गुरुवार को साहित्य अकादमी दिल्ली की लिटरेरी फोरम ने भारतीय भाषाओं
के लेखकों के रचना पाठ का आयोजन किया था । हिंदी, अंग्रेजी और उड़िया के कथाकार और
कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया । इस पाठ के बाद सवाल जवाब का दौर था । वो भी
खत्म हो गया लेकिन जो सवाल अनुत्तरित रह गया या पूछा नहीं जा सका वो था कविता से
समकालीनता का गायब होना । उड़िया के कवि मानस रंजन माहापात्र ने कई कविताएं सुनाईं
। उन्होंने ओडिया के अलावा अंग्रेजी और हिंदी में अनूदित कविताएं भी सुनाई । ओडिया
से हिंदी में सुजाता शिवेन द्वारा अनूदित कविता भी थी । महापात्र साहब की कविताओ
से समकालीनता गायब नजर आ रही थी । वहां अब भी चांद, चिड़िया, मौसम आदि थे । संभव
है कि उनकी कविताओं में इनके अलावा अन्य शेड्स भी मौजूद रहे हों लेकिन उन्होंने
जिन कविताओं का उन्होंने पाठ किया उनमें समकालीनता गायब थी । पिता के अखबारों को
पढ़ने को लेकर लिखी गई कविता में थोड़ी बहुत इस तरह की चीजें अवश्य आ रही थीं लेकिन
वो बहुत कम थी। ओडिया कविता को लेकर बहुधा यह बात कही जाती है कि उसमें अब भी पौराणिकता
और मिथक हावी रहते हैं । दरअसल इसकी जो वजह मुझे समझ आती है वो यह कि ओडिया के
ज्यादातर लेखक अफसर रहे हैं । चाहे वो सीताकांत महापात्र हों, रमाकांत रथ,
तरुणकांति मिश्रा, बिपिन बिहारी मिश्रा हों या फिर अभी हाल में अपनी कहानी संग्रह
को लेकर चर्चा में आ पारमिता शतपथी हों । ये
सभी प्रशासनिक और पुलिस सेवाओं में रहे हैं । इनकी रचनाओं में व्यवस्था पर चोट
नहीं दिखाई देता है तो बात समझ में आती हैं । क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं में रहते
हुए सेवा शर्तों का पालन करना आवश्यक होता है । लेकिन जब प्रोफेसर रहीं प्रतिभा राय जैसी लेखिका
भी अपनी रचनाओं में समकालीनता को विषय नहीं बनाती हैं या कम बनाती हैं तो उनके
लेखन पर सवाल उठते हैं ।
हिंदी कविता में भी समकालीनता या समाज या राजनीति में हो रहे बदलाव को
उकेरने की कोशिश कहां नजर आती हैं । एक जमाना था जब दिनकर, नागार्जुन, श्रीकांत
वर्मा और रघुवीर सहाय अपने समय, समाज और राजनीति को अपनी कविताओं में बेहद शिद्दत
के साथ उकेरते थे लेकिन पता नहीं क्यों इस वक्त के कवि राजनीति पर हाथ ही नहीं
रखना चाहते हैं । या अगर इस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं तो उसके प्रकाशन का
व्यापक प्रचार या उसको पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की जा रही है । क्या
कविता के समाज से या पाठकों से दूर होने की यही वजह है । इस बात पर कवि समाज को
गंभीरता से विचार करना होगा । अगर कहीं छिटपुट राजनीतिक कविताएं लिखी भी जा रही
हैं तो उसको पाठकों तक पहुंचाने के लिए यत्न क्यों नहीं हो रहा है ।
इस वक्त हिंदी में चार साहित्यक मासिक पत्रिकाएं – नया ज्ञानोदय, हंस,
पाखी और कथादेश- निकल रही हैं । मेरे अपने आंकलन के मुताबिक चारों की संयुक्त
प्रसार संख्या पचास हजार के आसपास होगी । इनमें भी अगर इल तरह की कोई कविता छपती
है तो वो हिंदी के व्यापक समाज तक नहीं पहुंच पाती है । इम पत्रिकाओं के अलावा
कवियों को ई पत्रिकाओ में अपनी रचनाएं छपवाने की कोशिश करनी होगी । कविता को अगर
फिर से पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल करनी है तो उसको समकालीनता को अपनाना होगा
। इस वक्त की राजनीति पर चोट कनी होगी । दिनकर और नागार्जुन की चरह कवि को अपनी
कविताओं में नेताओं को चुनौती देनी होगी । अगर कवि ऐसा कर पाते हैं तो कविता को
लोकप्रिय होने से कोई रोक नहीं सकेगा ।
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'श्रद्धांजलि हजार चौरासी की माँ को - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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