पिछला सप्ताह साहित्य, कला और संगीत के लिहाज से बेहद दुखद रहा । इन
तीनों क्षेत्रों की तीन महान विभूतियों के महाप्रयाण से ये क्षेत्र विपन्न हुआ । मशहूर
चित्रकार सैयद हैदर रजा, महान लेखिका महाश्वेता देवी और गायक और तबला वादक लच्छू
महाराज के निधन ने साहित्य और कलाजगत को झककोर कर रख दिया । महाश्वेता देवी लिखती
अवश्य बांग्ला में थीं लेकिन वो पूरे देश में समादृत थीं । महाश्वेता देवी के लेखन
में समाज के हाशिए के लोगो की आवाज प्रमुखता से दिखाई देती थीं । महाश्वेता देवी
के बारे में एक बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि वो आदिवासियों और दबे कुचले
लोगों के जीवन के बीच जीवन गुजारकर जो जीवानानुभव होता था उसको अपने लेखन में
समाहित करती थी । नतीजा यह होता था कि महाश्वेता देवी के लेखन में एक खास किस्म का
यथार्थ दिखाई देता था जो कि गढ़े हुए यथार्थ से अलग होता था । वो जब बोलती थीं तो
उनकी आवाज में ना तो बनावटीपन होता था और ना ही श्रोताओं को खोखला लगता था क्योंकि
उन्होंने जो जिया वही लिखा । महाश्वेता देवी नक्सलियों के प्रति झुकाव रखती थीं और
मौके बेमौके उनके समर्थन आदि में लेख आदि भी लिखते रहती थीं । मुझे याद है कि उन्नीस
सौ सत्तानवे में 27 दिसंबर को महाश्वेता देवी ने सीपीआई एमएल को अपने हाथों से
लिखा एक खत दिया था जिसमें उनसे रणबीर सेना द्वारा किए गए एक सामहूक नरसंहार का
बदला लेने की बात कही गई थी । उनके उस पत्र के छपने के बाद महाश्वेता देवी पर
हिंसा के लिए उकसाने का आरोप भी लगा था लेकिन वो अपने स्टैंड से टस से मस नहीं हुई
थी । वो अपनी विचारधारा में सीपीएम के करीब थीं लेकिन जब नंदीग्राम में लोगों पर
सीपीएम शासनकाल में अत्याचार हुआ तो वो बंगाल की सीपीएम सरकार के खिलाफ खड़ी हो गई
थी। अपने जीवन के अंतिम समय में वो ममता बनर्जी के साथ खड़ी थीं । महाश्वेता देवी
जितना साहित्य में सक्रिय थी उतनी ही सक्रियता से वो राजनीति के मसलों पर भी अपनी
राय रखती थीं । उन्नीस सौ छब्बीस में ढाका में साहित्यक परिवार में पैदा हुई
महाश्वेता के पिता मनीष घटक मशहूर कवि थे और चाचा ऋत्विक घटक मशहूर फिल्मकार । महाश्वेता
देवी की हजार चौरासी की मां, अरण्येर अधिकार, झांसीर रानी, अग्निगर्भा आदि मशहूर
कृतियां थी । हजार चौरासी की मां पर तो इसी नाम से फिल्म भी बनी और अग्निगर्भा पर
रुदाली के नाम से फिल्म का निर्माण हुआ था । महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार,
साहित्य अकादमी पुरस्कार, रोमन मैगसेसे अवॉर्ड समेत कई सम्मान मिल चुके थे । भारत
सरकार ने उनको पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया था । मैं दो तीन बार महाश्वेता
देवी से मिला था । पहली बार उनसे दो हजार तीन में साहित्य अकादमी के चुनाव के
दौरान मुलाकात हुई थी । उस वक्त वो गोपीचंद नारंग के खिलाफ अकादमी के अध्यक्ष पद
का चुनाव लड़ रही थीं । उस दौरान मैंने उनके दो इंटरव्यू किए थे । उस वक्त उनपर
आरोप लगा था कि वो अशोक वाजपेयी के दबाव में अकादमी का चुनाव लड़ रही थीं । पहले उन्होंने
