आज से सत्तर साल पहले जब देश आजाद हुआ था तब नए राष्ट्र के सामने
अपनी आर्थिक व्यवस्था बनाने की सबसे बड़ी चुनौती थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने नियंत्रित अर्थव्यवस्था का विकल्प चुना। देश उसी रास्ते पर चल
निकला। उनके बाद इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो सरकार का नियंत्रण और बढ़ा।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और अनेक क्षेत्रों में सार्वजनिक उपक्रम की स्थापना की
गई। सर्विस सेक्टर में भी सरकारी कंपनियों की स्थापना की गई। यहां तक कि सरकारी
अफसरों की यात्रा के लिए टिकट बनवाने तक के लिए भी एक पब्लिक सेक्टर कंपनी को
जिम्मा सौंपा गया। उस वक्त के लिए इस तरह के निर्णय सही हो सकते हैं लेकिन बदलते
वक्त में बाजार का विस्तार होने और देश की जनता की परचेजिंग पॉवर में बढ़ोतरी के
बाद कई सेवाओं के निजीकरण की बात शुरू हो गई, निजीकरण भी हुआ। दरअसल खुले बाजार की
खुली अर्थव्यवस्था के अपने कायदे होते हैं, और वो कायदा कहता है कि सरकार को कम से
कम क्षेत्रों में दखल देना चाहिए। बाजार की अपेक्षा तो ये है कि सरकार सिर्फ तीन-चार
सेक्टर यानि देश की रक्षा, इंफ्रास्ट्रक्टर और नीतियों के निर्माण तक अपने को
सीमित कर ले । उन्नीस सौ इक्यानवे में देश ने खुली अर्थव्यवस्था की राह पर चलने का
फैसला किया और ढाई दशकों में हम उस राह पर काफी आगे बढ़ चुके हैं । इस पृष्ठभूमि
में कई सरकारी कंपनियों का विनिवेश आवश्यक हो गया है।
केंद्र सरकार ने करीब पचपन हजार करोड़ के कर्ज में डूबे और बावन
हजार करोड़ रुपए के कुल घाटे में में चल रही एयर इंडिया के विनिवेश को सैद्धांतिक
मंजूरी दे दी है। एयर इंडिया का कितना हिस्सा बेचा जाएगा और कैसे बेचा जाएगा इस
बारे में फैसला करने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली की अगुवाई में केंद्रीय
मंत्रियों एक कमेटी बनाई गई है जिसमें नितिन गडकरी, पियूष गोयल, सुरेश प्रभु और
अशोक गजपति राजू शामिल हैं। दरअसल नीति आयोग ने एयर इंडिया के पूर्ण विनिवेश का
प्रस्ताव दिया था। आयोग की सलाह के मुताबिक इस कंपनी से सरकार को पूरी तरह से बाहर
हो जाना चाहिए। नीति आयोग की सलाह उचित भी लगती है। साल दर साल एयर इंडिया का घाटा
बढ़ता ही जा रहा है। करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा लगातार घाटे में जा रही कंपनी
की भारपाई में क्यों बर्बाद किया जाए। दो हजार सात में कंपनी को मजबूत करने के लिए
एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस का विलय हुआ था लेकिन उसका भी कोई लाभ नहीं मिल
पाया। श्रीलंका से लेकर न्यूजीलैंड तक में विमानन कंपनियों के परिचालन से सरकार ने
हाथ खींच लिया और उसके बाद इन कंपनियों की हालात काफी बेहतर हुई ।
अब सरकार के सामने कई तरह के विकल्प हैं जिसका चुनाव मंत्रियो की
कमेटी को करना है। सबसे उचित विकल्प तो यही होगा कि इसका पूरी तरह से विनिवेश कर
दिया जाए और सरकार अपने पास एक गोल्डन शेयर रखे जिसके तहत उसके पास प्रत्ययी
जिम्मेदारी (फिडूसियरी रेसपांसिबिलिटी) हो। ब्रिटेन की सरकार ने हीथ्रो एयरपोर्ट
के संदर्भ में इसी तरह का फॉर्मूला अपनाया था जहां सरकार के पास आखिरी फैसला लेने
का अधिकार तो रहता है लेकिन उसको किसी तरह का डिविडेंड नहीं मिलता है। दरअसल सरकार
एयर इंडिया में जितना कम दखल देने का अधिकार अपने पास रखेगी उतना ज्यादा पैसा एयर
इंडिया को बेच कर हासिल होगा। अगर सरकार एयर इंडिया के मौजूदा कर्मचारियों को रखने
या ना रखने का विकल्प भी खरीदार को मिले तो विनिवेश करनेवाली कंपनियों का रुख
सकारात्मक हो सकता है।
एयर इंडिया को बेचने के लिए तीन तरह के विकल्प सरकार के सामने है।
एयर इंडिया को तीन हिस्सों में बांट कर, मुनाफा वाली सहयोगी कंपनियों को अलग करके
बेचा जाए। एयर इंडिया एक्सप्रेस,जो लो कॉस्ट एयरलाइंस है, एयर इंडिया कार्गो जो
माल ढुलाई का काम करता है और तीसरा एयर इंडिया सर्विसेज, जिसके पास तमाम संपत्ति
है। इसके अलावा लैंडिंग स्लॉट्स की बिक्री भी नीलामी के जरिए किया जाना चाहिए ताकि
उचित मूल्य मिल सके। एयर इंडिया के पास देश विदेश में काफी संपत्ति है, जिसमें
मुंबई के मरीन ड्राइव का इसका मुख्यालय ही हजारों करोड़ का है। इसके अलावा विदेशों
में भी इसकी संपत्तियां हैं।
दो हजार एक में भी एक बार एयर इंडिया में विनिवेश की कोशिश हुई थी
लेकिन तब वो परवान नहीं चढ़ पाई थी। उसके बाद सरकारी मदद से किसी तरह से एयर
इंडिया चलती रही, घाटा लगातार बढ़ता चला गया। इसी तरह की कई अन्य पब्लिक सेक्टर
कंपनियां हैं जिनके या तो पुर्नगठन की जरूरत है या फिर उनको पूरी तरह से निजी
हाथों में सौंप देने की आवश्यकता है। लोकसभा में एक लिखित जवाब में सरकार ने बताया
था कि 78 पब्लिक सेक्टर कंपनियों का 2015-16 का कुल घाटा अट्ठाइस हजार सात सौ
छप्पन करोड़ रुपए है। इन कंपनियों को मिलाकर हर दिन लगभग औसत अस्सी करोड़ का घाटा
हो रहा है। ये घाटा पिछले साल की तुलना में पचपन फीसदी अधिक है। उपलब्ध आंकड़ों के
मुताबिक चार सबसे बड़ी घाटे में चलनेवाली कंपनी स्टील अथॉरिटी, बीएसएनएल, एयर
इंडिया और हिन्दुस्तान फोटो फिल्मस है। अब सवाल यही है कि सरकार स्टील का उत्पादन
क्यों करे, टेलीफोन सेवा क्यों दे। इन सब क्षेत्रों में निजी कंपनियां बेहतर
सहूलियतें और सेवा दे रही हैं तो फिर सरकार का इसमें करदाताओं का पैसा लगाकर घाटा
अर्जित करने से बचना चाहिए। सरकार को मौजूदा परिस्थियों का आंकलन करते हुए इन सफेद
हाथियों से जल्द से जल्द पिंड छुडाने की कोशिश करनी चाहिए।
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