इस वक्त हमारे देश में भाषा को लेकर एक बार फिर से सियासी सेनाएं
सजाई जा रही हैं। अलग अलग पक्ष के लोग सरकार से मिलकर अपनी मांगें रख रहे हैं। तर्क
पुराने हैं कि हिन्दी के बढ़ने से वो अन्य भारतीय भाषाओं को दबा देगी। यह तर्क
वर्षों से दिया जा रहा है और जब भी हिंदी को मजबूत करने की कोशिश होती है तो इस
तर्क को झाड़-पोंछकर फिर से निकाल लिया जाता है। इस झाड़ पोंछ में अंग्रेजी के लोग
अन्य भारतीय भाषाओं के मददगार के तौर पर खड़े दिखने की कोशिश करते हैं, कम से कम
हिंदी के विरोध के खिलाफ खड़े तो दिखते ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हिंदी के
विरोध में अन्य भारतीय भाषाएं खड़ी नहीं हो रही हैं तो उन्होंने अंग्रेजी का
गुणगान शुरू कर दिया और उसको रोजगार की भाषा आदि कर कर प्रचारित करना शुरू कर दिया
था। अब एक नया औजार ढूंढा गया है जो भाषा के नाम पर एक बेहद खतरनाक प्रवृत्ति को
बढ़ावा दे रहा है। वह है हिंदी को उसकी बोलियों से अलग करने की कोशिश। इन दिनों एक
बार फिर से भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मुहिम
जोर पकड़ने लगी है। भोजपुरी को लेकर काफी पहले से बातें हो रही थीं लेकिन अब जिस
तरह से हिंदी के बढ़ने को इस मांग की वजह बनाया जा रहा है वह बिल्कुल ही एक सोची
समझी रणनीति का हिस्सा है। हिंदी तो हमेशा से अपनी बोलियों का एक समुच्चय रही है। उसकी
बोलियां उसकी प्राण रही हैं। हिंदी को उसकी बोलियों से अलग करने का प्रयत्न शरीर
से प्राण को अलग करने जैसा कृत्य है।
भोजपुरी और राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में डालने की मांग करने के
पहले इन दोनों बोलियों के लिए काम करने की जरूरत है। किसी भी भाषा का आधार उसका
व्याकरण, उसकी लिपि होती है। क्या भोजपुरी और राजस्थानी का कोई मानक व्याकरण है? क्या इनकी कोई अलग लिपि है? संभवत:
नहीं। क्योंकि जितनी भी रचनाएं भोजपुरी और राजस्थानी में सामने आती
हैं वो सभी देवनागरी लिपि में और हिंदी के व्याकरण का अनुकरण करती हुई लिखी जाती
रही हैं। भाषा के इन आधारभूत संकल्पों को पूरा किए बगैर भाषा मान लेने का आग्रह
करना व्यर्थ है। इसके अलावा एक और बात जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए वो ये कि
किसी भी बोली या भाषा का विकास उसको संविधान की आठवीं अनुसूची में डाल देने से संभव
है। क्या सिर्फ सरकारी आशीर्वाद मिल जाने से कोई फलने फूलने लग जाता है। यहां यह
सवाल उठाना उचित है कि जो लोग आज भोजपुरी और राजस्थानी की पैरोकारी कर रहे हैं
उनमें से कितने लेखक इसको अपने लेखन में अपनाते हैं? ऐसे
कितने पाठक हैं जो इनको पढ़ने के लिए उत्सुक ना भी हों कम से कम संस्कारित तो हों? इससे भी आगे जाकर यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इन भाषा में कितने प्रकाशक
पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए आतुर हैं या फिर इन भाषाओं में पुस्तकें छापकर वो
व्यावसायिक रूप से अपना कारोबार सफलतापूर्वक संचालित कर सकते हैं?
