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Sunday, July 10, 2016

साहित्य के चुनावी हथकंडे

सांप्रदायिकता- ये एक ऐसा विषय है जो हमारे पढ़े लिखे समाज के एक वर्ग को हमेशा से मथता रहता है । हमारे इस बौद्धिक वर्ग को सांप्रदायिकता के खिलाफ बार-बार खड़ा भी होना पड़ता है । होना भी चाहिए ।  हमारे समाज का ये कथित बौद्धिक वर्ग सांप्रदायिकता को लेकर तब और भी उद्वेलित होने लगता है जब राज्यों या केंद्र में मनमाफिक सरकारें ना हों । एक विचारधारा विशेष के आवरण में लिपटे ये लोग सांप्रदायिकता तो कई बार असहिष्णुता तो कभी अभिवयक्ति की आजादी पर आसन्न खतरे को लेकर व्याकुल नजर आते हैं । इनकी ये व्याकुलता नाटकों, लेखों से लेकर पुरस्कार वापसी तक में नजर आती है । सांप्रदायिकता के इन चैंपियनों को ये विषय तब और परेशान करने लगता है जब देश के किसी हिस्से में चुनाव आदि की आहट सुनाई देने लगती है । ताजा मामला सामने आ रहा है कर्नाटक से जहां से खबर आ रही है कि थिएटर एक्टिविस्ट प्रसन्ना महात्मा गांधी की उन्नीस सौ नौ में लिखी किताब हिंद स्वराज के आधार पर एक नाटक तैयार किया है जिसका मंचन पूरे कर्नाटक में किया जाएगा । योजना के मुताबिक अलग अलग गांवों के अलावा इसका मंचन स्कूल और कॉलेजों में भी किया जाएगा । इस नाटक का उद्देश्य सांप्रदायिकता के खतरों से लोगों को आगाह करना है । हिंद स्वराज गांधी की ऐतिहासिक किताब है जिस पर पहले ब्रिटिश शासकों ने प्रतिबंध लगा दिया था । मूल रूप से गुजराती में लिखी गई इस किताब का बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और फिर कई अन्य भाषाओं में अनुदित होकर छपा और लोगों को गांधी के इस विचार को जानने  समझने का मौका मिला ।
इस किताब के आधार पर तैयार किए गए नाटक को प्रसन्ना ने संपादित कर आधुनिक रूप देने की कोशिश की है । प्रसन्ना ने तो ये भी दावा किया है कि कुछ अंशों को जस का तस रखा गया है जैसा बापू ने लिखा था । इस नाटक में गांधी एक जगह कहते हैं – गाय को बचाने के लिए क्या मुझे किसी मुसलमान से लड़ना चाहिए या उसकी हत्या कर देनी चाहिए ? अगर हमने ऐसा किया तो हम मुसलमानों के दुश्मन बन जाएंगे और गायके भी । गाय संरक्षण का एकमात्र तरीका जो मैं जानता हूं, वह यह है कि मैं अपने मुसलमान भाइयों से हाथ जोड़कर अनुरोध करूं । अगर वो मेरी बात नहीं सुनते हैं तो मुझे गाय को छोड़ देना चाहिए, यह मानकर कि ये मामला मेरे वश का नहीं है । अब यहीं से चुनिंदा जानकारी देने का खेल शुरू होता है । मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसी शख्सियत थे जो अपने विचारों को लगातार परिमार्जित करते रहते थे । सत्य और अहिंसा दो ही ऐसी अवधारणा दिखाई देती है जिसका परिमार्जन बापू के लेखन में नहीं दिखाई देता है अन्यथा वो अपने विचारों को लगातार अपडेट करते रहे हैं । मैं जो कह रहा हूं वो अपने अध्ययन के आधार पर कह रहा हूं । बापू ने विपुल लेखन किया है औप उसको पूरा पढ़ने का दावा कम ही लोग कर सकते हैं ।
गोरक्षा पर बापू के विचार उन्नीस सौ नौ में जो थे उससे किसी को इंकार नहीं है । किसी भी स्तर पर किसी भी तरह की हिंसा अक्षम्य है और हिंसा करनेवाले को कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए । लेकिन बापू ने छह अक्तूबर उन्नीस सौ इक्कीस में यंग इंडिया में गोरक्षा पर क्या लिखा ये देखने की जरूरत है – हिन्दु धर्म की मुख्य वस्तु है गोरक्षा । गोरक्षा मुझे मनुय के सारे विकासक्रम में सबसे अलौकिक वस्तु मालूम हुई है । ...हिन्दुस्तान में गाय ही मनुष्य का सबसे सच्चा साथी, सबसे बड़ा आधार था । यही हिन्दुस्तान की कामधेनु थी । वह सिर्फ दूध ही नहीं देती थी, बल्कि सारी खेती का आधार स्तंभ थी । गाय दया धर्म की मूर्तिमंत कविता है । इस गरीब और शरीफ जानवर में हम केवल दया ही उमड़ती देखते हैं । यह लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों को पालनेवाली माता है । इस गाय की रक्षा करना ईश्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है । जिस अज्ञात ऋषि या द्रष्टा ने गोपूजा चलाई उसने गाय से शुरुआत की । इसके सिवा कोई और ध्येय हो ही नहीं सकता है । गोरक्षा हिन्दू धर्म की दुनिया को दी हुई एक कीमती भेंट है । और हिंदू धर्म भी तभी तक रहेगा, जबतक गाय की रक्षा करनेवाले हिन्दू हैं ।‘  आखिरी पंक्ति पर ध्यान देने की जरूरत है । ईमानदारी तो यही होती कि गोरक्षा पर गांधी के विचारों को समग्रता में जनता के सामने रखा जाता । गांधी ने इसके बाद भी समय समय पर काल और परिस्थिति के हिसाब से गोरक्षा पर अपने विचार रखे हैं जो यंग इंडिया के सात जुलाई उन्नीस सौ सत्ताइस और हरिजन सेवक के इक्कीस सितंबर उन्नीस सौ चालीस के अंक में प्रकाशित हैं । सवाल फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि हम चुनिंदा तरीके से किसी बात को पेश करके हासिल क्या करना चाहते हैं । क्या ये बौद्धिक बेइमानी नहीं है । या फिर किसी खास मकसद से नहीं किया जा रहा है
