अदालतों के फैसले पर कयासबाजी उचित नहीं मानी जाती है, लेकिन जब
शीर्ष अदालत के शीर्ष न्यायाधीश कोई संकेत दें तो फैसले के संकेत को साफ तौर पर
समझा जा सकता है । दिल्ली में दो हजार सीसी से ज्यादा क्षमता की एसयूवी पर पाबंदी
के खिलाफ सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कुछ इसी तरह के
संकेत दिए । तीन जजों की बेंच ने सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणी में कहा कि कोर्ट इस
तरह की डीजल गाड़ियों की बिक्री पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने पर विचार कर रही है
। कोर्ट के मुताबिक बिक्री की अनुमति ग्रीन सेस लगाने के बाद ही किया जा सकेगा
क्योंकि इन गाड़ियों के उपभोक्ताओं को यह समझना होगा कि ये पेट्रोल कार की तुलना
में ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं । कार खरीदारों को यह जानना चाहिए कि वो अपेक्षाकृत
ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ी इस्तेमाल करने जा रहे हैं हैं लिहाजा उनको
ज्यादा भुगतान करना पड़ रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने राजधानी में प्रदूषण के खिलाफ जंग
में शानदार भूमिका निभाई है, भारी वाहनों पर प्रतिबंध से लेकर डीजल कारों पर लगाम
लगाकर। पिछले साल दिसंबर में कोर्ट ने दो हजार सीसी से ज्यादा क्षमता वाली डीजल
गाड़ियों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया था लेकिन अब छूट के संकेत मिल रहे हैं । पहले
भी भारी वाहनों के दिल्ली में प्रवेश को लेकर नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने कई
शर्तें लगाई थी और अलग अलग वाहनों पर अलग अलग प्रवेश कर लगाया था । तब नेशनल ग्रीन
ट्राइब्यूनल ने कहा था कि इन वाहनों के प्रवेश कर से जमा धन को पर्यावरण को
संवारने और बचाने के काम में खर्च किया जाएगा । अब सुप्रीम कोर्ट भी टैक्स लगाकर
दो हजार सीसी से ज्यादा के एसयूवी की बिक्री से प्रतिबंध हटाने के संकेत दे रही है
।
सवाल यहीं से खड़े होते हैं कि पहले प्रतिबंध और फिर टैक्स लगाकर
प्रतिबंध वापस या फिर उसमें ढील क्यों अगर किसी वाहन के राजधानी दिल्ली में प्रवेश
से पर्यावरण पर खतरा है तो टैक्स लगा देने से वो खतरा कैसे दूर हो सकता है । अगर
कोई वाहन अपेक्षाकृत ज्यादा प्रदूषण फैला रहा है तो हरित टैक्स लगाकर उसको मंजूरी
क्यों दी जाती है । यह सही है कि टैक्स से जमा की गई राशि को प्रदूषण से बचाने के
कार्यों में खर्च करने का आदेश होता है लेकिन आम आदमी के मन में प्रश्न उठता है कि
वो काम ही क्यों हो जिसको सुधारने के लिए एक पूरा सिस्टम बनाना पड़े । आवश्यक
वस्तुओं को लेकर आनेवाले ट्रकों को मंजूरी तो उचित है लेकिन अगर लक्जरी गाड़ियां प्रदूषण
फैला रही हैं तो उनको मंजूरी की क्या जरूरत है । बजाए इन फौरी इंतजामात के हमें
अपने देश के प्रदूषण के मानकों को ठीक करने की जरूरत है । हमारे देश में ऑटोमोटिव
रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया गाड़ियों के प्रदूषण मानकों की जांच करने के लिए अधिकृत
एजेंसी है । एजेंसी ये देखती है कि बिक्री के पहले गाड़ी प्रदूषण के मानकों पर खरी
उतरती है या नहीं । उसकी अनुमति के बाद ही गाड़ियों को बिक्री के लिए उतारा जाता
है । लेकिन मानकों को लेकर ही भ्रम की स्थिति है । प्रदूषण के मानकों को तय करने
की जरूरत है । ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने यूरो थ्री के मानकों में कई
कामियां पाईं थी लेकिन उन कमियों को दूर करने के लिए क्या हुआ यह ज्ञात नहीं है । डीजल
वाहनों की बिक्री के वक्त सुनवाई के दौरान ये बात भी सामने आई कि अबतक यूरो फोर के
मानकों के लागू करने की जांच नहीं की जा सकी है जबकि पिछले साल दिसबंर में सुप्रीम
कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने मानक तय करने की अपनी कार्ययोजना का खुलासा
किया था कि और बताया था कि बीएस कब कब पूरे देश में लागू किया जा सकेगा । भारत में
यूरो के समकक्ष बीएस मानक चलते हैं ।अभी पिछले दिनों एक मशहूर कार कंपनी पर यूरोप
में प्रदूषण मानकों से छेड़छाड़ के गंभीर आरोप लगे थे और कंपनी ने घपले की बात मान
भी ली थी। सवाल फिर से वही खड़ा होता है कि यूरोप में, जहां प्रदूषण के मानक
बिल्कुल तय हैं, गड़बड़ी हो सकती है तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि हमारे देश
में, जहां मानकों को लेकर स्थिति बहुत साफ नहीं है, ये घपला नहीं होगा । कारों पर
प्रतिबंध, फिर हरित टैक्स लगाकर उसमें छूट देना ये कदम अल्पकालीन हैं लेकिन अगर
हमें गंभीरता से प्रदूषण से लड़ना है तो इसके मानक तय करने होंगे और उपभोक्ताओं को
जागरूक करना होगा ।
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