह भी है कि हमारे देश में कलाकार और लेखक भी राजनीति के हिस्सा रहे हैं । वो किसी ना किसी पार्टी या लेखक संगठन से जुड़े रहे हैं और ये लेखक संगठन पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ हैं यह बाद सार्वजनिक रूप से मान्य है । ऐसे में अगर अदालत किसी निरपेक्ष कमेटी की कल्पना कर रही है तो मेरी समझ से तो ये संभव नहीं है । और फिर अगर किसी सरकार को इसका गठन करना होगा तो फिर तो और भी संभव नहीं है क्योंकि सरकारें अपने हिसाब से इसमें अपने समर्थक लेखक और कलाकारों की नियुक्ति करेगी ।
अब जरा इस फैसले की पृष्ठभूमि में चलते हैं । तमिलनाडू के एक गांव के लोगों के विरोध से परेशान होकर उसी गांव के लेखक प्रो पेरुमल मुरुगन ने पिछले साल लिखना छोड़ने का एलान कर दिया था और कहा था कि एक लेखक की मौत हो गई है । मद्रास हाईकोर्ट के ताजा फैसले के बाद मुरुगन ने फिर से लिखना शुरू करने का एलान कर दिया है । दरअसल ये पूरा विवाद पिछले साल आई प्रोफेसर मुरुगन की किताब को लेकर उठा था । उनका उपन्यास मधोरुबगन जब छपा था तो उसकी थोड़ी सुगबुगाहट शुरू हुई थी लेकिन जब वो अंग्रेजी में वन पार्ट वूमन के नाम से छपा तो विरोध की चिंगारी ज्वाला में तब्दील में हो गई । इस उपन्यास में प्रोफेसर मुरुगन ने तमिल समाज में व्याप्त लैंगिंक और सामाजिक असामनता को कसौटी पर कसा गया था । उपन्यास के प्रकाशन के चार साल के बाद हुए विरोध की ध्वजा तमिल लेखक मुरुगन के गांव तिरुचेनगोडे के लोगों ने ही उठाई थी । जैसे जैसे विरोध बढ़ता गया वैसे वैसे मुरुगन पर दबाव भी बढ़ा और इसी दबाव की वजह से पीस कमेटी की एक बैठक में उन्हें बिना शर्त माफीनामा लिखना पड़ा था और उसके बाद उन्होंने लेखन की मौत का एलान कर दिया था । उसके बाद ये मामला मद्रास हाईकोर्ट में गया और कुछ संगठनों ने याचिका डालकर इस किताब पर पाबंदी लगाने की मांग की । मद्रास हाईकोर्टके चीफ जस्टिस संजय किशन कौल ने याचिका को खारिज करते हुए कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की । अदालत ने साफ कह दिया कि किसी भी संगठन या संगठनों को  को स्वंयभू सेंसरशिप की इजाजत नहीं दी जा सकती है । विद्वान न्यायधीश संजयकिशन कौल ने याचिका खारिज करते हुए करीब एक सौ साठ पन्नों का फैसला दिया । उनका ये फैसला ऐतिहासिक कहा जा सकता है । ये इस मायने में ऐतिहासिक है कि किताबों पर पाबंदी लगाने की मांगों के बीच इसको नजीर के तौर पर देखा जा सकता है । फैसले में लेखकीय स्वतंत्रता को कायम रखने पर जोर देते हुए कहा गया है कि अगर कोई किसी किताब से इत्तफाक नहीं रखता है या उसमें लिखे हुए शब्दों से उसकी भावनाएं आहत होती हैं तो वो उसको अलग रख दे । फैसले में साफ कहा गया है कि कोई भी चीज जो पहले स्वीकार्य ना हो वो बाद में स्वीकार की जा सकती है । न्यायाधीश ने इस संबंध में लेडी चैटर्लीज लवर का उदाहरण भी दिया । उन्होंने टिप्पणी की कि- किसी किताब को पढ़ने या ना पढ़ने का विकल्प पाठकों के पास होता है । अगर कोई किताब पसंद नहीं हो तो उसे फेंक दीजिए । किसी किताब को पढ़ने की कोई मजबूरी नहीं है ।
अदालत ने अपने फैसले में अश्लीलता पर भी टिप्पणी की और कहा कि अगर किसी किताब में इरोटिका को उभारा गया है तो क्या गलत है । हमारे देश में इस तरह की परंपरा रही है ।
लेकिन इस फैसले को अंतिम सत्य मान लेनेवालों को एर अन्य फैसले को भी ध्यान में रखना चाहिए । मशहूर चित्रकार एम एफ गुसैन हुसैन के उन्नीस सौ सत्तर में बनाए गए सरस्वती और दुर्गा की नग्न तस्वीरों के एक मामले में दो हजार चार में दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस जे डी कपूर का एक फैसला आया था । जस्टिस कपूर ने आठ अप्रैल दो हजार चार के अपने फैसले में लिखा-
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के करोड़ो हिंदुओं की इन देवियों में अटूट श्रद्धा है- एक ज्ञान की देवी हैं तो दूसरी शक्ति की । इन देवियों की नग्न तस्वीर चित्रित करना इन करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तो है ही साथ ही उन करोड़ों लोगों की धर्म और उसमें उनकी आस्था का भी अपमान है । शब्द, पेंटिंग, रेखाचित्र और भाषण के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा हासिल है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य है । कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है । इन मनोभावों और आइडियाज की अभिव्यक्ति को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । लेकिन कोई भी इस बात को भुला या विस्मृत नहीं कर सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है । अगर किसी को अभिव्यक्ति का असीमित अधिकार मिला है तो उससे यह अपेक्षित है कि इस अधिकार का उपयोग अच्छे कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी देवताओं के खिलाफ विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हें अपमानित करने के लिए । हो सकता है कि ये धर्मिक प्रतीक या देवी देवता एक मिथक हों लेकिन इन्हें श्रद्धाभाव से देखा जाता है और समय के साथ ये लोगों के दैनिक धर्मिक क्रियाकलापों से इस कदर जुड़ गए हैं कि उनके खिलाफ अगर कुछ छपता है, चित्रित किया जाता है या फिर कहा जाता है तो इससे धार्मिक भावनाएं आहत होती है । किसी भी खास धर्म के देवी देवताओं की आपत्तिजनक या नीचा दिखाने वाले रेखाचित्र या फिर पेंटिंग समाज में वैमनस्यता और एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा करते हैं ।  जस्टिस कपूर ने अपने फैसले में और भी कई सख्त टिप्पणियां की थीं । उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के भी कई फैसले इस तरह के मामलों में आ चुके हैं ।
अपने फैसले में जस्टिल कौल ने एक सौ सतासीवें पैरा में साफ कहा है कि प्रो मुरुगन ने अपने उपन्यास में साफ कहा है कि उन्होंने अपने शोध के आधार पर कुछ तथ्यों को सामने रखा है । इस फैसले से एक और बात साफ होती है कि इस तरह के मसलों पर विचार करते समय लेखक या चित्रकार की मंशा का भी ध्यान रखना चाहिए । उसके बगैर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होता है । इस तरह के विवादित मसले का निबटारा अदालत से ही हो क्योंकि अगर कोई कमेटी बनती है तो उसका निष्पक्ष रह पाना मुमकिन नहीं है, सरकार द्वारा गठित कमेटी सरकार की रीतियों और नीतियों के हिसाब से चलती हैं, ऐसा पूर्व में देखा जा चुका है ।  



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