ऐलान किया था कि अगर वो निर्विरोध चुनी जाती हैं तभी अध्यक्ष बनेंगी लेकिन बाद में
उन्होंने अपना विचार बदल लिया था । तब पहली बार उन्होंने मुझसे ही बातचीत में इस
बात को स्वीकार किया था कि वो लोकतांत्रिक परंपरा का सम्मान करने की वजह से चुनाव
मैदान में हैं । हलांकि महाश्वेता देवी वो चुनाव हार गई थीं । उसके बाद भी मैंने
उनका एक इंटरव्यू किया था तब उनके दिल में चुनाव हारने की टीस तो थी ही इस बात का
भी मलाल था कि हिंदी के कुछ लेखकों ने उनका इस्मेताल कर लिया था । उन्होंने खुलकर
तो ये बात नहीं कही थी लेकिन ये अवश्य कहा था कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का
चुनाव लड़ने की वजह से उन्हें बेवजह के कई आरोपों को झेलने पड़े थे । महाश्वेता के
जाने से समाज के वंचितों की आवाज भी कमजोर होगी ।
महाश्वेता के जाने से साहित्य जगत की जो क्षति हुई है उतना ही बड़ा
नुकसान सैयद हैदर रजा के निधन से कला क्षेत्र को हुआ है । रजा साहब भारत की
चित्रकारी की त्रिमूर्ति- रजा ,सूजा और हुसैन- के आखिरी स्तंभ थे । उनके निधन से
विश्व कला की दुनिया का एक कोना सूना हो गया है । रजा साहब की चित्रकारी में
अद्वैत दर्शन को साफ तौर पर देखा जा सकता था । वो कहते भी थे कि दिव्य शक्तियों के
सहयोग के बिना कला संभव नहीं है । उनकी कला के केंद्र में बिंदू का खास महत्व था
और उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि बिंदू की अहमियत को समझने में उनको
करीब पचास साल लगे थे । रजा साहब का मानना था कि पूरी सृष्टि के केंद्र में बिंदू
है । रजा की चित्रकारी में एक क्रमिक विकास दिखाई देता है जब पहले वो पीला और
नारंगी रंग का इस्तेमाल करते हैं और कालांतर में उनकी चित्रकारी में काले रंग का
प्रवेश दिखाई देता है । विशेषज्ञों का मानना है कि वो रंगों के माध्यम से भारतीय
मिथकों के प्रतीकों का अपने चित्रों में इस्तेमाल करते हैं । रजा सहाब के बारे में
मित्र चित्रकार मनीष पुष्कले से यदा कदा बातचीत होती रहती थी । हमने उनके साथ
स्टूडियो में जाकर बातचीत का एक कार्यक्रम भी बनाया था लेकिन वो योजना परवान नहीं
चढ़ सकी । मनीष बताते थे कि रजा साहब युवा चित्रकारों को सोचने के लिए उकसाते थे
और हमेशा प्रश्नों के साथ उसका उत्तर ढूंढने के लिए छोड़ देते थे । संभव है ये
उनकी युवाओं को सिखाने की अदा हो ।
महाश्वेता और रजा के अलावा इस सप्ताह बनारस के मशहूर तबला वादक और
गायक लच्छू महाराज भी हमें छोड़कर चले गए । बनारस घराने के लच्छू महाराज ने आठसाल
की उम्र से ही तबला बजाना शुरू कर दिया था । भले ही लच्छू महाराज ने बनारस घराने
में ट्रेनिंग ली हो लेकिन वो तबले पर चारो घराने की थाप को उसी सहजता के साथ बजाते
थे । लच्छू महाराज प्रचार प्रसार से दूर रहते थे और अपनी शर्तों पर ही संगत करते
थे । लच्छू महाराज के तबला वादन की एक विशेषता ये भी थि उनकी थाप में दोहराव देखने
को नहीं मिलता था । स्वभाव से ठेठ बनारसी लच्छू महाराज के जाने से भारतीय तबला
वादन परंपरा में एक खास किस्म की खामोशी आई है । इन तीन विभूतियों को श्रद्धांजलि ।
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