अब अगर हम इसको दूसरे तरीके से देखें तो हिन्दी का बेहतरीन साहित्य
उसकी उपभाषाओं में ही है, चाहे वो अवधी में हो चाहे ब्रज भाषा में। इन उपभाषाओं का हिन्दी के साथ एक रागात्मक
संबंध रहा है। और कभी भी दोनों में टकराहट देखने को नहीं मिली है।विश्व के भाषाई
इतिहास पर अगर हम नजर डालें तो यह एक अद्भुत सांमजस्य है। इस सामंजस्य को तोड़ने
से किसको लाभ होगा, यह साफ है। बल्कि होना तो यह चाहिए कि हिंदी में इन तमाम
बोलियों और उपभाषाओं में प्रयोग किए जानेवाले मुहावरों, कहावतों और शब्दों के
प्रयोग को बढ़ाना चाहिए। इसका एक लाभ यह होगा कि जो नई हिंदी बनेगी या हिंदी को जो
दायरा बनेगा वो लोगों के और नजदीक पहुंचेगी। भोजपुरी, अंगिका, मैथिली,अवधी,
बुंदेलखंडी, राजस्थानी आदि के शब्दों को हिंदी में मिलाकर उसके उपयोग को बढ़ाने की
कोशिश होनी चाहिए। साहित्यकारों और लेखकों पर भी जिम्मेदारी है कि वो इस तरह के
शब्दों को अपनी रचनाओं में लेकर आएं। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि – ‘चौदहवीं शताब्दी में कवि विद्यापति ने अपनी पदावली
में जिस भाषा का प्रयोग किया वह उत्तर में सर्वत्र समझी जाती थी और उसी भाषा के
अनुकरण से ब्रजबुलि (ब्रजबोली) का जन्म हुआ, जिसके कवि बंगाल, असम और ओड़ीस्सा में
उत्पन्न हुए। बल्कि कहना यह चाहिए कि ब्रजबुलि का जन्म ब्रजभाषा और मैथिली के
मिश्रण से हुआ था। अतएव, ब्रजबुलि को लेकर एक समय शूरसेन से लेकर असम तक की भक्ति
कविता की भाषा प्राय: एक ही थी।“ यह इस
वक्त समय की मांग है कि इस तरह की रचनाएं रची जाएं जिससे भाषा और उसकी उपभाषा के
बीच संबंध और प्रगाढ़ हों और हिंदी की उपभाषा को हिंदी के खिलाफ खड़ा करने की
कोशिशें परवान नहीं चढ़ सके।
दरअसल अगर हम देखें तो भाषा के मामले में भी ऐतिहासिक भूलें हुई
हैं। संविधान सभा में तय किया गया था और जिसे भारतीय संविधान में रखा भी गया था कि
संविधान के लागू होने के अगले पंद्रह वर्ष तक अंग्रेजी चलती रहेगी और अगर 15 वर्ष
के बाद भी संसद की यह राय हो कि विशिष्ट विषयों के लिए अंग्रेजी आवश्यक हो तो संसद
में कानून बनाकर उन विषयों के लिए अंग्रेजी को जारी रख सकती थी। बाद में हिंदी के
प्रचार विकास और ठोस जमीन तैयार करने के लिए सुझाव देने के लिए राष्ट्रपति ने
बालाजी खेर की अध्यक्षता में राजभाषा आयोग की स्थापना की जिसने 1956 में अपनी
रिपोर्ट प्रस्तुत की। उसके आधार पर राष्ट्रपति ने कई आदेश जारी किए थे जिसमें एक
था वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन। समय बीतता जा रहा था लेकिन हिन्दी
को लेकर ठोस काम नहीं हो पा रहा था। गैर हिंदी प्रांतों से हिंदी विरोध की जैसी
आवाजें उठ रही थीं उससे 1963 तक ये साफ हो गया था दो साल बाद यानि 1965 में
अंग्रजी को हटाकर हिन्दी को शासन का माध्यम बनाना मुमकिन नहीं है। ऐसे माहौल में
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में ये ऐलान कर दिया कि जबतक