कर्नाटक में दो हजार अठारह में विधानसभा चुनाव हैं । इलस वक्त वहां कांग्रेस की सरकार है और बीजेपी ने येदियुरप्पा को वहां की कमान सौंप कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं । कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री की कार्यशैली को लेकर उनकी खुद की ही पार्टी के लोग उको कठघरे में खड़े कर चुके हैं । देवगौडा की पार्टी जेडीएस अभी आंतरिक संघर्षों से ही जूझ रही है । ऐसे माहौल में हिंद स्वाराज का गांव-गांव में जाकर मंचन और सांप्रदायिकता के खिलाफ लोगो के जागरण के मंसूबों के एलान राजनीति के आंगन का नाच दिखाई देता है । इन नाटकों का मंचन कन्नड़ और अंग्रेजीमें होगा और एक कैंपेन की तरह से किया जाएगा ताकि कर्नाटक में संप्रदायिकता के खिलाफ लोग जागृत हो सकें । इल कैंपेन से जुड़े लोग जिस तरह की बोली बोल रहे हैं वो भी उनकी प्रतिबद्धता को साफ करते हैं । हिटलर, नाजी शासन आदि शब्दावली का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है । एक बार फिर से सवाल वही कि चुनाव के वक्त क्यों । क्या कर्नाटक में सांप्रदायिकता इस वक्त का मुद्दा है । क्या उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं है जहां दोनों पक्ष के लोग इस मसले को हवा देकर सियासी फसल काटने की कोशिश में जुटे हैं । यहां की सरकार को लेकर हमारे बौद्धिकों का एक वर्ग कमोबेश खामोश रहता है ।
पाठकों को याद होगा कि बिहार चुनाव के वक्त किस तरह से पुरस्कार वापसी को लेकर माहौल बनाने की कोशिश की गई थी । छोटे मोटे धरने आदि भी असहिष्णुता के खिलाफ दिए गए थे । मुंह पर काली पट्टी बांधे चंद लेखकों का साहित्य अकादमी के बाहर जमावड़ा भी हुआ था लेकिन चुनाव में बीजेपी की पराजय के बाद सब शांत हो गया । क्या देश की स्थिति, अगर खराब थी तो , ठीक हो गई । क्या असहिष्णुता समाप्त हो गई । क्या सांप्रदायिकता की जगह सांप्रदिक सौहार्द ने ले ली । नहीं । स्थिति कमोबेश वैसी ही है । मीडिया में इस तरह की भी खबरें हैं कि पुरस्कार वापसी के कुछ अगुवा बिहार सरकार से पद आदि की ख्वाहिश भी जता चुके हैं । खैर ये अवांतर प्रसंग होगा जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी । पानसरे, दाभोलकर और कालबुर्गी हत्याकांड की जांच की प्रगति को देखें तो येसाफ हो जाएगा कि कौन सी सरकार कितना आगे बढ़ा पाई है ।
दरअसल साहित्य, कला और संस्कृति को भी हमारे विचारधारा से सराबोर लेखकों ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है । इसके लिए बहुत हद तक लेखक संगठन जिम्मेदार हैं जो विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करते रहे । नतीजा यह हुआ कि इन संगठन से जुडे लेखक उस राजनीतिक दल के कार्यकर्ता बनकर रह गए । मुझे याद है कि अस्सी के दशक में साहित्यक कार्यक्रमों में इस बात का उल्लेख किया जाता था कि अमुक लेखक सीपीआई का होल टाइमर या कार्ड होल्डर रहा है । और ये बात साहित्यक मंच पर बेहद गर्व से बताई जाती थी और हम जैसे नए लोगों से ये अपेक्षा की जाती थी कि उन होल टाइमर को बड़ा लेखक मानें । साहित्य को समाज के आगे चलनेवाली मशाल से राजनीति का पिछलग्गू बना देने की जिम्मेदारी इन लेखक संगठनों और इनके कर्ताधर्ताओं पर है । अब जब ये लेखक संगठन कमजोर हो गए हैं तो अलग अलग तरीके से व्यक्तिगत प्रयासों से राजनीति की जा रही है । कर्नाटक में सांप्रदायिकता के खिलाफ माहौल बनाना एक अच्छी पहल है । इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन जिस तरीके से गांधी के गोरक्षा पर विचारों को समग्रता में पेश नहीं किया जा रहा है वो खतरनाक और चिंता की बात है । और यही बात उनकी मंशा को भी संदेहास्पद बनाती है ।    


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