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Saturday, August 20, 2016

रंगमंच की बिसात पर सियासत

हिंदी में काफी पहले एक कहावत कही जाती थी-  बिना कोक जो रति करे/बिना गीता भख ज्ञान/बिन पिंगल कविता रचै/तीनों पशु समान । यह उक्ति कविता के संदर्भ में कही जाती थी लेकिन कालांतर में छंद ही कविता से गायब हो गई तो अब पिंगल को कोई क्यों पूछे । दरअसल इस कहावत को उद्धृत करने का हमारा मकसद ये था कि जब कोई नई चीज बनती है तो पुरानी छूटती चलती है । अब अगर हम इस कहावत को बिहार के रंगमंच के संदर्भ में देखें तो वहां एक नाटक के मंचन के वजह से सूबे के नाटकों के आयोजन की पुरानी परंपरा नेपथ्य में चली गई । बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने नाटकों के मंचन को लेकर अब बिल्कुल नई परंपरा की नींव रखी है । ये नींव बहुत मजबूत है बस जरूरत है इसको मजबूत करने की और उसपर बिहार में रंगमंच की नई इमारत खड़ी करने की । संस्कृति विभाग ने जो नई नींव रखी है वो है पटना में नाटक के मंचन की । स्थानीय सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शत्रुध्न सिन्हा जो अपनी युवावस्था में बेहतरीन अदाकार थे के नाटक का मंचन करवाकर और उसपर करीब चालीस पचास लाख रुपए खर्च करके । अभी हाल ही में पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत नाटक पति, पत्नी और मैं का मंचन हुआ । अब जरा इस बात पर गौर फर्माइए कि ये नई परंपरा कैसे मानी जाए । शत्रुध्न सिन्हा संभवत पहले ऐसे रंगकर्मी-सासंद होंगे जिन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र में नाटक करने के एवज में तीस लाख रुपए मिले । इसके पहले दिल्ली से भी ये खबर आई थी भारतीय जनता पार्टी के सांसद मनोज तिवारी को अपने क्षेत्र में होली मिलन समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली सरकार की संस्था हिंदी अकादमी ने आठ लाख रुपयों का भुगतान किया था । संभव है कि बिहार सरकार ने जो भुगतान शत्रुघ्न सिन्हा का नाटक आयोजन करनेवाली कंपनी को किया होगा उसमें से कुछ पैसे उनके साथी कलाकारों को भी मिला होगा । लेकिन यह मुमकिन नहीं है कि सभी पैसा साथी कलाकारों को ही मिला होगा । इस नई परंपरा में कई स्थापित मान्यताओं को टूटते हुए बिहार की जनता ने देखा । जैसे श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में नाटक का मंचन, जहां ना तो उस हिसाब से स्टेज है ना लाइटिंग और ना ही मंचन के उपयुक्त तमाम तरह की सुविधाएं । ये हॉल तो सेमिनार आदि के लिए इस्तेमाल होता है जहां मंच है और सामने बैठने के लिए जगह ।  इस नाटक के मंचन का आयोजन बिहार संगीत नाटक अकादमी ने किया था जिसके अध्यक्ष ख्यातिनाम कवि आलोक धन्वा हैं । नई परंपरा इस वजह से भी कि संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष समेत कर्मचारियों को वक्त पर वेतन नहीं मिलता है, कई कई महीने बाद वेतन का भुगतान होता है ।  लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा के नाटक के मंचन के लिए तीस लाख का भुगतान करने के लिए उनके खाते में पैसे थे । नई परंपरा इस वजह से भी संगीत नाटक अकादमी ने प्रेमचंद रंगशाला में इसका मंचन नहीं करवाकर श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में इसका मंचन करवाया । दरअसल इस नई परंपरा को शुरू करवाने के पीछे प्रेमचंद रंगशाला की बदहाली भी जिम्मेदार हो सकती है । बताया जाता है कि रंगशाला का मंच इस कदर से टूटा हुआ है कि उसमें जगह जगह छेद हो चुके हैं और स्थानीय नाटककार तो किसी तरह से मंच पर पैबंद लगाकर मंचन कर लेते हैं लेकिन सुपरस्टार कलाकार को छिद्रयुक्त मंच पर बैठाना उचित नहीं होता । इस रंगशाला के मंच में ही छेद नहीं है बल्कि यहां की लाइटिंग आदि भी खराब हो चुकी है और बिहार संगीत नाटक अकादमी के पास इतना पैसा नहीं है कि मंच की लाइट बदलवाई जा सके । हालत इतने बदतर हैं कि करीब नब्बे फीसदी बल्ब खराब हैं जो अपने बदले जाने की राह ताक रहे हैं । संभव है इन्ही वजहों से ये नाटक एसके मेमोरियल हॉल पहुंचा हो । प्रेमचंद रंगशाला में शत्रुघ्न सिन्हा के नाटक का मंचन नहीं करवाकर बिहार सरकार कई तरह की बदनामियों से बच गई है । इस रंगशाला में रंगकर्मियों के रिहर्सल के लिए शेड बनाने की कवायद दो साल पहले शुरू हो गई थी लेकिन आजतक खंभा आदि ही लग पाया है। इस मामले में बिहार के संस्कृति विभाग की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने प्रेमचंद रंगशाला की वास्तविक स्थिति से स्थानीय सांसद के नाटक के मंचन को दूर रखकर खुद को किरकिरी से बचा लिया । संभव है कि स्थानीय सांसद महोदय को अपने चुनाव क्षेत्र के इस गौरवशाली रंगशाला की बदहाली के बारे में पता नहीं हो,  नहीं तो ये भी हो सकता था कि वो अपने नाटक के मंचन से मिले पैसों को रंगशाला की बेहतरी के लिए दे देते । या फिर सांसद निधि से ही मदद कर देते । कोई बताए तो सही ।  शत्रुघ्न सिन्हा के इस नाटक के मंचन ने बिहार के रंगकर्मियों को ये सीख भी दे गया कि अगर आपके नाटक में काम करनेवाले कलाकार फिल्मों से जुड़े हैं तो संगीत नाटक अकादमी स्टैंड अप कॉमेडी को भी नाटक बनाकर ना सिर्फ गाजे बाजे के साथ उसका मंचन करवाएगी बल्कि अच्छे पैसों का भुगतान भी होगा । शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने इस कथित नाटक में चंद लोगों के सहारे और रिकॉर्डेड बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ सूबे के हुक्मरानों का मन मोह लिया। रंगकर्मियों के दिल पर क्या बीत रही होगी ये तो वही जानें ।
दरअसल अगर हम बिहार के संस्कृति विभाग के कामकाज पर नजर डालें तो वहां भी परंपराएं ही टूटती नजर आती हैं । वहां शुक्र गुलजार कार्यक्रम में रंगकर्मियों के को जो पैसे दिए जाते हैं जरा उसपर नजर डाल लेते हैं । स्थनीय नाट्य संस्थाओं को मंचन के लिए दस हजार और बाहर से आनेवालों को बीस हजार रुपयों को भुगतान किया जाता है । इस बीस हजार में उनका रहना खाना, यात्रा किराया मंचन का खर्चा आदि सब शामिल है । अब शत्रुघ्न सिन्हा के मंचन के लिए जिम्मेदार संस्था को तीस लाख के भुगतान से इस बात की उम्मीद जगी है कि स्थानीय नाट्यकर्मियों को भी ज्यादा भुगतान हो पाए । उम्मीद तो उन कलाकारों को भी बंधी होगी जो महिला नाट्य उत्सव भी शामिल होने पटना आईं थी। हफ्ते भर के उस महिला नाट्य महोत्सव का पूरा बजट दस लाख रुपए का था । 7 दिन के नाट्योत्सव का बजट दस लाख और एक नाटक के मंचन पर चालीस पचास लाख खर्च करने के संस्कृति विभाग के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए । दरअसल बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने लगता है अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी है । विभाग की कोई यूनिट, कोई दफ्तर पटना से बाहर है नहीं । बिहार के जिस भी कलाकार को कुछ करना होता है तो उसको पटना आना होता है अबतक बीस हजार रुपए में कार्यक्रम करना होता था लेकिन अब अगर लाखों में भुगतान होने की परंपरा शुरू होती है और आगे भी कायम रहती है तो ये बिहार में नाटक के मंचन के लिए अच्छे दिन की शुरुआत होगी । लेकिन बड़ा सवाल कि क्या ऐसा होगा ।