अहिन्दी भाषी भारतीय अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे, तबतक केंद्र में भी हिंदी के
साथ-साथ अंग्रेजी चलती रहेगी। गड़बड़ी यहीं से शुरू हुई। संविधान में ये तय किया
गया था कि इसके लागू होने के पंद्रह साल के बाद अंग्रेजी विशिष्ट कार्यों के लिए
ही प्रयोग में लाई जाएगी लेकिन जो भाषा अधिनियम बना वो संविधान की उस मूल आशय के
विरुद्ध था। 1965 के जनवरी महीने में जब मद्रास में हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हुआ
तो लालबहादुर शास्त्री ने ऐलान कर दिया कि नेहरू की भावनाओं का सम्मान होगा और वही
हुआ और 1967 में कानून पास हो गया। गांधी भी शासन की भाषा के तौर पर अंग्रेजी को
हटाना चाहते थे लेकिन वो भी नहीं हो सका। उस वक्त जिस तरह से अन्य भारतीय भाषाओं
और हिंदी के बीच माहौल बना उसमें अंग्रेजी को अपने लिए संभावनाएं दिखी और उस भाषा
के पैरोकारों ने वो तमाम कार्य किए जिससे हिंदी और अन्य भारतीय भाषा एक दूसरे के
खिलाफ लड़ती रहें।
इस युक्ति से लगभग चार दशक निकल गए और पिछले एक दशक में हिंदी और
अन्य भारतीय भाषाएं बेहद करीब आने लगीं तो अंग्रेजी के लोगों ने एक नया रास्ता
तलाशा कि हिंदी और उसकी उपभाषा या बोलियों को एक दूसरे से लड़ाया जाए। इस युक्ति
के तहत ही भोजपुरी और राजस्थानी आदि स्वतंत्र भाषा के तौर पर मान्यता की मांग करने
लगे। अब इस बात की कल्पना करिए कि अगर भोजपुरी के साथ साथ अंगिका, वज्जिका,
मैथिली, मगही आदि को भी हिंदी से अलग करने की मांग उठने लगे तो फिर हिंदी का क्या
होगा।हिंदी के कुछ लोगों ने उस स्थिति की कल्पना करते हुए अब सरकार से ये मांग
करनी शूरू कर दी है कि भोजपुरी और राजस्थानी को आठनीं अनुसूची में शामिल नहीं किया
जाए। एक तरह से देखें तो टकराहट की स्थिति दिखाई दे रही है। होना यह चाहिए कि
हिंदी और उसकी बोलियों के लोगों को साथ बिठाकर बातचीत होनी चाहिए और उनकी शंकाओं
को दूर करना चाहिए। उनको यह बताया जाना चाहिए कि हिंदी कहीं से भी भोजपुरी या
राजस्थानी का हक नहीं मार रही है। राजस्थानी और भोजपुरी को समृद्ध करने की भी तमाम
कोशिशें होनी चाहिए। हिंदी और उसकी उपभाषाओं के लेखकों को साथ बैठकर इन सवालों ,
मुठभेड़ करना होगा। इससे सबका भला होगा । अंग्रेजी के बिछाए जाल में फंसने से
बेहतर है कि भारत हिंदी को मजबूत किया जाए ताकि उनकी उपभाषाएं या बोलियां भी मजबूत
हों।
1 comment:
बात तो सही है। एक बार ये सिलसिला चला तो फिर पता नहीं कहाँ जाकर रुकेगा। भोजपुरी और राजस्थानी ही क्यों? फिर पहाड़ी बोलियाँ जैसे गढ़वाली, कुमाउनी इत्यादि भी अपने लिए जगह मांगेगी। आपने बात तो सही कही है लेकिन इससे फर्क शायद ही पड़े क्योंकि भोजपुरी और राजस्थानी अगर शामिल होती है तो कई लोगों को फायदा होगा। वो अपना फायदा नहीं छोड़ेंगे। समितियों का गठन होगा जिसमे से सरकारी मलाई खाने का मौका भी मिले। अब ये सब कौन छोड़ना चाहेगा। साड़ी लड़ाई तो इसी फायदे के लिए हो रही है शायद।
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