अब अगर परंपरा से हट कर बात की जाए तो शत्रुघ्न सिन्हा के इस नाटक के मंचन का एक और पहलू भी है वो है बिहार में विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक तौर पर चिढाना । लंबे समय से शत्रुध्न सिन्हा की अपनी पार्टी से नाराजगी जगजाहिर है । गाहे बगाहे अपने बयानों से और भारतीय जनता पार्टी के विरोधियों से मुलाकातें कर वो अपनी नाराजगी का इजहार करते रहते हैं । उनकी नाराजगी में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संभावनाएं भी नजर आती हैं और वो भी मौका मिलते ही बिहारी बाबू की जमकर तारीफ करते नहीं थकते हैं । शत्रुध्न सिन्हा भी नीतीशकुमार की जमकर तारीफ करते रहते हैं । अब ऐसा प्रतीत होता है रंगमंच की बिसात पर नीतीश कुमार सियासत की चालें चल रहे हैं । नाटक के पीछे की सियासी मंशा भारतीय जनता पार्टी को ये संदेश देना है कि देखो बिहार का तुम्हारा सबसे लोकप्रिय नेता हमारे साथ मंच साझा कर रहा है । इस बात को मजबूती नाटक के मंचन के वक्त महागठबंधन के सभी बड़े नेताओं की वहां उपस्थिति और उससे पहले नाटक के प्रचार से भी मिलती है । दरअसल जब से नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़ा है तब से दोनों तरफ से एक दूसरे को राजनीतिक तौर पर चिढाने का मौका नहीं छोडा जा रहा है । राजनीतिज्ञ सियासत तो करेंगे ही लेकिन कला और संस्कृति या फिर साहित्य का इस्तेमाल कर नीतीश कुमार ने अपनी जो छवि बनाई है वो अबतक किसी ने नहीं किया । हाल ही में खबर आई थी कि अशोक वाजपेयी और उनका पूरा खेमा नीतीश कुमार के लिए देशभर में बुद्धुजीवियों की बैठक का आयोजन करेगी । तो नीतीश की सियासत का ये दिलचस्प पहलू है । 

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'कजली का शौर्य और ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...